Tuesday, May 28, 2019

संस्मरण—3---- कोंडागांव बस्तर ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


संस्मरण—3----
 कोंडागांव बस्तर  ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


कक्षा तीसरी में --– कक्षा तीसरी की भी अपनी ही कहानी है | तीसरी हमें पढ़ाया मिश्रा गुरूजी ने |  आजकल मिश्रा को मिश्र कहने का चलन हो गया है, अन्यथा हम लोग तो अब तक मिश्रा ही जानते थे | तो हमारे मिश्रा गुरूजी इलाहाबाद से आए थे | उनकी पहली पोस्टिंग शायद कोंडागांव में ही हुई थी और वे रिटायर भी उसी स्कूल से हुए |जहां तक मुझे याद है कभी भी वे अपने परिवार के साथ नहीं रहे केवल छुट्टियों में घर जाते | अत्यंत विनम्र, शालीन, मगर उनका ज़िक्र मैं यहाँ इसलिए कर रही हूँ कि ये जो बालमन होता है ना वह बहुत जिज्ञासु होता है उसे जो कुछ भी नयापन दिखा वह उसे जानने के लिए उत्साहित रहता है इसी कड़ी में हमारे जिज्ञासु मन की उलझन थी कि मिश्रा सर के पैर इतने गुलाबी कैसे ? मैं और मेरे सहपाठी लड़का हो या लड़की सभी का ध्यान केवल उनके पैरों पर ही रहता था | वे बहुत गोरे चिट्टे से थे मगर उनका पैर एकदम गुलाबी और चिकना रहता था | उनको सरकारी आवास मिला था उनके आवास और  स्कूल के बीच में सड़क थी सामने में रोड और उसके पार पुलिस थाना | पांच मिनट के रिसेस में हम सखियाँ सड़क पार करके उनके घर में यह देखने जाती थीं कि वे कौन से साबुन से नहाते हैं जिसकी वजह से उनका पैर इतना गुलाबी रहता है |  
दरअसल जब ठंडी के दिन आते तो हमारे समय में कोंडागांव में ठंडी शिमला के ठण्ड की तरह ही होती थी हमारे सभी भाई बहनों के पैर एकदम फटते रहते | मेरे पैर तो बहुत ज्यादा फटते | क्योंकि तब आज की तरह न तो बाडी लोशन न ही कोई अन्य क्रीम न बोरोलीन न बोरोप्लस यदि कुछ रहा भी हो तो मुझे तो पता नहीं और हम भाई - बहनों के लिए असंभव ही था क्योंकि हम बहुत ही गरीब किसान के बच्चे थे | हाँ हमारे लिए उपाय होता था गाय का गोबर ! रविवार के दिन गाय के गोबर का लेप पैरों में पिंडली के आते तक गीला-गीला लगाकर बैलगाड़ी में पैर लटकाकर धूप सेंकते बैठते | मेरा दावा है मेरे फेसबुक के किसी भी मित्र ने इस तरह के उपाय नहीं किए होंगे | जब पैर काफी देर तक भीगा रहता तो उस गोबर को धोकर खपरे के टुकड़े से फटे पैरों को घिसते पैर भीगे होने से अच्छे से साफ़ हो जाता  फिर नहा धोकर उसमें तेल लगाते |  जब हम नहाने के बाद हाथ और पैरों में टोरा का तेल लगाते तो चलने पर पुनः-पुनः उसमें धूल चिपक जाया करता था | हमने कभी भी अपने माँ–बाबा से अभावों का रोना नहीं रोया | स्कूल भी हम भाई बहन बिना जूता-चप्पल के जाते थे हमारे आधे से ज्यादा सहपाठी भी बिना जूता-चप्पल के ही आते थे | न अभावों का रोना  न ही कोई शिकायत ही की जो मिला उसी में संतुष्ट रहते |
शेष फिर -----

संस्मरण—2---- कोंडागांव बस्तर ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


संस्मरण—2----
 कोंडागांव बस्तर  ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव

कक्षा दूसरी में --कक्षा दूसरी में मैं जब पढ़ रही थी हमारे कक्षा शिक्षक थे प्रभात कुमार झा जी | उनका परिवार बिहार से आया था, सरगीपाल पारा में उनका मकान था | झा गुरूजी बड़े ही सरल सहज इंसान लगते थे | हमारा स्कूल चूँकि पहली से पांचवी तक ही था अतः पाँचों कक्षाएं ठंडी के दिनों में शनिवार को बाहर धूप में किसी पेड़ के नीचे ब्लेक बोर्ड लगाकर ली जाती थी |एक बार की बात है ठंडी के दिन थे हमारी क्लास स्कूल के बाहर धूप में लगाईं गई थी वहीँ टाटपट्टी  लगाकर हम लोग बैठे थे शनिवार का दिन होने से सुबह की कक्षा थी |तब झा गुरूजी ने हमें हू हू देवता की कहानी सुनाई थी जो हंसी से भरपूर थी बचपन की सुनी हुई वह कहानी आज भी विचारों के साथ मन के किसी कोने में विचारों का तानाबाना बुनता है | कहानी मुझे पूरी तो याद नहीं किन्तु इतना स्मरण है कि एक साधु गाँव में आता है, ठंडी के दिन, पतियों को तो रात में तालाब स्नान करके आने को कहता है और पत्नियों से कहता है कि घर में जब रात को हू हू देवता आयेंगे तो उनकी डंडे से खूब पिटाई करना | पति लोग जब ठंडे पानी में तालाब स्नान करके आते हैं और आवाज़ लगाते हैं तो ठण्ड के मारे उनकी आवाज़ निकलती नहीं और वे हू हू, हू हू करने लगते हैं पहले से छुपाकर रखे हुए डंडे से पत्नियां दरवाजा खोलकर पतियों की पिटाई करती हैं बस कहानी इतनी ही हुई थी पूरे क्लास में बच्चों की हंसी, कि स्कूल की छुट्टी की घंटी बज गई और वह कहानी अधूरी रह गई | बचपन में सुना था इसलिए अभी बहुत कुछ छूट रहा है पर अंत अधूरा रह गया इतना याद है | इसलिए शायद मैं झा गुरूजी को कभी भूल नहीं पाई |
शेष फिर -----

संस्मरण—1----कोंडागांव ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


21-05-2019
संस्मरण-1---
कोंडागांव ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव
             घर में भाई बहनों में मैं सबसे छोटी थी | हमारे ज़माने में 6 साल की उम्र से पहले स्कूल में भरती नहीं करते थे, इसके अलावा हाथ को सर के ऊपर से लेकर कान छूना होता था जो कि मेरा हाथ वहां तक पहुँचता नहीं था  | इस तरह स्कूल में भरती  करने के कुछ नियम कानून होते थे जिसमें मैं पूरी तरह ख़ारिज हो गई थी |   तब मैं सिर्फ पांच साल की थी  इसलिए मेरे बाबा ने मुझे स्कूल में एडमिशन नहीं करवाया परन्तु मुझे स्कूल जाने का इतना चाव था कि मैं अपने छोटे भैया मनीशंकर के साथ ही उसके पीछे-पीछे स्कूल जाती | माँ ने मुझे एक कपड़े के थैला में एक स्लेट और पेन्सिल दे दिया था | जिसे कंधे पर टांगकर मैं भैया और उनके सहपाठियों के साथ स्कूल जाती |
    स्कूल में प्रार्थना होने के बाद मैं भैया के साथ जाकर बैठ जाती | तब स्कूल के  प्राचार्य थे शिव कुमार पाण्डेय | बहुत ही सामान्य कद काठी के व्यक्ति, उनका हुलिया कुछ ऐसा था कि उनके सामने के दो दांत चूहे के दांतों की तरह बड़े-बड़े जो कि होंठ बंद करने के बाद एकदम बाहर को निकले होते थे | पीठ पीछे बच्चे सभी उन्हें दतला गुरूजी कह कर ही संबोधित करते थे | बाल छोटे-छोटे और पीछे एक चुटिया लम्बी सी जो उनके पंडित होने  की निशानी थी | पतले-दुबले धोती कुरता पहने होते जरा झुक कर चलते थे | बच्चे उन्हें देखकर भय खाते थे | मगर पता नहीं क्यूँ मुझे उनसे जरा भी डर नहीं लगता था | बल्कि गुस्सा आता था कारण --- कारण यह कि वे थोड़ी देर बाद आते और मुझसे मुखातिब होकर कहते ---ऐ लड़की तेरा नाम नहीं लिखा है जा तू घर जा | नन्हीं सी उम्र नन्हीं समझ किन्तु मुझे उनका हिकारत से भरा यह स्वर जिसमें ‘ऐ लड़की’ कहना ज़रा भी नहीं भाता था आज भी याद करती हूँ तो बुरा लगता है | ये जो बालमन है ना सचमुच कुम्हार के मिटटी के घड़ने के जैसा है न जाने क्यूँ बचपन से ही मैं उन्हें  --न मान सकी |
    मैं उठकर बाहर निकल कर कंधे में बस्ता टांगकर स्कूल से लगभग आधे पौन  किलोमीटर की दूरी रोते हुए ही तय करती और जैसे ही घर में पहुंचती बाहर से ही माँ को आवाज़ देते हुए माँ माँ वो (---सात्विक गाली---) दतला गुरूजी मोला स्कूल ले निकराय दईस | माँ मनाती तो मैं थोड़ी देर में भूल जाती किन्तु दूसरे दिन फिर वही प्रक्रिया | सब के साथ नहा धोकर तैयार स्कूल जाने को | यही क्रम लगातार दो सप्ताह तक चलता रहा मैं रोज जाती रोज क्लास से निकाली जाती रो रोकर घर आती तब माँ ने परेशान होकर बाबा से कहा | बच्ची को स्कूल जाने का, पढ़ने का इतना शौक है इसे भरती क्यूँ नहीं करा देते | 
          बाबा मुझे अपने साथ लेकर स्कूल गए मैं बहुत खुश कि आज मुझे बाबा भरती करेंगे लेकिन वहां जाने के बाद फिर एक झटका लगा| वहां बैठे थे मेरे सहिनाव बाबा के लड़के जिनका नाम था निरंजन सिंह ठाकुर सब उन्हें निरंजन गुरूजी कह कर ही संबोधित करते थे | बाबा का वे बहुत आदर करते थे | दरअसल हमारे ज़माने में रिश्तों की जो अहमियत होती थी वो आज हमारे द्वारा ही विभ्रंश किया जा रहा है |
     निरंजन गुरूजी यानि मेरे दादा (भैया) के बाबूजी और मेरे बाबा का नाम एक ही था रतनलाल हम देवांगन थे वे ठाकुर | सरनेम चाहे जो भी हो नाम यदि एक है तो वे दोनों सगे भाई की तरह हुए | यानि दोनों में रक्त संबंधों की तरह जुड़ाव | भाई-भाई की तरह ही, तब हम उन्हें सहिनाव बाबा कहेंगे उनके बच्चे हमारे सगे भाई बहनों की तरह होंगे और वे भी हमारे बाबा को सहिनाव बाबा ही कहेंगे |  इस सम्बन्ध में जाति-पांति, अमीर-गरीब, उम्र, कोई मायने नहीं रखता |

   अब बात स्कूल की-- तब निरंजन गुरूजी ने बाबा को समझाया कि इसकी उम्र भी कम है और इसका हाथ भी नहीं पूरता कान तक तो अब क्या करें ? उम्र बढ़ाकर इसको भरती कर देते हैं | बाबा ने कहा हाँ बेटा कर दे जैसे भी हो कर दे | स्कूल आने के लिए ये बहुत परेशान करती है बहुत शौक है इसे पढ़ने का |  उस दिन तारीख 15 जुलाई थी सो एडमिशन के अनुसार मेरा जन्म 15 जुलाई को हुआ और पांच की जगह मेरी उम्र 6 कर दी गई | संयोग से मेरा असली जन्म 13 जुलाई यानि 2 दिन पहले ही होता था यदि उस समय 13 जुलाई ही कर दिया जाता तो शायद अलग –अलग जन्मदिन नहीं होता |मुझे अच्छे से स्मरण तो नहीं किन्तु कक्षा पहली में शायद निरंजन गुरूजी ने ही हमारी क्लास ली थी | और इस तरह एक वर्ष मेरी उम्र बढ़ाकर मुझे कक्षा पहली में पढ़ने का अवसर प्रदान किया गया |
शेष फिर -----


Wednesday, April 10, 2019

फेसबुक में इन दिनों ----जनवरी-मार्च 2019-सम्पादकीय-नारी का संबल


सम्पादकीय,
फेसबुक में इन दिनों ----
मित्रो इन दिनों फेसबुक पर भारत और भारत के बीच युद्ध छिड़ा हुआ है अर्थात एक पाकिस्तान हमारे देश के अन्दर भी जन्म ले चुका है | पाकिस्तान को लेकर कुछ साहित्यकार इतने संजीदा हैं कि अब उनके पास वापस करने के लिए सम्मान भी नहीं बचा है | दरअसल ये वामपंथी साहित्यकार सम्मान पाकर भी गुमनामी भरा जीवन जी रहे थे | उनकी पूछ परख कम हो गई थी | वे भी बेचारे न्यूज़ बनना चाहते थे किन्तु, लोग उन्हें भाव ही नहीं दे रहे थे और इस बीच उन्हें मौका मिल गया और यह अवसर था देश के दुश्मनों द्वारा सैनिकों पर हुआ आतंकी हमला जिसमें 46 सैनिक शहीद हो गए | जवाब में भारत ने भी हवाई हमला कर जैश के आतंकी केम्प को ध्वस्त कर दिया | यहाँ आग में घी का काम किया हवाई हमले ने,   फिर क्या था ताबड़तोड़ हमला अपने-अपने पोस्ट के द्वारा | हद तो तब होती है जब ये देश की रक्षा में प्राण न्यौछावर करने वाले सैनिकों पर संदेह करते हैं | इनकी नफ़रत इस कदर है कि लगता है एक एटमबम इनके दिमाग में भी भरा हुआ है जिसे कलम के माध्यम से ये पन्नों पर उतार कर देश के खिलाफ ज़हर उगलेंगे | वे पुलवामा हमले का जश्न मनाने वाले लोगों के रहनुमा बनते हैं | सुबूत माँगते हैं | अरे! अपने घर के बच्चों को भेज देते सीमा पर, अपने घर के अंदर बैठकर गाल बजाते हैं और खुन्नस फेसबुक पर लिखकर उतारते हैं | दरअसल ये अपने ही देश के साथ विश्वासघात कर रहे हैं | आतंकियों के ये रहनुमा आतंकियों से भी ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि ऐसे ही लोग भीतरघात करते हैं | सवाल किसी राजनितिक दल की नहीं |              अभिनंदन की वापसी किसने नहीं चाही थी किन्तु अभिनंदन को लेकर जैसी दीवानगी भरी प्रतिक्रिया देखने को मिली  जुनूनी जनता के द्वारा उसके आने की ख़ुशी में स्काड्रन लीडर सिद्धार्थ वशिष्ठ और बाकी जवानों की शहादत को भुला दिया गया | इधर अभिनन्दन की एक झलक पाने के लिए लोग बेताब हो रहे थे उधर पाकिस्तानी गोलीबारी से जवान मोर्चा संभाले हुए शहीद होते जा रहे थे | ऐसा नहीं की देश का नागरिक उसकी सही सलामत वापसी नहीं चाहता था किन्तु टी वी चैनलों ने अति मचा रखी थी लोग सुबह से वाघा बार्डर पर आँखें गडाए बैठे थे | यहाँ इमरान को इन लोगों ने हीरो बना दिया | जबकि पाकिस्तानियों की फितरत ही नहीं कि वे इतनी सरलता से झुक जाए, इसके पीछे भारत द्वारा बनाया गया अंतर्राष्ट्रीय दबाव का परिणाम था | हमें अपने भारत के भीतर के ही  फिरकापरस्तों और पाक समर्थित मिडिया कर्मियों को वामपंथियों को जो पत्थरबाजों  के रहनुमा बनते हैं |     
छत्तीसगढ़ में नरवा, गरुवा, घुरवा, बारी और माननीय मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ---
 छत्तीसगढ़ के तीसरे और नव नियुक्त  मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जी ने आने वाले दिनों में जरूरतमंद ग्रामीणों को गांव में ही रोजगार मिल सके, इसके लिए गांवों में लगातार रोजगार मूलक कार्य की व्यवस्था  के लिए एक योजना का क्रियान्वयन किया है जिसका एक बड़ा ही खुबसूरत सा स्लोगन दिया है उन्होंने--- छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी, नरवा, गरुवा, घुरवा, बारी || इस योजना में यह  प्रावधान है कि किसान गांव के गौठान में दिन भर अपनी गाय और दूसरे मवेशी बांधेंगे. जिससे फसलों के चरने की परंपरा खत्म हो. गौठान के गोबर से बायोगैस, गौमुत्र और वर्मी कंपोस्ट तैयार किया जाएगा. जबकि चारागाहों को अगले चरण में विकसित किया जाएगा. उन्होंने नरवा, गरुवा, घुरवा, बारी योजना में कराए जाने वाले कार्यों का तत्परता से प्रस्ताव तैयार कर मंजूरी प्राप्त करने के निर्देश दिए। अधिकारियों को प्रत्येक गांव में रोजगार मूलक छोटे-छोटे कार्य जैसे तालाब निर्माण एवं गहरीकरण, धरसा रोड निर्माण (गाड़ा रवान), डबरी, कुआं, बोल्डर, चेकडेम, नाला बंधान, सीपीटी निर्माण, वृक्षारोपण आदि पर ध्यान केंद्रित किया है और चरणबद्ध तरीके से सरकार के इस महात्वाकांक्षी योजना को प्रारंभ कर ग्रामीणों को, किसानों को लाभान्वित करने का बीड़ा उठाया है |
  अब देखना यह है कि माननीय मुख्यमंत्री महिलाओं को आगे लाने की दिशा में कौन सा कदम उठाते हैं | महिलाओं के रोजगार, उनकी सुरक्षा, उनकी शिक्षा, उनका सम्मान, उन्हें उचित अवसर प्रदान करने के लिए कौन सी दशा और दिशा तय करते हैं, कौन सा स्लोगन बनवाते हैं यह तो आने वाला समय ही बताएगा | अभी तो शुरुवात है आने वाले पांच सालों में उनसे कुछ उम्मीद की जा सकती है क्योंकि राज्य बनने के बाद जिस सफलता की आशा हमने की थी वह अठारह सालों में भी सही दिशा नहीं तय कर पाई,  फलीभूत नहीं हो पाई | केवल कुछेक अधिकारियों की बीवियां, बच्चे या चमचागिरी करने वाले ही आगे बढ़ पाए और जिसने संघर्ष ही किया केवल इन अठारह सालों में वह आज भी उसी जद्दोजहद में है, संघर्षरत है जिसमें मैं खुद को आगे रखती हूँ, प्रथम श्रेणी में रखती हूँ क्योकि अभी भी, आज भी वह संघर्ष जारी है क्योंकि मुझे लगता है, मैं छत्तीसगढ़िया हूँ और छत्तीसगढ़ियों को बड़ी आसानी से झुनझुना पकडाया जा सकता है | यदि आप भी मेरे संघर्ष के साक्षी न बने तो कल के दिन अठारह वर्षों से निरंतर निकलने वाली यह पत्रिका भी निकलती है की जगह निकलती थी हो जाएगी | मुझे लगता है एक छत्तीसगढ़िया दूसरे छत्तीसगढ़िया की पीड़ा को अवश्य महसूस करेंगे और इस महिला दिवस पखवाड़े के वक़्त उनसे उम्मीद की जा सकती है कि महिलाओं की उन्नति में मार्गदर्शक बनकर जो काम आज तक किसी भी सरकार ने और किसी भी राज्य ने नहीं किया वह यह छत्तीसगढ़िया बेटा जरुर कर दिखाएगे ऐसी आशा तो की ही जा सकती है |
इस महिला दिवस पर ---
अबूझमाड़,
अबूझमाड़ के जंगलों में
निवास करने वाली मेरी माँ,
मेरी बहन,
मेरी बेटी
नहीं जानती कि
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस
इस नाम से
कोई दिवस भी होता है
जहां एक दिन
इकट्ठी होती हैं महिलाएं
करती हैं बातें
महिला अधिकारों की   
सुदूर की स्त्रियाँ कितना जानेंगी   अपने अधिकारों को
उन्हें तो इस बात से मतलब है कि
उनके बेटे, उनकी बेटी
नक्सलियों के हत्थे न चढ़ जाएं
कोई परदेसी बहकाकर
उनकी बेटियों को दूषित न करे
इनकी जरुरत
वही मंडिया
वही नॉन मिरी
वही कुछ कपडे
बेटियों के साज श्रृंगार के लिए
कुछ गिलट, चाँदी के आभूषण
कुछ मनिहारी
एक झोंपड़ी
हांडी, भंडवा, बेला, चाटू, अमली
महुआ, टोरा, आम तेंदू
और चाहिए सल्फी
कुछ जंगली कंद-मूल
सामजिक समस्या इनकी अपनी
तय करते हैं आपस में
मिल बैठकर
कोर्ट में क्यूँ जाना
जब समस्या अपनी है
और
वहीँ इसका दूसरा पक्ष भी है
शहर
शहर- का जहां बड़े-बड़े आयोजन
बड़े घरों की महिलाओं द्वारा  संचालित   
पार्लर से लिपि-पुती कुछ महिलाऐं आती हैं
होती हैं शोभायमान मंच पर
और महिलाओं को सम्मानित करके
महिला हित की बातें
फिर साल भर के लिए
अपने एनजीओ का फायदा
लोग समझते हैं कि ये अशिक्षित
हमें क्या सिखाएंगे
सामाजिक सहकार की बातें
समाज को दिशा देने का कार्य
भला इनसे ज्यादा कौन समझेगा
क्या आप समझते हैं ?
क्या आप जानते हैं ?
शकुंतला तरार

Thursday, January 17, 2019

सम्पादकीय-अक्टूबर-दिसंबर 2018 आखिर थम गया सुरों के सफ़र का जादू:- लक्ष्मण मस्तुरिया


 सम्पादकीय-अक्टूबर-दिसंबर 2018 आखिर थम गया सुरों के सफ़र का जादू:- लक्ष्मण मस्तुरिया


खिलना भूलकर , विश्व-बोध ,भगत की सीख, छायावाद और मुकुटधर पाण्डेय ,गोधुलि, धरती सबके महतारी, वृक्ष में तब्दील हो गई है औरत आदि अनेक पुस्तकों के लेखक, समीक्षक, छायावाद के प्रवर्तक मुकुटधर पाण्डेय की छत्रछाया में साहित्य की ऊंचाइयां प्राप्त करने वाले वरिष्ठ शिक्षाविद डॉक्टर बल्देव साव रायगढ़ के निधन से साहित्य जगत अभी ऊबर भी नहीं पाया था कि दूसरी बुरी खबर आई कि लक्षमण मस्तुरिया नहीं रहे| स्तब्ध रह गई मैं जैसे थम गया हो सब कुछ | अख़बारों में, फेसबुक-व्हाट्सएप्प सब में उस दिन वे ही थे और वे, अनंत में विलीन | आँखें नम थी उन सबकी जो उन्हें जानता था या उनके गीतों से परिचित था|
      ‘पता ले जा रे पता दे जा रे गाड़ी वाला, बखरी के तुमानार बरोबर मन झुमरे, वा रे मोर पंड़की मैना’ जैसे अनेक गीतों के साथ ही वह अमर गीत जिस गीत ने लक्ष्मण मस्तुरिया को जन-जन के कंठ में बसाया वह अमर गीत था ‘मोर संग चलव रे’ अर्थात गाँव गरीब का वह गायक, असमर्थ-लोगों का वह नायक सबको अपने साथ लेकर चलने की बात करता है|
                        राजिम कुम्भ की परिकल्पना भले ही राज्य बनने के बाद की हो किन्तु उनका यह गीत दशकों से लोगों के दिलों पर राज कर रहा है|
माता पिता ने कभी सोचा भी न रहा होगा कि दिन उनका यह लाड़ला छत्तीसगढ़ के जन-जन के कंठों में, दिलों में ऐसे बसेगा कि आने वालीं कई पीढ़ियाँ उनके गीतों को सुनकर प्रेरणा लेंगी |
            मात्र २२ वर्ष की उम्र में  बघेरा के दाऊ रामचंद्र देशमुख की संस्था ‘चंदैनी गोंदा’ के वे मुख्य गायक ही नहीं बने अपितु उन्होंने सैकड़ों गीत भी लिखे जिन्हें उस वक़्त संगीतबद्ध किया आदरणीय खुमान साव जी ने | जब तक दाऊ रामचंद्र देशमुख थे ‘चंदैनी गोंदा’ ने प्रसिद्धि के आसमान को छुआ इसमें कलाकारों के साथ ही   लक्ष्मण मस्तुरिया लिखित गीत और खुमान साव जी का संगीत दोनों बराबर के सहभागी रहे |
छत्तीसगढ़ की घुमंतू जनजाति देवारों को लेकर देवार-डेरा की स्थापना जब दाऊ रामचंद्र देशमुख ने की उस वक़्त लक्ष्मण मतुरिया ने देवारों के गीतों का पुनर्लेखन कर उसे परिष्कृत स्वरूप प्रदान किया जिसे छत्तीसगढ़ के लोग आज भी चाव से सुनते हैं, गुनते हैं ,गाते हैं, गुनगुनाते हैं |
उनके आवाज़ की स्वरलहरी जब गाँव-गली, खेत- खलिहान में गूंजती है तो हिरनी के पाँव भी थम जाते हैं| गाँव का किसान हो या मजदूर या शहर का सुधि श्रोता उनके गीतों के माधुर्य में खो जाता है और  .......... वे छत्तीसगढ़ माटी के दुलारे जन-जन के प्यारे कवि थे गीतकार थे | जब वे कवि सम्मलेन के मंचों पर होते और उन्हें सुनाने का अवसर मिलता हमेशा दर्शक दीर्घा श्रोताओं की ओर से वन्स मोर वंस मोर की आवाज़ से वातावरण गुंजायमान हो उठता था, एक बार में लोगों का जी ही नहीं भरता था |
वे इतने सरल थे कि कभी सम्मान के पीछे नहीं  गए | अनेक स्थानीय सम्मान से उन्हें सम्मानित किया गया मगर छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य था कि ऐसे माटी पुत्र जो पद्मश्री से विभूषित हो सकते थे उन्हें राज्य शासन का पंडित सुन्दरलाल शर्मा सम्मान जो साहित्य के लिए प्रदान किया जाता है वह सम्मान तक नहीं मिला जबकि शासन स्वयं उन्हें राज्य का साहित्य सम्मान से सम्मानित करके   पद्मश्री सम्मान दिलवाता किन्तु वे हमेशा राजनीति के शिकार होते चले गए |   
मेरा सौभाग्य था कि मुझे कई कवि सम्मेलनों के मंचों पर उनके साथ काव्य-पाठ करने का सुअवसर प्राप्त हुआ |जब वे राजकुमार कॉलेज में प्राध्यापक थे तब कभी-कभी कालेज परिसर स्थित उनके निवास पर मैं जाती थी फिर उनके रिटायरमेंट के पश्चात उनके भाई मोहन गोस्वामी के ऑफिस में या कभी किसी साहित्यिक आयोजनों में मुलाकात हो जाती|
जब उन्होंने भी लोकसुर नामक  पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, बहुत खिन्न रहते अक्सर मुझसे कहते ‘तयं कईसे अतेक साल ले पत्रिका के प्रकाशन ला करत हस, मैं तो अतने मा थर्रागे हंव| मैं कहती आपकी पत्रिका कलरफुल है ,कागज़ भी बहुत महंगा वाला है इसलिए खर्च भी बहुत आता है| और एक दिन उन्होंने मुझे फोन करके जन-संपर्क में मिलने को कहा और अपनी आठ पत्रिकाओं का एक सेट मुझे थमा दिया और कहा अब मेरे बस का नहीं है पत्रिका का प्रकाशन करना | ये मेरी धरोहर है ,इसे तुम संभाल कर रखना|
यदि हम छत्तीसगढ़ी फिल्मों की बात करें तो दशकों पहले घर-द्वार और कही देबे सन्देश के नाम से दो छत्तीसगढ़ी फिल्म आई थी, उसके बाद   राज्य बनने के आस-पास एक छत्तीसगढ़ी फिल्म आई ‘मोर छईयाँ भुईयां’ जो सतीश जैन के निर्देशन में बनी थी उसमें लक्षमण मस्तुरिया के कर्णप्रिय गीतों ने फिल्म- की सफलता में अपना शत प्रतिशत योगदान दिया था| आदरणीय स्वराज करूण ने आप पर एक बहुत सुन्दर लेख लिखा था जिसे आप इसी पत्रिका में पढ़ पाएंगे |
बहरहाल आपकी रचनाएँ कालजयी हैं आपके गीतों ने आपको अमर बना दिया | ऐसे महान व्यक्तित्व की उपेक्षा छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य है | वे आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु वे हम सबके दिलों में सदा अमर थे, अमर हैं और अमर रहेंगे | इस महान विभूति को मेरी और नारी का संबल परिवार की और से भाव-भीनी श्रद्धांजलि |

Wednesday, January 16, 2019

पुस्तक लोकार्पण- "राँडी माय लेका पोरटा"

पुस्तक लोकार्पण
साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित जनजातीय साहित्य के संरक्षण, संवर्धन के तहत हल्बी गीति कथा "राँडी माय लेका पोरटा" जिसका संकलन करके हिंदी और छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया , का लोकार्पण विगत दिनों ऐसे हाथों सम्पन्न करवाया जिन्होंने मुझे घर सम्हालने से लेकर टाइप सेटिंग तक में मदद की है और आज भी करते हैं और ये हैं मेरे बच्चे- संदीप और श्वेता 

मित्रो- जनजातीय साहित्य पर केंद्रित यह पुस्तक आपको   साहित्य अकादमी दिल्ली के पते  से प्राप्त हो जाएगी।  
पुस्तक के साथ मूल गायक की आवाज़ में डीवीडी भी उपलब्ध है जिसे आप पढ़ते हुए सुनने का आनंद ले सकते हैं। इसकी कीमत मात्र 210 रु है।





Tuesday, November 27, 2018

बस्तर चो फुलबाड़ी -बाल साहित्य


हल्बी लोक भाषा में दूसरी पुस्तक का एक बाल गीत ---चूँकि अभी ठंड का मौसम है तो आप भी इस गीत का आनंद लीजिए ---