Monday, August 19, 2019

छत्तीसगढ़ी फिल्म मंदराजी देखा क्या ? मैंने तो देख लिया |

"छत्तीसगढ़ी फिल्म मंदराजी देखा क्या ?मैंने तो देख लिया |"

                        गाँव की माटी की सोंधेपन की महक लिए नाचा के पुरोधा दाऊ दुलार सिंह मंदराजी के जीवनी (बायोपिक )पर बनी फिल्म मंदराजी जून 2019 को रिलीज़ हो चुकी है |इसमें एक ऐसे व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित करने का उपक्रम किया गया है जिसने लोक कला, लोक संस्कृति को प्रशय देकर उसके संरक्षण, संवर्धन के लिए अपना खेत घर सब कुछ बेच बेचकर पैसा लगाया और अंत में उपेक्षा, अभाव, गरीबी से जूझता हुआ अपने प्राणों का उत्सर्ग करता है | 

                   निर्देशक विवेक सारवा ने फिल्म के माध्यम से मंदराजी के जीवन के विभिन्न पहलुओं को, उनके मर्म को रेखांकित करने का अपनी तरफ से भरपूर प्रयास किया है | फिल्म शुरू से अंत तक दर्शकों को बांधे रखने में सक्षम है | किस तरह संगीत प्रेमी मंदराजी दाऊ ने एक छोटे से गाँव के छोटे-मोटे कलाकार जो थोड़ा बहुत हास्य प्रहसन कर लोगों का मनोरंजन कर अर्थोपार्जन करते हैं उन कलाकारों को एकत्र करने का काम किया और उन्हें मंच प्रदान किया | नाचा जैसी विधा को परिष्कृत कर रवेली नाचा पार्टी का गठन किया | गाँव-गाँव में नाचा दिखाकर जनजागृति फैलाई तत्पश्चात नाचा के माध्यम से हंसते-हंसाते सामाजिक जागरूकता का सन्देश जैसे छुआछूत की समस्या, ऊँच-नीच, अमीरी- गरीबी, दहेज़ समस्या, स्वास्थ्य आदि कुप्रथाओं के प्रति लोगों को जागरूक करने लगे |गीत संगीत के प्रति उनका यह जूनून उन्हें घर से उलाहना का भी पात्र बनाया किन्तु वे डिगे नहीं अपनी ही धुन के पक्के उसी में रमे रहे | आज़ादी से पहले से शुरू यह दौर आज़ादी के बाद भी अनवरत चलता रहा किन्तु होनी बलवान है | जीवन भर जिनके साथ और जिनके लिए संघर्ष करते रहे कैसे उन्हें उनके साथी कलाकारों ने धोखा दिया कैसे दूसरी संस्था के लोगों ने उनके मंजे हुए परिपक्व कलाकारों को अपने साथ ले लिया और विश्वविख्यात बने | पैसा के ख़तम होते ही साथियों ने मुंह फेर लिया मालगुजार परिवार के होने के बावजूद अंत समय में वे एक-एक पैसे के लिए मोहताज होते रहे उपेक्षा, अभाव, गरीबी में उन्होंने अपने प्राण त्यागे|
              फिल्म में दाऊ दुलार सिंह मंदराजी का जीवंत अभिनय किया है करण खान ने उन्होंने अपने अभिनय के बेजोड़ कला कौशल से दर्शकों के दिलोदिमाग पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है उनका अभिनय इतना जीवंत है कि कहीं-कहीं दर्शकों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं | उनकी पत्नी रामहीन के रूप में ज्योति पटेल सहित फिल्म के सभी कलाकारों ने उत्कृष्ट अभिनय किया है चाहे वे नाचा के पात्र हों या परिवार के सदस्य | लक्ष्मण मस्तुरिया के गीत और खुमान साव के संगीत ने दर्शकों को भाव विभोर किया है हालाँकि उनके गीतों को पहली बार नहीं सुना गया है किन्तु किस स्थान पर गीतों को रखना यह निर्देशक ने बख़ूबी सूझ-बूझ से प्रयुक्त किया है साथ ही उस समय के ठेठ ग्रामीण परिवेश गाँव घर को प्रदर्शित करने की कोशिश की गई है और इसमें वे सफल भी रहे हैं | 
                सारवा ब्रदर्स फिल्म प्रोडक्शन एवं माँ नर्मदा फिल्म्स द्वारा प्रस्तुत यह फिल्म हर उस छत्तीसगढ़िया को देखना चाहिए जिनकी कला एवं संस्कृति में जरा भी रूचि हो, प्रेम हो | सारवा ब्रदर्स बधाई के पात्र हैं जिन्होंने एक ऐसे व्यक्ति के जीवन चरित्र पर फिल्म बनाई है जिन्हें आज की पीढ़ी ने देखा भी नहीं है | छत्तीसगढ़ शासन द्वारा प्रतिवर्ष लोक कला के क्षेत्र में किसी एक लोक कलाकार को दाऊ मंदराजी सम्मान से सम्मानित भी किया जाता है |
मुझे मंदराजी देखे एक सप्ताह हो गया किन्तु आज भी दिलो दिमाग पर मंदराजी की छवि अंकित है | अभी भी समय है आप इस फिल्म को रायपुर के प्रभात टाकिज में दोपहर 12 से 3 के समय में देख सकते हैं |

Sunday, June 2, 2019

“बस्तर की नारी”

बस्तर पर कविता                     
                           “बस्तर की नारी”

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस
 8 मार्च
 पार्लर से निकली
  लिपी-पुती कुछ महिलाएं
 बड़े-बड़े आयोजन करतीं
बड़े आयोजनों का हिस्सा बनतीं
 मोमेंटो,
कागज का सम्मान पत्र
उपलब्धि के कुछ लाईन 
समाज सेवा के खोखले उदाहरण - - -
वहीँ
बस्तर के बीहड़ों में
कभी नक्सल के नाम पर 
जूझती
मारी जाती 
आदिम नारी
कभी नक्सलियों के हाथों
मारी जाती
जंगल की वह नारी
भय के साए में जी रही
दिन–रात
किस आयोजन का हिस्सा बनेंगीं
कौन से सम्मान पत्र पर
इनका नाम लिखा जाएगा  
अब के
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर
जवाब चाहती है
वह  
बस्तर की नारी ||

संस्मरण—5---- कोंडागांव बस्तर ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


 संस्मरण—5----

 कोंडागांव बस्तर  ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव

कक्षा पाँचवी में --–बिस्सू गुरुजी यानि  विश्वेश्वर रवानी यह नाम था हमारे पांचवी के गुरूजी का | उनके पिताजी हाई स्कूल के टीचर थे और मेरे मामाजी के मित्र थे | इस नाते कभी–कभी हम लोग भी उनके यहाँ माँ और मामाजी के परिवार के साथ बैठने जाते थे   घरोबा हुआ करता था |
हाँ तो बात विश्वेश्वर रवानी जी की | वे स्कूल का सांस्कृतिक विभाग भी सम्हालते थे यह गुण शायद उनमें जन्मजात रहा होगा क्योंकि आपके पिताजी शासकीय हायर सेकेंडरी स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम में हारमोनियम बजाते थे | उस जमाने में हारमोनियम तबला के साथ लड़का लड़की गाना गाते थे और नर्तक दल हो या एकल हो नृत्य करते थे अर्थात गायन,वादन और नृत्य सब के लिए सामूहिक प्रेक्टिस होता था आज तो सुविधाएँ ज्यादा है |
उन दिनों साल में सिर्फ एक बार गणेश पूजा के अवसर पर दस दिनों तक सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करता था जिस में सभी स्कूलों की भागीदारी अवश्य होती थी | हर दिन किसी न किसी स्कूल का कार्यक्रम होता इसके अलावा अन्य बीच–बीच में कोई नाटक, नृत्य नाटिका या संगीत रायपुर से संगीत समिति का फ़िल्मी संगीत कार्यक्रम कव्वाली आदि बहुत ही अच्छे-अच्छे कार्यक्रम होते दस दिनों तक |
उसी दौरान क्लास में एक दिन बिस्सू गुरुजी सभी बच्चों की प्रतिभा परखने के लिए कुछ न कुछ प्रस्तुत करने को कह रहे थे जब मेरी बारी आई तो मैंने एक गीत गाया ----तितली उड़ी उड़ जो चली, फूल ने कहा आजा मेरे पास तितली कही मैं चली आकाश | फिल्म सूरज का वह गाना जो रेडिओ पर बजा करता था मुझे बहुत पसंद था सभी ने बहुत पसंद किया हमारे गुरूजी को तो इतना भाया कि उन्होंने कहा इसे तुम स्टेज में गाना गणेश पूजा के अवसर में |
अंधे को क्या चाहिए दो आँखें बस फिर क्या था उस दिन से मैं अपने आप को बहुत बड़ी गायिका समझने लगी थी | प्रोग्राम की तैयारी के लिए प्रेक्टिस करती रहती की कहीं मंच  में जाकर गाना भूल न जाऊं | हमारे यहाँ महिलाओं का सबसे बड़ा त्यौहार आता है तीजा मुझे सिर्फ ये ज्ञात था कि तीजा आएगा तभी दूसरे दिन से गणेश जी बिठाएँगे और स्कूलों का प्रोग्राम होगा |
पूरे कोंडागांव के लिए सिर्फ एक ही जगह तय था राम मंदिर | मंदिर के दाईं ओर एक तालाब था मंदिर के सामने सड़क और सीधे सामने साप्ताहिक बाजार | मंदिर के बाईं ओर स्थाई रूप से सीमेंट का स्टेज बना था | मंदिर के सामने रायपुर से जगदलपुर राजमार्ग,  जो आज भी है, वहीँ सड़क के किनारे से पंडाल लग जाता तब यदा कदा ही गाड़ियां चलती थीं जिसका समय भी तय था अतः कार्यक्रमों में बहुत भीड़ होने के बावजूद परेशानी नहीं होती थी |
 गणेश जी विराजे और कार्यक्रमों का दौर शुरू हुआ मैं अपनी माँ को लेकर गई यह कहकर कि आज मेरा गाना सुनना | रात हुई जैसे ही प्रोग्राम शुरू हुआ मैं मंच के पीछे गई तब प्रोग्राम प्रभारी टी एस ठाकुर सर से मिली और उनसे अपने गाने की इच्छा जाहिर की उन्होंने कहा कल आना | मैं वापस आकर माँ को बताई फिर हम लौट गए इसी तरह मैं रोज जाती रोज मंच के पीछे जाकर सर से गाने की फरियाद करती वे रोज मुझे कहते कल आना नवें दिन भी यही कहा मैं दसवें दिन फिर माँ को लेकर गई आज तो आखरी दिन है जरुर मुझे अवसर देंगे| दसवें दिन कहा बुलाता हूँ, मैं माँ के पास आकर दरी में बैठ गई कार्यक्रम होते रहे और मैं इंतजार करते- करते थककर माँ की गोद में सो गई | अचानक माँ की आवाज़ से मेरी नींद खुली माँ मेरा नाम लेकर आवाज दे रही थी| कह रही थी नोनी उठ जा कार्यक्रम ख़तम हो गया चल घर चलते हैं | सच कहती हूँ उस वक्त मुझे इतना रोना आया इतना रोना आया किन्तु लोग मेरी हंसी ना उड़ायें ये सोचकर चुप रह गई | मैं बहुत दुखी हो गई थी यह माँ ने भी देखा तब माँ के दिल पर मेरी भावनाओं का क्या असर हुआ यह  कभी पूछा नहीं न ही उस उम्र में यह सब बातें मालूम थीं मगर मेरे दिल में एक टीस जरुर रही कि सर ने मुझे गाने का अवसर नहीं दिया | हो सकता है कि कार्यक्रम के बीच में अवसर न देना उनकी मज़बूरी रही होगी मगर आज तक दिल इस बात की गवाही नहीं देता | और इस तरह मैं प्राइमरी स्कूल कब पास कर गई पता ही नहीं चला |
हमारे समय में छुट्टियों का बड़ा आनंद उठाते थे | मार्च में परीक्षाएं समाप्त सीधे – तीस अप्रैल को जाना होता था रिजल्ट लेने के लिए | लेकिन रिजल्ट लेने के दिन हम लोगों को अपनी किसी हस्त कला का प्रदर्शन करना होता था तो हम लोग मिटटी से आम, सीताफल, जाम (अमरुद), केला, पपीता, घर आदि बनाकर उसे रंगों से सजा कर स्कूल में जमा करते थे फिर रिजल्ट सुनाया जाता और हम लोग हँसते-हँसते ( जो फेल होता वो दुखी होता)  घर आ जाते |
शेष फिर -----

संस्मरण—4---- कोंडागांव बस्तर ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव

संस्मरण—4----
कोंडागांव बस्तर ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव
कक्षा चौथी में --– इस कक्षा का ज्यादा कुछ नहीं पर वाजपेयी गुरुजी थे हमारे | मिश्रा गुरुजी के पड़ोस में ही उनका भी आवास था और दोनों ही अच्छे मित्र थे | 
कक्षा चौथी का मुझे ज्यादा कुछ नया स्मरण नहीं हो रहा किन्तु इतना याद है कि कभी-कभी शायद शनिवार का ही दिन होता था हम सारे बच्चे लाईन लगाकर टीना वाला डिब्बा जिसे जो मिला पास के बंधा तालाब से पानी भरकर लाते और स्कूल के पौधों को सींचते सभी बच्चे लाईन से आते –जाते इसमें भी हमें बहुत आनंद आता हंसते खेलते कब और कितने डिब्बे भर लाए पानी पता ही नहीं तब गाड़ियाँ गिने-चुने, इक्का-दुक्का ही चलते सो एक्सीडेंट का डर ही नहीं था | वर्तमान समय में यदि शिक्षक ऐसा कार्य करवाए तो अभिभावक स्कूल प्रशासन से उसकी शिकायत कर देगा | वह शिक्षक निलंबित हो जाएगा पेपर में बड़े-बड़े अक्षरों में छप जाएगा, मगर हमारे वक्त में माता-पिता स्कूल प्रबंधन के काम में कभी हस्तक्षेप नहीं करते थे |
शेष फिर -----

Tuesday, May 28, 2019

संस्मरण—3---- कोंडागांव बस्तर ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


संस्मरण—3----
 कोंडागांव बस्तर  ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


कक्षा तीसरी में --– कक्षा तीसरी की भी अपनी ही कहानी है | तीसरी हमें पढ़ाया मिश्रा गुरूजी ने |  आजकल मिश्रा को मिश्र कहने का चलन हो गया है, अन्यथा हम लोग तो अब तक मिश्रा ही जानते थे | तो हमारे मिश्रा गुरूजी इलाहाबाद से आए थे | उनकी पहली पोस्टिंग शायद कोंडागांव में ही हुई थी और वे रिटायर भी उसी स्कूल से हुए |जहां तक मुझे याद है कभी भी वे अपने परिवार के साथ नहीं रहे केवल छुट्टियों में घर जाते | अत्यंत विनम्र, शालीन, मगर उनका ज़िक्र मैं यहाँ इसलिए कर रही हूँ कि ये जो बालमन होता है ना वह बहुत जिज्ञासु होता है उसे जो कुछ भी नयापन दिखा वह उसे जानने के लिए उत्साहित रहता है इसी कड़ी में हमारे जिज्ञासु मन की उलझन थी कि मिश्रा सर के पैर इतने गुलाबी कैसे ? मैं और मेरे सहपाठी लड़का हो या लड़की सभी का ध्यान केवल उनके पैरों पर ही रहता था | वे बहुत गोरे चिट्टे से थे मगर उनका पैर एकदम गुलाबी और चिकना रहता था | उनको सरकारी आवास मिला था उनके आवास और  स्कूल के बीच में सड़क थी सामने में रोड और उसके पार पुलिस थाना | पांच मिनट के रिसेस में हम सखियाँ सड़क पार करके उनके घर में यह देखने जाती थीं कि वे कौन से साबुन से नहाते हैं जिसकी वजह से उनका पैर इतना गुलाबी रहता है |  
दरअसल जब ठंडी के दिन आते तो हमारे समय में कोंडागांव में ठंडी शिमला के ठण्ड की तरह ही होती थी हमारे सभी भाई बहनों के पैर एकदम फटते रहते | मेरे पैर तो बहुत ज्यादा फटते | क्योंकि तब आज की तरह न तो बाडी लोशन न ही कोई अन्य क्रीम न बोरोलीन न बोरोप्लस यदि कुछ रहा भी हो तो मुझे तो पता नहीं और हम भाई - बहनों के लिए असंभव ही था क्योंकि हम बहुत ही गरीब किसान के बच्चे थे | हाँ हमारे लिए उपाय होता था गाय का गोबर ! रविवार के दिन गाय के गोबर का लेप पैरों में पिंडली के आते तक गीला-गीला लगाकर बैलगाड़ी में पैर लटकाकर धूप सेंकते बैठते | मेरा दावा है मेरे फेसबुक के किसी भी मित्र ने इस तरह के उपाय नहीं किए होंगे | जब पैर काफी देर तक भीगा रहता तो उस गोबर को धोकर खपरे के टुकड़े से फटे पैरों को घिसते पैर भीगे होने से अच्छे से साफ़ हो जाता  फिर नहा धोकर उसमें तेल लगाते |  जब हम नहाने के बाद हाथ और पैरों में टोरा का तेल लगाते तो चलने पर पुनः-पुनः उसमें धूल चिपक जाया करता था | हमने कभी भी अपने माँ–बाबा से अभावों का रोना नहीं रोया | स्कूल भी हम भाई बहन बिना जूता-चप्पल के जाते थे हमारे आधे से ज्यादा सहपाठी भी बिना जूता-चप्पल के ही आते थे | न अभावों का रोना  न ही कोई शिकायत ही की जो मिला उसी में संतुष्ट रहते |
शेष फिर -----

संस्मरण—2---- कोंडागांव बस्तर ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


संस्मरण—2----
 कोंडागांव बस्तर  ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव

कक्षा दूसरी में --कक्षा दूसरी में मैं जब पढ़ रही थी हमारे कक्षा शिक्षक थे प्रभात कुमार झा जी | उनका परिवार बिहार से आया था, सरगीपाल पारा में उनका मकान था | झा गुरूजी बड़े ही सरल सहज इंसान लगते थे | हमारा स्कूल चूँकि पहली से पांचवी तक ही था अतः पाँचों कक्षाएं ठंडी के दिनों में शनिवार को बाहर धूप में किसी पेड़ के नीचे ब्लेक बोर्ड लगाकर ली जाती थी |एक बार की बात है ठंडी के दिन थे हमारी क्लास स्कूल के बाहर धूप में लगाईं गई थी वहीँ टाटपट्टी  लगाकर हम लोग बैठे थे शनिवार का दिन होने से सुबह की कक्षा थी |तब झा गुरूजी ने हमें हू हू देवता की कहानी सुनाई थी जो हंसी से भरपूर थी बचपन की सुनी हुई वह कहानी आज भी विचारों के साथ मन के किसी कोने में विचारों का तानाबाना बुनता है | कहानी मुझे पूरी तो याद नहीं किन्तु इतना स्मरण है कि एक साधु गाँव में आता है, ठंडी के दिन, पतियों को तो रात में तालाब स्नान करके आने को कहता है और पत्नियों से कहता है कि घर में जब रात को हू हू देवता आयेंगे तो उनकी डंडे से खूब पिटाई करना | पति लोग जब ठंडे पानी में तालाब स्नान करके आते हैं और आवाज़ लगाते हैं तो ठण्ड के मारे उनकी आवाज़ निकलती नहीं और वे हू हू, हू हू करने लगते हैं पहले से छुपाकर रखे हुए डंडे से पत्नियां दरवाजा खोलकर पतियों की पिटाई करती हैं बस कहानी इतनी ही हुई थी पूरे क्लास में बच्चों की हंसी, कि स्कूल की छुट्टी की घंटी बज गई और वह कहानी अधूरी रह गई | बचपन में सुना था इसलिए अभी बहुत कुछ छूट रहा है पर अंत अधूरा रह गया इतना याद है | इसलिए शायद मैं झा गुरूजी को कभी भूल नहीं पाई |
शेष फिर -----

संस्मरण—1----कोंडागांव ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


21-05-2019
संस्मरण-1---
कोंडागांव ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव
             घर में भाई बहनों में मैं सबसे छोटी थी | हमारे ज़माने में 6 साल की उम्र से पहले स्कूल में भरती नहीं करते थे, इसके अलावा हाथ को सर के ऊपर से लेकर कान छूना होता था जो कि मेरा हाथ वहां तक पहुँचता नहीं था  | इस तरह स्कूल में भरती  करने के कुछ नियम कानून होते थे जिसमें मैं पूरी तरह ख़ारिज हो गई थी |   तब मैं सिर्फ पांच साल की थी  इसलिए मेरे बाबा ने मुझे स्कूल में एडमिशन नहीं करवाया परन्तु मुझे स्कूल जाने का इतना चाव था कि मैं अपने छोटे भैया मनीशंकर के साथ ही उसके पीछे-पीछे स्कूल जाती | माँ ने मुझे एक कपड़े के थैला में एक स्लेट और पेन्सिल दे दिया था | जिसे कंधे पर टांगकर मैं भैया और उनके सहपाठियों के साथ स्कूल जाती |
    स्कूल में प्रार्थना होने के बाद मैं भैया के साथ जाकर बैठ जाती | तब स्कूल के  प्राचार्य थे शिव कुमार पाण्डेय | बहुत ही सामान्य कद काठी के व्यक्ति, उनका हुलिया कुछ ऐसा था कि उनके सामने के दो दांत चूहे के दांतों की तरह बड़े-बड़े जो कि होंठ बंद करने के बाद एकदम बाहर को निकले होते थे | पीठ पीछे बच्चे सभी उन्हें दतला गुरूजी कह कर ही संबोधित करते थे | बाल छोटे-छोटे और पीछे एक चुटिया लम्बी सी जो उनके पंडित होने  की निशानी थी | पतले-दुबले धोती कुरता पहने होते जरा झुक कर चलते थे | बच्चे उन्हें देखकर भय खाते थे | मगर पता नहीं क्यूँ मुझे उनसे जरा भी डर नहीं लगता था | बल्कि गुस्सा आता था कारण --- कारण यह कि वे थोड़ी देर बाद आते और मुझसे मुखातिब होकर कहते ---ऐ लड़की तेरा नाम नहीं लिखा है जा तू घर जा | नन्हीं सी उम्र नन्हीं समझ किन्तु मुझे उनका हिकारत से भरा यह स्वर जिसमें ‘ऐ लड़की’ कहना ज़रा भी नहीं भाता था आज भी याद करती हूँ तो बुरा लगता है | ये जो बालमन है ना सचमुच कुम्हार के मिटटी के घड़ने के जैसा है न जाने क्यूँ बचपन से ही मैं उन्हें  --न मान सकी |
    मैं उठकर बाहर निकल कर कंधे में बस्ता टांगकर स्कूल से लगभग आधे पौन  किलोमीटर की दूरी रोते हुए ही तय करती और जैसे ही घर में पहुंचती बाहर से ही माँ को आवाज़ देते हुए माँ माँ वो (---सात्विक गाली---) दतला गुरूजी मोला स्कूल ले निकराय दईस | माँ मनाती तो मैं थोड़ी देर में भूल जाती किन्तु दूसरे दिन फिर वही प्रक्रिया | सब के साथ नहा धोकर तैयार स्कूल जाने को | यही क्रम लगातार दो सप्ताह तक चलता रहा मैं रोज जाती रोज क्लास से निकाली जाती रो रोकर घर आती तब माँ ने परेशान होकर बाबा से कहा | बच्ची को स्कूल जाने का, पढ़ने का इतना शौक है इसे भरती क्यूँ नहीं करा देते | 
          बाबा मुझे अपने साथ लेकर स्कूल गए मैं बहुत खुश कि आज मुझे बाबा भरती करेंगे लेकिन वहां जाने के बाद फिर एक झटका लगा| वहां बैठे थे मेरे सहिनाव बाबा के लड़के जिनका नाम था निरंजन सिंह ठाकुर सब उन्हें निरंजन गुरूजी कह कर ही संबोधित करते थे | बाबा का वे बहुत आदर करते थे | दरअसल हमारे ज़माने में रिश्तों की जो अहमियत होती थी वो आज हमारे द्वारा ही विभ्रंश किया जा रहा है |
     निरंजन गुरूजी यानि मेरे दादा (भैया) के बाबूजी और मेरे बाबा का नाम एक ही था रतनलाल हम देवांगन थे वे ठाकुर | सरनेम चाहे जो भी हो नाम यदि एक है तो वे दोनों सगे भाई की तरह हुए | यानि दोनों में रक्त संबंधों की तरह जुड़ाव | भाई-भाई की तरह ही, तब हम उन्हें सहिनाव बाबा कहेंगे उनके बच्चे हमारे सगे भाई बहनों की तरह होंगे और वे भी हमारे बाबा को सहिनाव बाबा ही कहेंगे |  इस सम्बन्ध में जाति-पांति, अमीर-गरीब, उम्र, कोई मायने नहीं रखता |

   अब बात स्कूल की-- तब निरंजन गुरूजी ने बाबा को समझाया कि इसकी उम्र भी कम है और इसका हाथ भी नहीं पूरता कान तक तो अब क्या करें ? उम्र बढ़ाकर इसको भरती कर देते हैं | बाबा ने कहा हाँ बेटा कर दे जैसे भी हो कर दे | स्कूल आने के लिए ये बहुत परेशान करती है बहुत शौक है इसे पढ़ने का |  उस दिन तारीख 15 जुलाई थी सो एडमिशन के अनुसार मेरा जन्म 15 जुलाई को हुआ और पांच की जगह मेरी उम्र 6 कर दी गई | संयोग से मेरा असली जन्म 13 जुलाई यानि 2 दिन पहले ही होता था यदि उस समय 13 जुलाई ही कर दिया जाता तो शायद अलग –अलग जन्मदिन नहीं होता |मुझे अच्छे से स्मरण तो नहीं किन्तु कक्षा पहली में शायद निरंजन गुरूजी ने ही हमारी क्लास ली थी | और इस तरह एक वर्ष मेरी उम्र बढ़ाकर मुझे कक्षा पहली में पढ़ने का अवसर प्रदान किया गया |
शेष फिर -----


Wednesday, April 10, 2019

फेसबुक में इन दिनों ----जनवरी-मार्च 2019-सम्पादकीय-नारी का संबल


सम्पादकीय,
फेसबुक में इन दिनों ----
मित्रो इन दिनों फेसबुक पर भारत और भारत के बीच युद्ध छिड़ा हुआ है अर्थात एक पाकिस्तान हमारे देश के अन्दर भी जन्म ले चुका है | पाकिस्तान को लेकर कुछ साहित्यकार इतने संजीदा हैं कि अब उनके पास वापस करने के लिए सम्मान भी नहीं बचा है | दरअसल ये वामपंथी साहित्यकार सम्मान पाकर भी गुमनामी भरा जीवन जी रहे थे | उनकी पूछ परख कम हो गई थी | वे भी बेचारे न्यूज़ बनना चाहते थे किन्तु, लोग उन्हें भाव ही नहीं दे रहे थे और इस बीच उन्हें मौका मिल गया और यह अवसर था देश के दुश्मनों द्वारा सैनिकों पर हुआ आतंकी हमला जिसमें 46 सैनिक शहीद हो गए | जवाब में भारत ने भी हवाई हमला कर जैश के आतंकी केम्प को ध्वस्त कर दिया | यहाँ आग में घी का काम किया हवाई हमले ने,   फिर क्या था ताबड़तोड़ हमला अपने-अपने पोस्ट के द्वारा | हद तो तब होती है जब ये देश की रक्षा में प्राण न्यौछावर करने वाले सैनिकों पर संदेह करते हैं | इनकी नफ़रत इस कदर है कि लगता है एक एटमबम इनके दिमाग में भी भरा हुआ है जिसे कलम के माध्यम से ये पन्नों पर उतार कर देश के खिलाफ ज़हर उगलेंगे | वे पुलवामा हमले का जश्न मनाने वाले लोगों के रहनुमा बनते हैं | सुबूत माँगते हैं | अरे! अपने घर के बच्चों को भेज देते सीमा पर, अपने घर के अंदर बैठकर गाल बजाते हैं और खुन्नस फेसबुक पर लिखकर उतारते हैं | दरअसल ये अपने ही देश के साथ विश्वासघात कर रहे हैं | आतंकियों के ये रहनुमा आतंकियों से भी ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि ऐसे ही लोग भीतरघात करते हैं | सवाल किसी राजनितिक दल की नहीं |              अभिनंदन की वापसी किसने नहीं चाही थी किन्तु अभिनंदन को लेकर जैसी दीवानगी भरी प्रतिक्रिया देखने को मिली  जुनूनी जनता के द्वारा उसके आने की ख़ुशी में स्काड्रन लीडर सिद्धार्थ वशिष्ठ और बाकी जवानों की शहादत को भुला दिया गया | इधर अभिनन्दन की एक झलक पाने के लिए लोग बेताब हो रहे थे उधर पाकिस्तानी गोलीबारी से जवान मोर्चा संभाले हुए शहीद होते जा रहे थे | ऐसा नहीं की देश का नागरिक उसकी सही सलामत वापसी नहीं चाहता था किन्तु टी वी चैनलों ने अति मचा रखी थी लोग सुबह से वाघा बार्डर पर आँखें गडाए बैठे थे | यहाँ इमरान को इन लोगों ने हीरो बना दिया | जबकि पाकिस्तानियों की फितरत ही नहीं कि वे इतनी सरलता से झुक जाए, इसके पीछे भारत द्वारा बनाया गया अंतर्राष्ट्रीय दबाव का परिणाम था | हमें अपने भारत के भीतर के ही  फिरकापरस्तों और पाक समर्थित मिडिया कर्मियों को वामपंथियों को जो पत्थरबाजों  के रहनुमा बनते हैं |     
छत्तीसगढ़ में नरवा, गरुवा, घुरवा, बारी और माननीय मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ---
 छत्तीसगढ़ के तीसरे और नव नियुक्त  मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जी ने आने वाले दिनों में जरूरतमंद ग्रामीणों को गांव में ही रोजगार मिल सके, इसके लिए गांवों में लगातार रोजगार मूलक कार्य की व्यवस्था  के लिए एक योजना का क्रियान्वयन किया है जिसका एक बड़ा ही खुबसूरत सा स्लोगन दिया है उन्होंने--- छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी, नरवा, गरुवा, घुरवा, बारी || इस योजना में यह  प्रावधान है कि किसान गांव के गौठान में दिन भर अपनी गाय और दूसरे मवेशी बांधेंगे. जिससे फसलों के चरने की परंपरा खत्म हो. गौठान के गोबर से बायोगैस, गौमुत्र और वर्मी कंपोस्ट तैयार किया जाएगा. जबकि चारागाहों को अगले चरण में विकसित किया जाएगा. उन्होंने नरवा, गरुवा, घुरवा, बारी योजना में कराए जाने वाले कार्यों का तत्परता से प्रस्ताव तैयार कर मंजूरी प्राप्त करने के निर्देश दिए। अधिकारियों को प्रत्येक गांव में रोजगार मूलक छोटे-छोटे कार्य जैसे तालाब निर्माण एवं गहरीकरण, धरसा रोड निर्माण (गाड़ा रवान), डबरी, कुआं, बोल्डर, चेकडेम, नाला बंधान, सीपीटी निर्माण, वृक्षारोपण आदि पर ध्यान केंद्रित किया है और चरणबद्ध तरीके से सरकार के इस महात्वाकांक्षी योजना को प्रारंभ कर ग्रामीणों को, किसानों को लाभान्वित करने का बीड़ा उठाया है |
  अब देखना यह है कि माननीय मुख्यमंत्री महिलाओं को आगे लाने की दिशा में कौन सा कदम उठाते हैं | महिलाओं के रोजगार, उनकी सुरक्षा, उनकी शिक्षा, उनका सम्मान, उन्हें उचित अवसर प्रदान करने के लिए कौन सी दशा और दिशा तय करते हैं, कौन सा स्लोगन बनवाते हैं यह तो आने वाला समय ही बताएगा | अभी तो शुरुवात है आने वाले पांच सालों में उनसे कुछ उम्मीद की जा सकती है क्योंकि राज्य बनने के बाद जिस सफलता की आशा हमने की थी वह अठारह सालों में भी सही दिशा नहीं तय कर पाई,  फलीभूत नहीं हो पाई | केवल कुछेक अधिकारियों की बीवियां, बच्चे या चमचागिरी करने वाले ही आगे बढ़ पाए और जिसने संघर्ष ही किया केवल इन अठारह सालों में वह आज भी उसी जद्दोजहद में है, संघर्षरत है जिसमें मैं खुद को आगे रखती हूँ, प्रथम श्रेणी में रखती हूँ क्योकि अभी भी, आज भी वह संघर्ष जारी है क्योंकि मुझे लगता है, मैं छत्तीसगढ़िया हूँ और छत्तीसगढ़ियों को बड़ी आसानी से झुनझुना पकडाया जा सकता है | यदि आप भी मेरे संघर्ष के साक्षी न बने तो कल के दिन अठारह वर्षों से निरंतर निकलने वाली यह पत्रिका भी निकलती है की जगह निकलती थी हो जाएगी | मुझे लगता है एक छत्तीसगढ़िया दूसरे छत्तीसगढ़िया की पीड़ा को अवश्य महसूस करेंगे और इस महिला दिवस पखवाड़े के वक़्त उनसे उम्मीद की जा सकती है कि महिलाओं की उन्नति में मार्गदर्शक बनकर जो काम आज तक किसी भी सरकार ने और किसी भी राज्य ने नहीं किया वह यह छत्तीसगढ़िया बेटा जरुर कर दिखाएगे ऐसी आशा तो की ही जा सकती है |
इस महिला दिवस पर ---
अबूझमाड़,
अबूझमाड़ के जंगलों में
निवास करने वाली मेरी माँ,
मेरी बहन,
मेरी बेटी
नहीं जानती कि
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस
इस नाम से
कोई दिवस भी होता है
जहां एक दिन
इकट्ठी होती हैं महिलाएं
करती हैं बातें
महिला अधिकारों की   
सुदूर की स्त्रियाँ कितना जानेंगी   अपने अधिकारों को
उन्हें तो इस बात से मतलब है कि
उनके बेटे, उनकी बेटी
नक्सलियों के हत्थे न चढ़ जाएं
कोई परदेसी बहकाकर
उनकी बेटियों को दूषित न करे
इनकी जरुरत
वही मंडिया
वही नॉन मिरी
वही कुछ कपडे
बेटियों के साज श्रृंगार के लिए
कुछ गिलट, चाँदी के आभूषण
कुछ मनिहारी
एक झोंपड़ी
हांडी, भंडवा, बेला, चाटू, अमली
महुआ, टोरा, आम तेंदू
और चाहिए सल्फी
कुछ जंगली कंद-मूल
सामजिक समस्या इनकी अपनी
तय करते हैं आपस में
मिल बैठकर
कोर्ट में क्यूँ जाना
जब समस्या अपनी है
और
वहीँ इसका दूसरा पक्ष भी है
शहर
शहर- का जहां बड़े-बड़े आयोजन
बड़े घरों की महिलाओं द्वारा  संचालित   
पार्लर से लिपि-पुती कुछ महिलाऐं आती हैं
होती हैं शोभायमान मंच पर
और महिलाओं को सम्मानित करके
महिला हित की बातें
फिर साल भर के लिए
अपने एनजीओ का फायदा
लोग समझते हैं कि ये अशिक्षित
हमें क्या सिखाएंगे
सामाजिक सहकार की बातें
समाज को दिशा देने का कार्य
भला इनसे ज्यादा कौन समझेगा
क्या आप समझते हैं ?
क्या आप जानते हैं ?
शकुंतला तरार