Saturday, August 31, 2024

विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा -शकुंतला तरार ,संदीप तरार

जय माँ दंतेश्वरी 

बस्तर महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव जी 

विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा 

v शकुंतला तरार, संदीप तरार

    जगदलपुर बस्तर के ऐतिहासिक 75 दिन के दशहरा का प्रारंभ हरियाली अमावस्या के दिन पाठ जात्रा पूजा की रस्म के साथ ही प्रारंभ हो जाता है| दशहरा शुरू होने के पहले दिन राजा के द्वारा बस्तर क्षेत्र के विभिन्न देव गुड़ियों में नवरात्रि पर्व पर दीप प्रज्ज्वलित करने हेतु मंदिर पुजारियों, गांयता एवं प्रमुखों को 101 दीप-कलश, श्रीफल, अगरबत्ती, पीला-चावल सहित विविध पूजन सामग्री भेंट किया जाता है |दशहरा पर्व का प्रारम्भपरंपरानुसारकाछनगादी पूजा विधान  से  संपन्न होता है। काछनगादी पूजा बस्तर दशहरा का प्रथम चरण है. काछनगादी बेल काँटो से तैयार झूला होता है. पितृमोक्ष अमावस्या के दिन काछनगादी पूजा विधान संपन्न होता है. काछनगादी यानि देवी की गद्दी में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी आती है, जो बेल के कांटो के झूले पर बैठी  दशहरा पर्व मनाने एवं फूल रथ संचालन करने की अनुमति देती है। काछनगादी पूजा में मिरगान जाति की कन्या के द्वारा दशहरा पर्व मनाने की अनुमति दी जाती है, काछनगादी पूजा विधान के बाद गोल बाजार में जाकर रैला देवी (रैनी देवी) की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है। काछनगादी पूजा एवं रैला देवी पूजा के दौरान दशहरा कमेटी के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, राजपरिवार के सदस्य, राजगुरु, मांझी,चालकी एवं अन्य गणमान्य नागरिकों की विशेष उपस्थिति रहती है |दशहरा में प्रमुख रूप से काछनगादी, पाट जात्रा, जोगी बिठाई, मावली जात्रा, भीतर रैनी, बाहर रैनी तथा मुरिया दरबार मुख्य रस्में होती हैं। “1725 ईसवी में काछनगुड़ी क्षेत्र में माहरा समाज के लोग रहते थे | तब तात्कालीन महाराजा दलपत देव जी से कबीले के मुखिया ने जंगली पशुओं से अभयदान माँगा | महाराजा इलाके में पहुँचे और उन्हें राहत प्रदान किया, वे वहाँ की आबोहवा से इतने प्रभावित हुए कि रियासत की राजधानी को बस्तर के बजाए जगतुगुड़ा में बनाया जो कालांतर में जगदलपुर के नाम से जाना गया | महाराजा साहब ने कबीले की इष्टदेवी काछनदेवी से आश्विन अमावस्या को आशीर्वाद व अनुमति लेकर दशहरा उत्सव प्रारंभ किया, बस तब से ही ये परंपरा इसी तरह चली आ रही है”|

          पहले दिन स्थानीय सिरहासार भवन में ग्राम बिरिंगपाल से लाई गई साल की टहनियों को गड्ढे में पूजा विधान के साथ गाड़ते हैं | इस गाड़ने की प्रक्रिया को डेरी गड़ाई कहा जाता है। तत्पश्चात जोगी बिठाईकी रस्म होती है जो कि दशहरा का पर्व निर्विघ्न संपन्न हो इस उद्देश्य से नौ दिनों तक उसी स्थान पर निराहार बैठे रहते हैं |कहते हैं कि जोगी को नौ दिनों तक स्वयं देवी द्वारा दिव्य भोजन कराया जाता है | इसकेदूसरे दिन से सप्तमी तक रथ परिचालन कर नगर भ्रमण कराया जाता है | महाष्टमी को निशाजात्रा की पूजा संपन्न होती है | नवमी के दिन जोगी उठाई की रस्म होती है फिर कुंवारी पूजा की जाती है | उसी दिन शाम के वक़्त कुवांरी पूजा की सामग्री को गंगामुंडा के जल में प्रवाहित कर दिया जाता है | यह कार्य केवल महिलाओं के द्वारा किया जाता है | उसके पश्चात् मावली परघाव की रस्म पूरी की जाती है जिसमें राजा के द्वारा दंतेवाड़ा से पधारी माई की डोली के स्वागत की परंपरा होती है जिसमें बस्तर के आमंत्रित देवी-देवताओं सहित राजा द्वारा स्वागत कर राजभवन प्रांगण जहाँ माई दंतेश्वरी विराजमान हैं वहाँ  तक लाई जाती हैं | अगले दिन दशहरा को,रथ परिचालन होता है जिसे भीतर रैनी कहा जाता है इसी दिन आदिवासियों द्वारा रथ की चोरी की जाती है और उसे कुमडाकोट ले जाया जाता है | जहाँ राजा दूसरे दिन नया खानी का त्यौहार मनाते हैं | दूसरे दिन बाहर रैनी पर कुमडाकोट में विशेष पूजा और शाम को रथ वापसी होती है | 


          अगले दिन काछन जात्रा देवी की बिदाई और मुरिया दरबार उसके अगले दिन ,कुटुंब जात्रा के साथ देवी-देवताओं को विदाई अर्थात बस्तर दशहरा में शामिल हुए बस्तर के सभी परगनाओं के देवी-देवताओं को अश्विन शुक्ल13को गंगा मुंडा कुटुंब जात्रामें पूजा-अनुष्ठान के बाद विदाई दी जाती है. माई दंतेश्वरी के अलावा विभिन्न देवी-देवताओं के छत्र-डोली आदि जात्रा स्थल पर पहुंचते हैं. इस कार्यक्रम को "ओहाड़ी" कहते हैं. पहले बस्तर दशहरा के विभिन्न जात्रा कार्यक्रमों में पशु बलि दी जाती थी  सैकड़ों पशुमुंड कटते थे, पर अब यह प्रथा बंद-सी हो गई है|

             इसके दूसरे दिन या वार देखकर दंतेवाड़ा की माईजी की डोली की विदाई के साथ पर्व का समापन होता है ।

                                                             7,8,2024      क्रमशः 

वनवासी संस्कृति से ओतप्रोतदुनिया में सबसे लंबी अवधि लगभग 75 दिनों तक चलने वाला बस्तर का दशहरा पर्व समूचे विश्व में प्रसिद्ध बस्तर दशहरा में देश ही नहीं अपितु विदेशों से भी लोग इसके आकर्षण से खींचे चले आते हैं | इतने भव्य रथ को केवल इंसानों के द्वारा खींचा जाना भी मुख्य आकर्षण है दशहरा का | रथ को लकड़ी से दुमंजिला बनाया जाता है, इस भव्य रथ की खासियत यह है कि इसे एक विशेष वर्ग द्वारा ही निर्मित किया जाता है जो पर्यटकों के लिए खास आकर्षण का केन्द्र होता है। हर साल नये सिरे से बनाए जाने वाले इस काष्ठ निर्मित भव्य रथ का इतिहास पिछले 600 वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी निर्बाध रूप से जारी है | रथ को बनाने के लिए पारंपरिक औजारों का प्रयोग किया जाता है इन्हीं पारंपरिक औजारों से माचकोट एवं तिरिया के जंगल से लाए गए साल वृक्ष के तने को चीर कर उसी की लकड़ी से रथ का निर्माण किया जाता है |



वर्षों से मेरी दिली इच्छा थी कि मैं बस्तर का दशहरा पर्व पहले दिन से लेकर उसके समापन मुरिया दरबार तक एवं माता की डोली की ससम्मान विदाई दंतेवाड़ा के लिए, वहां रहकर देखूंऔर अपने अनुभव आप सब के साथ साझा करूँ किन्तु पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण संभव ही नहीं हो सका | वर्ष 2018 दहशरा का वक़्त एक दिन बैठे-बैठे मैं और बेटा संदीप ने तय किया कि क्यों न इस वर्ष  जगदलपुर में मनाये जाने वाले विश्व प्रसिद्ध दशहरा उत्सव में शामिल हुआ जाय | दशहरा उत्सव शुरू हुए लगभग 6 दिन हो चुका था फिर भी रथयात्रा देखने का मोह मुझे खीँच ले गया जगदलपुर की ओर | प्रोग्राम बनते ही मैंने जगदलपुर निवासी साहित्यकार एवं बस्तर दशहरा को शिद्दत से महसूसने और जीने वाले भाई रुद्रनारायण पाणिग्राही को फोन किया, उनसे संपर्क नहीं हो पाया फिर मैंने भाई सनत जैन जी को फोन किया| फोन करने का कारण यह था कि इस वक्त जगदलपुर के सारे होटल बुक रहते हैं रहने की जगह नहीं मिलती | वैसे तो जगदलपुर में मेरे बहुत सारे रिश्तेदार रहते हैं किन्तु त्यौहार के वक्त किसी के घर पर रूकना यानि उनके लिए बंधन का कारण बनता है | बेटे का दोस्त ओमप्रकाश सिंह और उनका परिवार भी बहुत शील स्वभाव के, मेहमाननवाजी के लिए तत्पर, चाहते तो हम वहां भी रूक सकते थे उन्होंने हमारे रूकने का इंतजाम भी कर दिया था किन्तु मैं जिस उद्देश्य को लेकर उत्सव देखने गई थी वह समय खातिरदारी में निकल जातायह सोचकर मैंने होटल में ही ठहरना उचित समझा | खैर सनत भाई से पता चला की सारे होटल बुक हैं मगर राजमहल के काफी निकट आनंद लाज है जिसमें आपको कमरा मिल जाएगा | अंधे को क्या चाहिए  दो आँखें , मेरा तो दशहरा उत्सव देखने के आनंद को, आनंद लाज ने आनंद में बदलकर दुगुना उत्साह से भर दिया | वहां से मैं पैदल कई बार आना जाना कर सकती थी और मैंने किया भी | सप्तमी के दिन मैं और बेटा संदीप हमारी आल्टो 800 में रायपुर से जगदलपुर के लिए निकले | कांकेर में हमने शीतल दीदी के यहाँ से भोजन किया कुछ देर रुके और कोंडागांव के लिए निकले | केशकाल पहुँचने से कुछ पहले रास्ते  में घाटी से पहले आतुरगाँव के पास आनंदित करने वाला अद्भुत दृश्य सड़क के किनारे-किनारेअलग अलग स्थानों पर टोकरियों में सीताफल लेकर गाँव के लोग बैठे हैं, दीदी ने पहले ही बता दिया था कि खूब सीताफल मिलेगा जाते हुए, हमें इससे अच्छा और क्या चाहिए था भला ! हमने तुरंत गाड़ी रोकी खूब मोलभाव करके टोकरी भर सीताफल लिया कोंडागांव में भैया-भाभियों और बच्चों के लिए | यहाँ मोलभाव करके फल या सब्जी लेना अच्छा लगता है |बसें तो रूकती नहीं किन्तु जो स्वयं के साधन से आना जाना करते हैं वे जरुर रुक कर उनसे नाना प्रकार के मौसमी जंगली फल साग-सब्जी खरीदते हैं |वे यह भी जानते हैं कि जो यहाँ पहुँचते हैं वे हमसे मोलभाव जरुर करेंगे इसलिए थोडा बढ़ाकर बताते हैं किन्तु इतना ज्यादा भी नहीं कि लोग भाव सुनकर आगे बढ़ जाएं | वैसे भी जो दाम बताया जाता है वह आने जाने वालों के लिए बहुत सस्ता है क्योंकि शहर पहुंचकर उसकी कीमत दुगुनी से ज्यादा हो जाती है | ------|

सप्तमी के दिन हम कोंडागांव में विद्या भाभी और  मनीशंकर भैया भाभी के यहाँ रूके यानि मेरा मायका है वह | दुर्गा अष्टमी के दिन प्रातः जगदलपुर के लिए निकले, वहां पहुंचकर हमने आनंद लाज को अपना ठिकाना बनाया | नवमी के दिन प्रातः हम ओमप्रकाश सिंह के सरकारी आवास पर पहुंचे जहां निकट ही जिया डेरा है | आपको पता है !!! गाँव और गाँव के लोग, ठेठ ग्रामीण मेरी कमजोरी है पहुंचकर लगा----ओह क्या बात है क्या ही अद्भुत दृश्य वहां का, चारों तरफ लोग ही लोग ग्राम्यजन | माता मावली की डोली दंतेवाड़ा  से आकर जिया डेरा में विश्राम जो कर रही थीं | जिया डेरा यानि दंतेवाड़ा  के मंदिर के पुजारी का डेरा यहाँ आकर माताजी अभी भी मेहमान हैं जब तक कि उन्हें ससम्मान स्वागत सत्कार के द्वारा लिवाने राज परिवार, दशहरा समिति,अन्य सम्बंधित और गाँव-गाँव से दशहरा उत्सव मनाने पहुंचे विभिन्न देवी देवता |  पहुंचकर देखा हमने, चारों ओर गाँव के लोग इधर-उधर बिखरे हुए रंग-बिरंगे वस्त्रों से सुसज्जित माई की अगवानी में पहुंचे लोग और माई के दर्शन करने पहुंचे लोग, माई को दंतेवाड़ा  से लेकर आए श्रद्धालु, पुजारी सिरहा,गुनिया जिया उनके सहयोगियों की आवाजाही | उनके घर से हम लोग दंतेश्वरी माई की डोली जो दंतेवाड़ा  से लाई गई थी दशहरा उत्सव में शामिल होने के लिए के दर्शन करने गए | उस वक्त ऐसा लग रहा था यह वक्त यहीं ठहर जाए और मैं जी भरकर माई दंतेश्वरी केप्रतीक रूप (मावली माता) को निहार सकूँ |
                                                                                   8-8-2024- क्रमशः 
माई जी की खासियत ही यही है कि उनके दर्शन यदि दंतेवाड़ा में करना हो तो पारंपरिक तरीके से यानि धोती पहनकर हीमंदिर प्रवेश कर सकते हैं जींस या फुलपेंट में नहीं | और यहाँ जिया डेरा में भी माता के कक्ष में भी जींस या फुलपेंट वालों को यानि आपको भारतीयता या आदिवासी संस्कृति की रक्षा को तत्पर होना चाहिए | इसमें कोई कोताही बरतना नहीं चाहिए | नियम तो आखिर नियम होता है उसका पालन करना ही चाहिए वह भी अपने संस्कृति की रक्षा के लिए | सो प्रवेश करने नहीं दिया जा रहा था | यह बात मेरे मन को बहुत भाई, सुकून मिला, क्योंकि एक ही तो नियम सबके लिए लागू है अन्यथा आजकल पैसे वाले, पहुँच वाले, राजनेता ये सब पावर दिखाकर अपनी बातें मनवा लेते हैं किन्तु हमारे यहाँ के राजनेता भी जानते हैं माई तो आखिर माई हैं उनके आगे भला इंसानों की क्या बिसात |
मैंने अन्दर 
कर साष्टांग दंडवत कर देवी को नमन किया | जी कर रहा था अब वहाँ से हटना ही नहीं है जी भर कर माता के उस प्रतीक रूप में आई माई की डोली को निहार लूँ | माई के उस अद्भुत रूप के दर्शन कर मन धन्य-धन्य हो गया | माता के दर्शन कर हमने ओमप्रकाश सिंह के यहाँ भोजन किया और वापस पहुंचे सीरासार जहां 9 दिनों से जोगी बिठाई की रस्म अदायगी हुई थी | भीतर प्रवेश करने से पूर्व दशहरा देखने पहुंचे दर्शनार्थियों के हुजूम से हमारा सामना हुआ जिधर नज़र जाती लोग प्रसन्न मन से इधर से उधर, उधर से इधर तितलियों की तरह मंडरा रहे थे लगता जैसे राजमहल से लेकर सीरासर तक और उससे भी परे चारों ओर की जो परिधि है वह एक बहुत बड़ा बाग़ है जिसमें विभिन्न तरह के फूल चारों तरफ, खूबसूरत इतने कि जिधर भी जाओ जिधर भी देखो मन आनंदित हो उठे, चारों ओर तितलियाँ मंडरा रही हैं पराग लेने, हाँ सचमुच तो सभी मंडरा ही तो रहे थे माई के प्रेम रूपी रस का पान करने के लिए | उद्देश्य वही माँ के दर्शन, त्यौहार रूपी उत्सव का आनंद कहीं से थोड़ी सी भी माँ की कृपा उस पर हो जाए और हमारे आराध्य राजा के दर्शन हो जाएं | यहाँ ग्रामीणों में यह भावना आज भी विद्यमान है कि राजा ही आज भी उनके लिए सर्वोपरि हैं |शासन–प्रशासन अलग है उनका मान–सम्मान तो उनके राजा से है |

क्रमशः 31-08-2024 

Wednesday, August 14, 2024

देश भक्ति गीत-ऐ मेरे वतन के लोगों

 "देशभक्ति ऐ मेरे वतन के लोगों गीत का हल्बी अनुवाद "

आ.. आआ..                           

ऐ मेरे वतन के लोगों                   

तुम खूब लगा लो नारा आ.. आआ..  

ये शुभ दिन है हम सबका 

लहरालो तिरंगा प्यारा 

पर मत भूलो सीमा पर 

वीरों ने है प्राण गवाएं

कुछ याद उन्हें भी कर लो

 कुछ याद उन्हें भी कर लोओ 

जो लौट के घर ना आये 

जो लौट के घर ना आये

ऐ मेरे वतन के लोगों

ज़रा आँख में भर लो पानी

जो शहीद हुए हैं उनकी

ज़रा याद करो क़ुरबानी 

तुम भूल ना जाओ उनको

इसलिए सुनो ये कहानी

जो शहीद हुए हैं उनकी

ज़रा याद करो क़ुरबानी

जय हिन्द.. जय हिन्द..जय हिन्द की सेना

जय हिन्द.. जय हिन्द..जय हिन्द की सेना

जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द

जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द

 

" हल्बी अनुवाद" 


 आ.. आआ..  

  ऐ मचो देस चो लोकमन 

  तुमी खूबे लगावा नारा 

  अई नंगत दिन इली आमी सबचो  

  लेहरावा तिरंगा प्यारा

फेर नी भुलका संद ने

बीरमन परान के दिला

अजीक सुरता हुनमन के करा नु 

अजीक सुरता हुनमन के करा नु

जे फिरून के घर नी इला

जे फिरून के घर नी इला

ऐ मचो देस चो लोकमन

अजीक आईंख ने भरानु पानी 

जे शहीद होलासत हुनमन चो 

अजीक सुरता करा कुरबानी 

तुमी नी भुलका हुनमन के 

हुनचय काजे सुना ए कहनी 

जे शहीद होला हुनमन चो 

अजीक सुरता करा कुरबानी

मित्रो गीत बहुत लंबा है   | क्रमशः

Wednesday, July 3, 2024

आंचलिक   लेख---

बस्तर का पारम्परिक  नृत्यः छेरता, (छेरका, छेरछेरा)

छेरता तिहार और गीत-नृत्य

            फसल वास्तव में लक्ष्मी का स्वरूप है । चार माह के अथक परिश्रम के बाद खेतों में धान की बालियाँ जब लहलहाती हैं देखकर किसान का मन गदगद हो जाता है, फिर आता है उसकी मेहनत को घर लाने का समय यानि फसल की कटाई का । फसल काटकर घर में आ जाता है तो फिर शुरू होता है धान की मिंजाई का समय | उसके लिए मौसम के अनुमान का  ग्रामीण अंचलों में भी वे किसान या लोग जिन्हें पुस्तक बाँचना भी नहीं आता चाँद उनके लिए प्रमुख ज्योतिषी होता है। वे चाँद के बढ़ने और घटने के साथ ही अपना सारा समय नियत करते हैं कब कौन सा पर्व उत्सव आएगा ? आज दूज का चाँद या चौदहवीं का चाँद है,  आधे से अधिक ग्रामीण अनुमान लगाने का यह ज्योतिषीय गणित जानते हैं । पंजिहार भी होते हैं गावों में जिन्हें मेड़गंतेया भी कहते हैं, ये ग्रामीण संस्कृति और कृषि संस्कृति के संवाहक होते हैं । धान की मिंजाई होकर घर में साल भर के लिए सुरक्षित अनाज रख लिया जाता है | मेरे बाबा रतनलाल देवांगन सबको यानि गाँव के वे लोग जो इसकी पात्रता रखते हैं | गावों में रिवाज है कि फसल की मिंजाई के बाद किस-किस को अनाज वितरित करना है जो उनका साल भर का अधिकार होता है | उन्हें देने के लिए एक बोरा  धान अलग से निकाल कर रखते थे इसी वजह से मुझे यह ज्ञात है । फिर उसमें से कुछ धान बजनेया यानि देवता काम जैसे जतरा में, मेला में ये बजनया निशुल्क बाजा बजाने आते हैं नियम के अनुसार जिसके बदले सभी किसानों के यहाँ से इन्हें अन्न का दान दिया जाता है जो कि इनका अधिकार है | फिर आते हैं, गाय-बैल चरवाहा जो चौमासा में गाय बैलों को चराते हैं ताकि वे किसी के खेतों में घुसकर फसल नष्ट न कर सकें, गाँव के गाँयता, पुजारी तो कुछ पारदीन, ( टोकनी सूपा  आदि कृषि उपयोगी वस्तुएँ बनाकर देने वाली को पारदीन कहते हैं) आदि के लिए रखकर कुछ धान छेरता पुन्नी के नाम पर भी सुरक्षित होता है । दरअसल छेरता फसल कटाई के बाद के हर्ष का पर्व है। यह किसान अपनी मेहनत की कमाई साल भर के लिए घर में संग्रहीत करता है धान की ढूसी देख-देख वह ख़ुशी से गदगद होता है वहीँ गाँव के बच्चे जिनके खेत हों या न हों, खुशी की अभिव्यक्ति के बतौर छेरता (छेरछेरा) मनाते हैं । आज के परिप्रेक्ष्य में हम इसे ग्राम्यांचल का पिकनिक कह सकते हैं जिसे ये युवक, युवती और बालक –बालिकाओं का समूह बड़े मनोयोग से नृत्य और गीतों की प्रस्तुति करके अनाज, सब्जी, फल, पैसा आदि प्राप्त करते हैं |

गाँव के युवाओं की टोली बनती है, जिसमें लड़कों की अलग टोली और लड़कियों की टोली अलग होती है । शाम के वक्त ये टोलियाँ प्रत्येक घर के सामने जाकर नाचते हैं जहां से इन्हें नगद राशि के अलावा अनाज जिसमें धान, चावल, कोचई अर्थात किसानों के यहाँ उत्पन्न होने वाली खाद्य सामग्री प्राप्त होती है । मेरी माँ जमुना बाई सूपा में निकालकर सारी सामग्री और कुछ पैसे छेरता नाचने आए बच्चों को देती थी वहीँ पुन्नी नाचने वाली युवतियों एवं बच्चियों को भी यही सब दिया जाता था । पुन्नी नाचने वाली युवतियों और बच्चियों के दो ग्रुप होते हैं, जिसमें से एक ग्रुप युवतियों द्वारा जो नृत्य किया जाता है उस नृत्य को कुड़दुमदुम  कहा जाता है और बच्चियों के गीत को तारा गीत कहते हैं | बच्चियों द्वारा केवल गीत गाए जाते हैं जबकि युवतियों द्वारा नृत्य की भूमिका निभाई जाती है । युवाओं द्वारा छेरता नाचने में जो मुख्य  पात्र होता है उसे नकटा या विदूषक भी कहते हैं । पूर्णिमा से कुछ दिन पहले से शुरू होकर पूर्णिमा के दिन छेरता नृत्य समाप्त हो जाता है । चूँकि यह पूस की पूर्णिमा को समाप्त होने वाला नृत्य है अतः इसका प्रचार-प्रसार उस ढंग से नहीं हुआ जैसे कि इसकी कला की कुशलता है । खासकर पूस पूर्णिमा के दिन ही इस नृत्य गीत की प्रस्तुति की जाती है | छेरता नृत्य गीत बस्तर की सीमा से लगे ओड़िसा प्रांत में भी कहीं-कहीं दृष्टिगोचर होता है और नारायणपुर सीमा से लगे महाराष्ट्र, कुछ आंध्र प्रदेश की सीमा में पाए जाते हैं ।

1-युवाओं की टोली --छै, आठ, दस की संख्या में युवाओं की टोली होती है । इस टोली में एक विदूषक होता है जो युवाओं के बीच में खड़ा होता है और बाकी युवा उसे अर्धचन्द्राकार घेरा बनाकर खड़े हो जाते हैं पश्चात् युवाओं द्वारा गाना गाए  जाने पर  नकटा अपने मुँह से हुर्र-हुर्र की ध्वनि या सिटी की आवाज़ निकालता है जिसे हुलकी पाड़ना कहते है विदूषक को नकटाकहते हैं जिसे संबोधित कर बाक़ी लोग गीत गाते हैं विदूषक द्वारा एक मुखौटा लगाया गया होता है या खड़िया से चेहरे का मेकअप किया होता है । बाकी लड़के भी कमर से रंगीन धोती, रंगीन कमीज, सर पर पागा, पागा में कलगी गले में साज सिंगार की वस्तुएं माला,मोती, कमर में फेंटा, हाथों में कड़े सबके हाथ में एक लाठी जिसे पटक-पटक कर वे गायन करते हैं जिससे गायन के सुर के साथ ताल मिलाई जा सके। ये अर्ध चन्द्रमा आकर में आधा गोल घेरा बनाकर खड़े हो जाते हैं और जब लाठी पटक-पटक कर गीत गाते हैं तब विदूषक या नकटा हुलकी पाड़ते हुए हुर्र-हुर्र की ध्वनि निकालता है लाठी की आवाज, गीतों के बोल और विदूषक की आवाज तीनों का संगम सुनने और देखने वालों के लिए आनंददायक क्षण होता है ---गीत के बोल कुछ इस तरह हैं----

झिरलिटी झिरलिटी पंडकी मारा लिटी रेय

नकटा छेरछेर।।

आदन डारा धंवड़ा डारा टोंड के धरली कसा

लासा काजे झगड़ा होला माहरा आरू दसा रेय

नकटा छेरछेर।।

आव डोकरी छंडायला तोके देबू रोटी

रोटी पीठा के काय करबू बड़े बाप चो बेटी रेय

नकटा छेरछेर ।। (रतनलाल देवांगन)

लड़कियों के गीत दो प्रकार के होते हैं-

2-युवतियों की टोली -- इनमें भी एक मुख्य पात्र होता है जिसे नकटीकहा जाता है, साड़ी में लिपटी होती है और साड़ी का ही वह घूंघट डालकर रखती है ताकि उसके चेहरे को कोई अन्य न देख सकें । कमर में करधन मोटा या पतला वह उसके सामर्थ्य के अनुसार होता है वह गीत के सुर में लय और ताल मिलाते हुए दोनों पैरों से जमीन पर इस तरह नाचती है कि वह अपने ही स्थान पर खड़ी होती है और दोनों पैरों से सामने एक ही स्थान पर कूदने जैसी प्रक्रिया करती  है मगर कमर को थोड़ा झुकाकर, पैरों में घुंघरू बंधे होने के कारण छन्न-छन्न की ध्वनि उत्पन्न होती है हाथ में मोर के पंखों का गुच्छा होता है जिसे एक बार दायीं ओर एक बार बायीं ओर कंधे से लगाती हैं दृश्य बड़ा ही मनमोहक होता है शेष लड़कियाँ भी कहीं लाल साड़ी, कहीं सफ़ेद कोष्टउहाँ साड़ी किनारी वाली या फिर रंग बिरंगी साड़ियों से सुसज्जित, हाथों में चूड़ी पटा , गले में सूता-पुतरी, करीने से सजा हुआ जूड़ा, जूड़े में लाल रिबन के फूल, कान में खिलवाँ, नाक में फुल्ली, पैरों में पयंड़ीएगहने कांसा, पीतल, गिलट या कौड़ी आदि के भी हो सकते हैं, आदि श्रृंगार कर के अर्ध चंद्राकार में खड़े होकर गीत गाती हैं जब वे गीत गा रही होती हैं उस वक्त यदि कोई जान पहचान का मिल गया तो ये शर्माने से भी नहीं चूकतीं इनके गीतों में युवाओं के लिए संबोधन ज्यादा होता है  जिसमें छेड़छाड,़ उलाहना के शब्दों का प्रयोग किया जाता है।

----गीत कुछ इस तरह ---

कुड़दुमदुम कुड़दुमदुम बाजा बाजीला आया

कुड़दुमदुम कुड़दुमदुम बाजा बाजीला

कोनर गाँवर धंगड़ी नाचीला आया

कोनर गाँवर धंगड़ी नाचीला

अंचीला पंचीला चिवड़ा कुटईला आया

अंचीला पंचीला चिवड़ा कुटईला

चिला रो माछ मागर झलप लुकईला आया

चिला रो माछ मागर झलप लुकईला

कांदुल बाहना

कांदुल बाहना तेबे गोरी रे कांदुल बाहना

ए गांवर लेका मन के मारा गाहना

मारा गाहना तेबे गोरी रे  मारा गाहना

सिरीस पतरो

सिरीस पतरो तेबे गोरी रे सिरीस पतरो

ए गांवर लेका मन एके बतरो (जमुना बाई देवांगन)

3-छोटी बच्चियों की टोली----( तारा गीत) एक टोकनी में थोड़ा धान रखकर उस धान के बीच में एक दीपक जलाकर उस टोकनी को सर पर रखकर प्रत्येक घर के आगे जाकर टोकनी जमीन पर रखती हैं और घेरा बनाकर गीत गाती हैं । इस दृश्य को देखकर यह आभास होता है जैसे छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में सुआ नृत्य किया जाता है शायद तारा गीत भी वैसा ही होगा किन्तु तारा गीत में सुआ नहीं होता हाँ थोड़ा धान रखकर उसके बीच में एक दीया रखकर टोकनी के बाजु से अर्धचंद्राकार  खड़े होकर गीतों का ही गायन किया जाता है । ये बच्चियाँ रंग दृबिरंगी पोशाकों में होती हैं इनके वस्त्र  फ्राक होते हैं । पहनकर यहाँ जब हम गीत गायन करते हैं तब पाते हैं कि इस गीत में कुछ शब्द उत्तर बस्तर की तरफ बोलने वाली लोक बोली की तरह है कुछ हल्बी और कुछ भतरी अर्थात लगभग सम्पूर्ण बस्तर क्षेत्र में छेरता नृत्य होता है ।

पुनी ओ झुनी ओ

ठबक नाकी डुआ नाकी पोए-पोए

अंडा चो घर बनालें

पखना चो गुड़ी गुड़ी

छेंव-छेंव मोटियारी नाचे

मांझा ने बुड़ी- बुड़ी

(कारी कुकडी करकराए

कुसियारिन सेवे सेवे )

आव डोकरी छंडाऊक लाय

तुके दयंदे रोटी

रोटी पीठा के काय करेदे

बड़े बाप चो बेटी रेय

बड़े बाप चो बेटी

कांदा जागीला री कांदा जागीला

झटके बिदा दिहा बाई मन

पुनी भागीला री पुनी भागीला ।।

इन तीनों नृत्य गीतों में एक बात सामान्य है और वह यह कि गाने और नृत्य के समय सभी युवक, युवतियों का चेहरा किसान के घर के मुख्य द्वार की ओर होता हैइस जनजातीय नृत्य में गांव के अन्य पिछड़े वर्ग के लोग भी सम्मिलित होते हैं।शहर वालों की भाषा में हम जिसे पिकनिक कहते हैं उस एकत्रित सामग्री को पौष पूर्णिमा के बाद सुविधानुसार किसी दिन ये युवक या युवतियाँ, बच्चियों की टोलियाँ  सामूहिक रूप से भोज का आयोजन करते हैं । इस तरह छेरता या छेरछेरा का पर्व हँसी ख़ुशी के साथ ही सामूहिक भोज के साथ सम्पन्न होता है। दरअसल यह जनजातीय नृत्य सामूहिक एकता भाईचारे का भाव प्रदर्शित  करने वाला त्यौहार होता है ।

                                                                                                                        शकुंतला तरार

प्लाट नं.-32, सेक्टर-2, एकता नगर,

गुढ़ियारी रायपुर (छ.ग.)

 

 

Wednesday, May 1, 2024

 बस्तर की संस्कृति में मंडिया पेज का महत्त्व 

बस्तर की संस्कृति में मंडिया पेज   

जब से मैंने होश सम्हाला सिर्फ इतना जाना कि हमारे भोजन में सुबह से चूल्हे पर एक बड़े से बर्तन में मंडिया का पेज बनाया जाता था | बाकी दिनों में यानि बारिश और ठण्ड के दिनों में घर में चावल के टुकड़ों  यानि कनकी जिसे आजकल खंडा कहा जाता है, का पेज बनता था और जैसे ही हल्की गर्मी पड़ना शुरू होता मंडिया का पेज जून माह तक बनता पूरे साल भोजन के साथ पानी की जगह पेज का सेवन करते | गर्मी की छुट्टियों में घर पर ही होते तो दोपहर बाद चार बजे के आसपास दुबारा पेज पीते हाँ रात को नहीं पीते थे | यह शरीर में ठंडक बनाए रखता है इसलिए रात को नहीं पीते थे भले ही बचा हुआ दूसरे दिन पी लें |अब  बात मंडिया की आजकल रागी के नाम से इसका चलन बढ़ गया है और अब तो मोटे अनाज और इसके वैज्ञानिक नाम के साथ इसकी उपयोगिता भी बताई गई है |

रागी या मंडिया क्‍या है?

रागी, भारत के साथ-साथ अफ्रीका की विभिन्न जगहों में उगाया जाने वाला एक मुख्य अनाज है। इसका वैज्ञानिक नाम एलुसीन कोरकाना (Eleusine coracana) है। यह भारत के प्रमुख अनाजों में से एक है। इसका उत्पादन भारत में सबसे अधिक कर्नाटक राज्य में किया जाता है। इसे कई अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है जैसे हिंदी में रागी/मंडुआ / मंगल और तमिल में केझवारगु। वहीं, कन्नड और तेलुगु में भी इसे रागी ही कहा जाता है। यह फाइबर, प्रोटीन, पोटेशियम और कैल्शियम जैसे कई जरूरी पोषक तत्वों से समृद्ध होता है  ।  अभी शेष है ---

Sunday, February 13, 2022

शकुंतला तरार 

कोंडानार से कोंडगांव तक





कोंडागांव जिले का गठन – 1 जनवरी, 2012 को राजस्व जिला के रूप में हुआ | इसका  भौगोलिक क्षेत्रफल- 7768-907 है | जिला मुख्यालय-कोंडागांव है जिसकी जनसंख्या-लगभग 578326 है |कोंडागांव जिसका प्राचीन नाम कोंडानार था | किवदंती है कि मरार यानि पटेल समाज के लोग बैलगाड़ी से आगे जा रहे थे हो सकता है वे जगदलपुर की ओर जा रहे हों कि नारायणपुर वाले रास्ते में कंद की लताओं में उनकी गाड़ी फंस गई ( कंद की लता अर्थात कांदा नार),सो मज़बूरी में उन्हें वहीँ रात्रि विश्राम करना पड़ा | रात्रि को उनके ग्रुप के मुखिया को स्वप्न आया कि अब तुम लोग यहीं पर बस जाओ | उन्होंने उपजाऊ भूमि देखकर वहीँ पर बस जाने का निर्णय लिया और जिस गांधी चौक में गाडी फंसने का जिक्र है उसे रोजगारी पारा कहते हैं और उसके ठीक आगे नारायणपुर रोड पर  मरार पारा स्थित है अतः यह कहा जा सकता है कि कांदा नार कहते-कहते अपभ्रंश होकर कांदानार से कोंडानार नाम तभी पड़ा हो | वैसे पुराने नारायणपुर रोड जिसे बारिश के दिनों को छोड़कर लोग पैदल पार करते थे उस पर अब नया पुलिया के बन जाने से बारिश में भी आवागमन सुलभ हो गया है और यह सीधी सड़क है |

बस्तर में नार, पाल, वंड और वाड़ा नाम बहुतायत में मिलते हैं | पाल कहें तो  किलेपाल, केरलापाल केसरपाल, तोकापाल, वंड कहें तो बकावंड, चिपावंड, करपावंड आदि |  विद्वानों के मतानुसार---- वाड़ा और नार में कुछ अंतर है अर्थात सुव्यवस्थित बसाहट वाले गाँव वाड़ा कहलाते थे और अव्यवस्थित बसाहट वाले गाँव नार कहे जाते थे जैसे दंतेवाड़ा, गामावाड़ा, पुसवाड़ा |  उसी तरह नार में कोंडानार, नकुलनार, चिन्तलनार, छिंदनार आदि | कहा जाता है कि यह “नार” शब्द नागयुग का प्रतिनिधित्व करते हैं | अर्थात नार को हम नाग युगीन मान सकते हैं | प्राचीन दण्डाकारण्य का यह क्षेत्र रामायण कालीन बाणासुर का इलाका माना जाता है।

तेलुगु में कोंडा का अर्थ होता है पहाड़, नार का अर्थ होता है गाँव | अर्थात यदि तेलुगु के अनुसार हम देखें तो कोंडागांव का मतलब हुआ पहाड़ वाला गाँव | जो कि केशकाल की घाटी से प्रारंभ होती है जिसे हम पठार कहते हैं |

वहीँ हम जहां ऋषि संस्कृति के आधार पर यदि कोंडागांव के नाम की बात करें तो, डॉ विष्णु सिंह ठाकुर के मतानुसार-----वर्तमान कोंडागांव कुंदगढ़ कहलाता था जिसका प्राकृत शब्द था कुंद ग्राम | यह ऋषि कुंद कुन्दाचार्य की तपस्थली थी | कोंडागांव उत्तर और दक्षिण में परिवर्तित, चौथी शताब्दी ईस्वी में कुंद कुंदाचार्य जैन मुनि की तपस्थली थी जिसे उनके द्वारा महावन में दंडकारण्य कहा गया है | एक ऎसी पहाड़ी जिसके नीचे से घाटी नदी बह रही है और जहां शमी, शाल्मली तरु हैं | जहां रीछ झाड पर चढ़कर मधु छत्ते को अपने वाम हस्त के मध्यमा पंजे से विदीर्ण कर यानि छेद कर ऊपर मुंह कर मधुरस का पान कर लेता है | जहाँ हरील, अकोल की झाड़ियाँ मुख्य हैं | जहां वैसाख के महीने में जामुन जैसे छोटे-छोटे फल लगते हैं, अन्य वन्य वृक्षों के अतिरिक्त इन सभी वृक्षों की प्रधानता के कारण कृष्ण सार मृग से सेवित उस पर्वत के श्रृंग पर ऋषि कुंद कुंदाचार्य ने तपस्या की | वे ”जिन” धर्म से सम्बंधित देशाटन करते हुए, देशनादि संदेश उपदेश से उस स्थल को पावन करते रहे | कालांतर में उस पर्वत की तलहटी पर जो गाँव आबाद हुआ वह ऋषि के नाम पर कुंदकुंद गाँव कहलाया (प्राकृत शब्द) जो कालांतर में अपभ्रंश होकर कोंडागांव कहलाने लगा|

विश्व के सभी मत के प्रवर्तक सत्य की खोज के लिए निसर्ग पर अवलंबित हैं , निसर्ग की शरण में ही गए हैं | नैसर्गिक स्थान को ही आत्मसिद्धि के लिए उत्तम माना गया है | कृत्रिम वातावरण में आज तक किसी ने सर्वोत्तम आत्म सिद्धि की प्राप्ति नहीं की इसलिए आचार्य कुंद कुंद ने भी आत्मसिद्धि के लिए भ्रमण काल में कोंडागांव की पहाड़ी में, उसकी तलहटी में सघन वन के बीच देशाटन के वक्त आए होंगे |

इसके अलावा मर्दापाल का जो क्षेत्र है वह अबूझमाड़ से लगा हुआ है, यहाँ गोंड संस्कृति विद्यमान है अर्थात आम बोलचाल की भाषा में पुराने स्थानीय लोग एक साथ गोंड, मुरिया ही कहते हैं सो गोंड कहते हुए गोंड गाँव कहते-कहते अपभ्रंश होकर कोंडागांव बन गया होगा |

गोंडी भाषा में गाँव को नार कहते हैं इसलिए ------वर्तमान में कोंडागांव का जो लोगो बना है -------उसके बारे में –कुछ बातें---

 

लोगो के  अक्षर में आदिवासी तत्वों को समाहित किया गया है। सबसे ऊपर इसमें हमें प्राकृतिक खूबसूरती और घुमावदार सड़क दिखाया गया है जो केशकाल की घाटी का प्रतिबिम्ब है । आदिवासी संस्कृति में प्रसिद्ध मांदरी के साथ माड़िया व्यक्ति और चिटकुली के साथ माडिन स्त्री को लोगो के केंद्रीय स्तंभ में लिया गया है। बाएँ वक्र पर हवा, आवास, कृषि और दाईं ओर शिकार को दर्शाता है। शीर्ष दाईं ओर तीन आगे के आकार के तीरों के साथ घिरे आदिवासी डिजाइन के प्रतीक, आने वाले वर्षों में कोंडागांव की प्रगति को इंगित करते हैं। यही बात नीचे लिखे कोंडानार शब्द में है जोकि आदिवासी नृत्य के साथ प्रदर्शित है, रास्ते भर में नारियल के झाड़,  नारियल के उच्च स्तरीय वृक्षारोपण और देशभर में सर्वोच्च गुणवत्ता के उत्पादन का प्रतिनिधित्व करता है। कोंडागांव के कोपाबेड़ा में नारियल की नर्सरी है जहां से नारियल और उसका तेल केवल कोंडागांव या केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में इसका निर्यात किया जा रहा है जो इस बात का प्रतीक है कि वहां  उच्च स्तरीय नारियल का उत्पादन होता है जो केवल समुद्र तट पर पाए जाते हैं उससे कहीं कम नहीं | आदिवासी संस्कृति के महत्वपूर्ण वाद्य यंत्र तोड़ी के सुर व संगीत के प्रतीक के रूप में को  का रूप बन रहा है जोकि यहां के आदिवासियों के जीवनशैली से जुड़ता है। पूरे अक्षर को बेलमेटल से बनाया गया है, जिसकी उत्पत्ति पूरे विश्व में सर्वप्रथम कोंडागांव से हुई है। मावा कोंडानार अर्थात मेरा “कोंडागांव”|

बस्तर रियासत के एक अधिकारी ने हनुमान मंदिर में वरिष्ठ जनों की एक बैठक में इसे कोण्डानार के स्थान पर कोण्डागांव रखना ज्यादा उचित बताया। उस समय का पुराना मार्ग पुराना नारायणपुर मार्ग ही था। अत: मरारों के मुख्य परिवारों की बसाहट उसी मार्ग के दोनों ओर हुर्इ। यही पुराना कोण्डागांव था। सन 1905  में केशकाल घाटी के निर्माण के बाद मुख्य सड़क बनी, जो गांधी चौक के पास पुराने नारायणपुर मार्ग से मिलती है। नया मार्ग बनने पर उसके दोनों ओर नर्इ बसाहट होने लगी। रोजगारी पारा नए मार्ग के दोनों ओर बसा। केशकाल घाटी की सड़क का निर्माण होने के बाद केशकाल का क्षेत्र राठौर परिवार को मालगुजारी में दिया गया। वह परिवार तथा इनसे संबंधित लोग बाद में कोण्डागांव मुख्य मार्ग पर बसे। इसके अलावा कोष्टा लोगों की बहुलता है बल्कि कुछ गाँव तो कोष्टा गाँव ही हैं | जैसे कोंडागांव के जामकोट पारा, आड़काछेपडा, पलारी, बाफना, नेवता, मुलमुला, भगदेवा कनेरा, बेंदरी, सरगीपाल  के साथ ही कोपाबेड़ा, भीरागांव यानि कोंडागांव को प्राचीन समय का कोष्टा गाँव भी कह सकते हैं |

मुख्य सड़क रायपुर से जगदलपुर को जाती थी। इस प्रकार कोण्डागांव की मुख्य सड़क बस्तर की राजधानी जगदलपुर से जुड़ गयी । 1980  के दशक में इसे राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 43 घोषित किया गया । 2010  में यही राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 30 घोषित किया गया है। रियासत काल में कोण्डागांव, बडेडोंगर तहसील के अंतर्गत था तथा उसका पुलिस स्टेशन भी बडेडोंगर में था। बाद में तहसील मुख्यालय कोण्डागांव 1943 में आया। शायद सड़क मार्ग में स्थित होने के कारण इसे मुख्यालय बनाया गया |

यहां बसने वाली जातियों में सबसे पुराने मरार फिर कोष्टा आए उसके बाद अनुसूचित जाति, जनजाति में गांडा, घसिया, हल्बा आदि थे। आज हम जिस हल्बी लोक भाषा को बस्तर की संपर्क भाषा के रूप में जानते हैं उस हल्बी भाषा का पोषक बड़े डोंगर ही है जो कि कोंडागांव जिले के अंतर्गत आता है क्योंकि बड़े डोंगर हल्बा बहुल गाँव है | बड़े डोंगर से लेकर कोंडागांव, मर्दापाल, बारसूर, बीजापुर यह पूरा बेल्ट हल्बा आदिवासियों की है | जो नाग युग का प्रतिनिधित्व करते हैं | अच्छी बसाहट होने के बाद 1930 के आसपास प्राथमिक शाला बनी फिर कुछ सालों बाद मिडिल स्कूल और 1953 में मेट्रिक भी | बंगला देशी शरणार्थी यानि  बंगालियों को बसाने के लिए उस समय केन्द्रीय पुनर्वास मंत्रालय द्वारा मलकानगिरी से लेकर जगदलपुर, कोंडागांव, पखांजूर आदि स्थानों पर दंडकारण्य प्रोजेक्ट के तहत कोंडागांव में प्रसाशनिक भवन और आवास बनाया गया साथ ही एक सर्व सुविधायुक्त अस्पताल भी बनवाया जो पूरे बस्तर का सबसे बड़ा अस्पताल हुआ करता था, जो केंद्र सरकार के द्वारा संचालित होता था |1958 में बिजली आई, 1965 में कोंडागांव को राजस्व अनुविभाग घोषित किया गया | 1975 में नगर पालिका परिषद् की स्थापना हुई | कोंडागांव वर्तमान में एशिया का सबसे बड़ा वन काष्ठागार है | यहाँ बेलमेटल शिल्प, लौह शिल्प, काष्ठ शिल्प, बांस शिल्प, बुनकरी कौड़ी शिल्प आदि ने कोंडागांव को विश्व स्तर पर लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचाया है |

सांस्कृतिक क्षेत्र में कोंडागांव के तहसीलपारा में रतनलाल देवांगन को थियेटर संस्कृति की स्थापना का श्रेय जाता है | साथ ही 60 के दशक में जब रोजगारी पारा स्थित पुतरी शाला खुला तो उन्होंने  उस पारा के घर-घर जाकर बालिकाओं को स्कूल में भरती करने का काम तत्कालीन तहसीलदार के निर्देश पर शिवबती बहनजी के साथ किया था |  दोनों तब के ज़माने में जब लड़कियां स्कूल कम जाती थीं, बालिकाओं को प्रोत्साहित करते थे यह बात स्वयं शिवबती देहारी बहनजी ने बताया है |

 कोंडागांव के विकास को देखते हुए 15 अगस्त 2011 को तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह जी ने इसे राजस्व जिला घोषित किया |

कोंडागांव जिला का पुरावैभव---

कोंडागांव के केशकाल तहसील के एंडेगा ग्राम में वराह राज के 29 सिक्के प्राप्त हुए हैं  | वराहराज  का शासन काल -400 - 440 ई.,वे नलवंश के संस्थापक माने जाते हैं |

भोंगापाल, बंडापाल, मिसरी तथा बड़गर्इ ग्रामों के मध्य बौद्धकालीन ऐतिहासिक टीले पाए गए हैं | ग्राम पंचायत भोंगापाल  के पास दो किमी की पर घने वन में लतुरा नदी के तट पर ईट निर्मित ऐतिहासिक बौद्ध चैत्य गृह स्थापित है। यह प्राचीन टीला स्थित बुद्ध प्रतिमा स्मारक छत्तीसगढ़ शासन द्वारा संरक्षित है |

कोपाबेड़ा स्थित शिव मंदिर:- कोपाबेड़ा स्थित शिव जी का विलक्षण मंदिर , कोण्डागंव से 4.5 कि.मी. दूर नांरगी नदी के पास सदानीरा ढोड़गी के किनारे स्थित है। पहुँच मार्ग के दोनों ओर घने साल वृक्ष आकर्षित करते हैं |

 बड़ेडोंगर :- फरसगांव से मात्र 16 कि.मी. दूरी पर रचा बसा चारों ओर पहाडि़यों से घिरा यह क्षेत्र बड़ेडोंगर अपने आराध्य माँ दंतेश्वरी  के नाम से प्रसिद्द है | पहले कभी बस्तर की राजधानी बड़ेडोंगर में मार्इ जी का प्रमुख पर्व दशहरे का संचालन इसी मंदिर से होता था। कथा प्रचलित है कि महिषासुर नामक दैत्य का संग्राम मां दंतेश्वरी से इसी स्थल पर हुआ था। महिषासुर उस रणभूमि में कोटि-कोटि सहस्त्र रथ हाथियों एवं घोड़ों से घिरा हुआ था। देवी ने अस्त्र शस्त्रों काी वर्षा कर उनके सारे उपाय विफल किए। बड़ेडोंगर में पुराने समय में यहाँ147 तालाब पाये गये थे जो इसे विशेष  तौर पर तालाबों की पवित्र नगरी के नाम से विख्यात करते हैं।

आलोर :- ग्राम पंचायत आलोर में मनोरम  पर्वत श्रृंखला के बीचोंबीच धरातल से 100 मी. की ऊंचार्इ पर प्राचीनकाल की मां लिंगेश्वरी देवी की प्रतिमा विद्यमान है। जनश्रुति अनुसार मंदिर सातवीं शताब्दी का होना बतया जाता जा रहा है। इस मंदिर के प्रांगण में प्राचीन गुफाएं स्थित हैं| प्राचीन मान्यता के अनुसार साल  में एक बार पितृमोक्ष अमावस्या माह के प्रथम बुधवार को श्रद्धालुओं के दर्शन  हेतु पाषाण का कपाट खोला जाता है।  जहां लोग संतान प्राप्ति की कामना लेकर आते हैं |

केशकाल की मनोरम घाटी :- कोण्डागांव जिले की केशकाल तहसील में सुरम्य एवं मनोहरी केशकाल घाटी राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर कोण्डागांव-कांकेर के मध्य स्थित है। केशकाल घाटी घने वन क्षेत्र, पहाडि़यों तथा खूबसूरत घुमावदार मोड़ों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ माँ तेलिन सती का मंदिर स्थित होने से इसे तेलिन घाटी के नाम से भी जाना जाता है। 12 घुमावदार मोड़ यात्रियों के आकर्षण का केंद्र है |  

टाटामारी :- ऐतिहासिक धरोहर स्थल टाटामारी का पठार लगभग डेढ सौ एकड़ जमीन पर फैला हुआ है |उंचाई से अनुपम ऊंची चोटियों का विहंगम दृष्य देखते ही बनता है।  इसके अतिरिक्त कोण्डागांव जिले में अनेक स्थल हैं, जिनका पुरातात्विक व धार्मिक महत्व है।

ऐतिहासिक- धार्मिक स्थल गढ़ धनोरा-- कोण्डगांव-केशकाल मुख्य मार्ग पर केशकाल से 2 कि.मी. पूर्व बायीं ओर, 3 किमी की दूरी पर स्थित है। धनोरा को कर्ण की राजधानी कहा जाता है। गढ़ धनोरा में 5-6 वीं सदी के प्राचीन मंदिर, विष्णु एवं अन्य मूर्तियां व बावड़ी प्राप्त हुर्इ हैं । यहां केशकाल टीलों की खुदार्इ पर अनेक शिव मंदिर मिले हैं । यहां स्थित एक टीले पर कर्इ शिवलिंग हैं, यह गोबरहीन के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अलावा  लिंगदरहा,  लहू हाता,  लयाह मटटा,  मुत्ते खड़का, सिंगारपुर में शैल चित्र पाए गए हैं। जिनका शोध किया जाना आवश्यक है |

          संस्कृति एवं लोक परम्पराओं में घोटुल का स्थान सर्वश्रेष्ठ है | यह प्रथा गोंड-मुरिया  जनजाति के युवक-युवतियों का सामाजिक संगठन है जो सामाजिक सहकार और भावी जीवन की पाठशाला है | इसमें बहुमुखी विकास की शिक्षा दी जाती है |

विकास ने गोंड संस्कृति का क्षरण किया है किंतु गोंडगाँव हैं तो कोंडागांव है अन्यथा आयातित संस्कृति ने इसके पतन में कोई कमी नहीं रखी है |

शकुंतला तरार

                                                                                                                                   प्लाट नंबर-32, सेक्टर-2 ,

एकता नगर , गुढ़ियारी, रायपुर (छ.ग.)

मो-9425525681