शकुंतला तरार
कोंडानार से कोंडगांव तक
कोंडागांव
जिले का गठन – 1 जनवरी, 2012 को
राजस्व जिला के रूप में हुआ | इसका
भौगोलिक क्षेत्रफल- 7768-907 है | जिला मुख्यालय-कोंडागांव है जिसकी
जनसंख्या-लगभग 578326 है |कोंडागांव जिसका प्राचीन नाम कोंडानार था | किवदंती है कि मरार यानि पटेल समाज के लोग
बैलगाड़ी से आगे जा रहे थे हो सकता है वे जगदलपुर की ओर जा रहे हों कि नारायणपुर
वाले रास्ते में कंद की लताओं में उनकी गाड़ी फंस गई ( कंद की लता अर्थात कांदा
नार),सो मज़बूरी में उन्हें वहीँ रात्रि विश्राम करना पड़ा | रात्रि को उनके ग्रुप
के मुखिया को स्वप्न आया कि अब तुम लोग यहीं पर बस जाओ | उन्होंने उपजाऊ भूमि
देखकर वहीँ पर बस जाने का निर्णय लिया और जिस गांधी चौक में गाडी फंसने का जिक्र
है उसे रोजगारी पारा कहते हैं और उसके ठीक आगे नारायणपुर रोड पर मरार पारा स्थित है अतः यह कहा जा सकता है कि
कांदा नार कहते-कहते अपभ्रंश होकर कांदानार से कोंडानार नाम तभी पड़ा हो | वैसे पुराने
नारायणपुर रोड जिसे बारिश के दिनों को छोड़कर लोग पैदल पार करते थे उस पर अब नया
पुलिया के बन जाने से बारिश में भी आवागमन सुलभ हो गया है और यह सीधी सड़क है |
बस्तर में नार, पाल, वंड और वाड़ा नाम बहुतायत में मिलते हैं
| पाल कहें तो किलेपाल, केरलापाल केसरपाल,
तोकापाल, वंड कहें तो बकावंड, चिपावंड, करपावंड आदि | विद्वानों के मतानुसार---- वाड़ा और नार
में कुछ अंतर है अर्थात सुव्यवस्थित बसाहट वाले गाँव वाड़ा कहलाते थे और अव्यवस्थित
बसाहट वाले गाँव नार कहे जाते थे जैसे दंतेवाड़ा, गामावाड़ा, पुसवाड़ा | उसी तरह नार में कोंडानार, नकुलनार, चिन्तलनार,
छिंदनार आदि | कहा जाता है कि यह “नार” शब्द नागयुग का प्रतिनिधित्व करते हैं | अर्थात
नार को हम नाग युगीन मान सकते हैं |
प्राचीन दण्डाकारण्य का यह क्षेत्र रामायण कालीन बाणासुर का इलाका माना जाता है।
तेलुगु में कोंडा का अर्थ होता है पहाड़, नार का अर्थ होता
है गाँव | अर्थात यदि तेलुगु के अनुसार हम देखें तो कोंडागांव का मतलब हुआ पहाड़
वाला गाँव | जो कि केशकाल की घाटी से प्रारंभ होती है जिसे हम पठार कहते हैं |
वहीँ हम जहां ऋषि संस्कृति के आधार पर यदि कोंडागांव के नाम
की बात करें तो, डॉ विष्णु सिंह ठाकुर के मतानुसार-----वर्तमान
कोंडागांव कुंदगढ़ कहलाता था जिसका प्राकृत शब्द था कुंद ग्राम | यह ऋषि कुंद कुन्दाचार्य
की तपस्थली थी | कोंडागांव उत्तर और दक्षिण में परिवर्तित, चौथी शताब्दी ईस्वी में
कुंद कुंदाचार्य जैन मुनि की तपस्थली थी जिसे उनके द्वारा महावन में दंडकारण्य कहा
गया है | एक ऎसी पहाड़ी जिसके नीचे से घाटी नदी बह रही है और जहां शमी, शाल्मली तरु
हैं | जहां रीछ झाड पर चढ़कर मधु छत्ते को अपने वाम हस्त के मध्यमा पंजे से विदीर्ण
कर यानि छेद कर ऊपर मुंह कर मधुरस का पान कर लेता है | जहाँ हरील, अकोल की झाड़ियाँ
मुख्य हैं | जहां वैसाख के महीने में जामुन जैसे छोटे-छोटे फल लगते हैं, अन्य वन्य
वृक्षों के अतिरिक्त इन सभी वृक्षों की प्रधानता के कारण कृष्ण सार मृग से सेवित
उस पर्वत के श्रृंग पर ऋषि कुंद कुंदाचार्य ने तपस्या की | वे ”जिन” धर्म से
सम्बंधित देशाटन करते हुए, देशनादि संदेश उपदेश से उस स्थल को पावन करते रहे |
कालांतर में उस पर्वत की तलहटी पर जो गाँव आबाद हुआ वह ऋषि के नाम पर कुंदकुंद
गाँव कहलाया (प्राकृत शब्द) जो कालांतर में अपभ्रंश होकर कोंडागांव कहलाने लगा|
विश्व के सभी मत के प्रवर्तक सत्य की खोज के लिए निसर्ग पर
अवलंबित हैं , निसर्ग की शरण में ही गए हैं | नैसर्गिक स्थान को ही आत्मसिद्धि के
लिए उत्तम माना गया है | कृत्रिम वातावरण में आज तक किसी ने सर्वोत्तम आत्म सिद्धि
की प्राप्ति नहीं की इसलिए आचार्य कुंद कुंद ने भी आत्मसिद्धि के लिए भ्रमण काल
में कोंडागांव की पहाड़ी में, उसकी तलहटी में सघन वन के बीच देशाटन के वक्त आए
होंगे |
इसके अलावा मर्दापाल का जो क्षेत्र है वह अबूझमाड़ से लगा
हुआ है, यहाँ गोंड संस्कृति विद्यमान है अर्थात आम बोलचाल की भाषा में पुराने
स्थानीय लोग एक साथ गोंड, मुरिया ही कहते हैं सो गोंड कहते हुए गोंड गाँव
कहते-कहते अपभ्रंश होकर कोंडागांव बन गया होगा |
गोंडी भाषा में गाँव को नार कहते हैं इसलिए ------वर्तमान
में कोंडागांव का जो लोगो बना है -------उसके बारे में –कुछ बातें---
लोगो के “क” अक्षर में आदिवासी तत्वों को समाहित किया गया है। सबसे ऊपर इसमें हमें
प्राकृतिक खूबसूरती और घुमावदार सड़क दिखाया गया है जो केशकाल की घाटी का
प्रतिबिम्ब है । आदिवासी संस्कृति में प्रसिद्ध मांदरी के साथ माड़िया व्यक्ति और
चिटकुली के साथ माडिन स्त्री को लोगो के केंद्रीय स्तंभ में लिया गया है। बाएँ
वक्र पर हवा, आवास, कृषि और दाईं ओर शिकार को दर्शाता है।
शीर्ष दाईं ओर तीन आगे के आकार के तीरों के साथ घिरे आदिवासी डिजाइन के प्रतीक, आने वाले वर्षों में कोंडागांव की प्रगति को इंगित करते हैं। यही बात नीचे
लिखे कोंडानार शब्द में है जोकि आदिवासी नृत्य के साथ प्रदर्शित है, रास्ते
भर में नारियल के झाड़, नारियल के उच्च स्तरीय वृक्षारोपण और
देशभर में सर्वोच्च गुणवत्ता के उत्पादन का प्रतिनिधित्व करता है। कोंडागांव के
कोपाबेड़ा में नारियल की नर्सरी है जहां से नारियल और उसका तेल केवल कोंडागांव या
केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में इसका निर्यात किया जा रहा है जो इस
बात का प्रतीक है कि वहां उच्च स्तरीय
नारियल का उत्पादन होता है जो केवल समुद्र तट पर पाए जाते हैं उससे कहीं कम नहीं |
आदिवासी संस्कृति के महत्वपूर्ण वाद्य यंत्र तोड़ी के सुर व संगीत के प्रतीक के रूप
में “को” का रूप बन रहा है जोकि यहां के आदिवासियों के जीवनशैली से जुड़ता है। पूरे
अक्षर को बेलमेटल से बनाया गया है, जिसकी उत्पत्ति पूरे विश्व
में सर्वप्रथम कोंडागांव से हुई है। मावा कोंडानार अर्थात मेरा “कोंडागांव”|
बस्तर रियासत के एक
अधिकारी ने हनुमान मंदिर में वरिष्ठ जनों की एक बैठक में इसे कोण्डानार के स्थान
पर कोण्डागांव रखना ज्यादा उचित बताया। उस समय का पुराना मार्ग पुराना नारायणपुर
मार्ग ही था। अत: मरारों के मुख्य परिवारों की बसाहट उसी मार्ग के दोनों ओर हुर्इ।
यही पुराना कोण्डागांव था। सन 1905 में
केशकाल घाटी के निर्माण के बाद मुख्य सड़क बनी, जो गांधी चौक के पास पुराने नारायणपुर मार्ग से मिलती है।
नया मार्ग बनने पर उसके दोनों ओर नर्इ बसाहट होने लगी। रोजगारी पारा नए मार्ग के
दोनों ओर बसा। केशकाल घाटी की सड़क का निर्माण होने के बाद केशकाल का क्षेत्र
राठौर परिवार को मालगुजारी में दिया गया। वह परिवार तथा इनसे संबंधित लोग बाद में
कोण्डागांव मुख्य मार्ग पर बसे। इसके अलावा कोष्टा लोगों की बहुलता है बल्कि कुछ
गाँव तो कोष्टा गाँव ही हैं | जैसे कोंडागांव के जामकोट पारा, आड़काछेपडा, पलारी,
बाफना, नेवता, मुलमुला, भगदेवा कनेरा, बेंदरी, सरगीपाल के साथ ही कोपाबेड़ा, भीरागांव यानि कोंडागांव
को प्राचीन समय का कोष्टा गाँव भी कह सकते हैं |
मुख्य सड़क रायपुर से
जगदलपुर को जाती थी। इस प्रकार कोण्डागांव की मुख्य सड़क बस्तर की राजधानी जगदलपुर
से जुड़ गयी । 1980 के
दशक में इसे राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 43 घोषित किया गया । 2010 में यही राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 30 घोषित किया गया है। रियासत
काल में कोण्डागांव, बडेडोंगर तहसील के अंतर्गत था तथा उसका पुलिस स्टेशन भी
बडेडोंगर में था। बाद में तहसील मुख्यालय कोण्डागांव 1943 में आया। शायद सड़क
मार्ग में स्थित होने के कारण इसे मुख्यालय बनाया गया |
यहां बसने वाली जातियों
में सबसे पुराने मरार फिर कोष्टा आए उसके बाद अनुसूचित जाति, जनजाति
में गांडा, घसिया, हल्बा आदि थे। आज हम जिस हल्बी लोक भाषा को बस्तर की संपर्क
भाषा के रूप में जानते हैं उस हल्बी भाषा का पोषक बड़े डोंगर ही है जो कि कोंडागांव
जिले के अंतर्गत आता है क्योंकि बड़े डोंगर हल्बा बहुल गाँव है | बड़े डोंगर से लेकर कोंडागांव,
मर्दापाल, बारसूर, बीजापुर यह पूरा बेल्ट हल्बा आदिवासियों की है | जो नाग युग का
प्रतिनिधित्व करते हैं | अच्छी बसाहट होने के बाद 1930 के आसपास प्राथमिक शाला बनी
फिर कुछ सालों बाद मिडिल स्कूल और 1953 में मेट्रिक भी | बंगला देशी शरणार्थी यानि
बंगालियों को बसाने के लिए उस समय केन्द्रीय
पुनर्वास मंत्रालय द्वारा मलकानगिरी से लेकर जगदलपुर, कोंडागांव, पखांजूर आदि
स्थानों पर दंडकारण्य प्रोजेक्ट के तहत कोंडागांव में प्रसाशनिक भवन और आवास बनाया
गया साथ ही एक सर्व सुविधायुक्त अस्पताल भी बनवाया जो पूरे बस्तर का सबसे बड़ा
अस्पताल हुआ करता था, जो केंद्र सरकार के द्वारा संचालित होता था |1958 में बिजली
आई, 1965 में कोंडागांव को राजस्व अनुविभाग घोषित किया गया | 1975 में नगर पालिका
परिषद् की स्थापना हुई | कोंडागांव वर्तमान में एशिया का सबसे बड़ा वन काष्ठागार है
| यहाँ बेलमेटल शिल्प, लौह शिल्प, काष्ठ शिल्प, बांस शिल्प, बुनकरी कौड़ी शिल्प आदि
ने कोंडागांव को विश्व स्तर पर लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचाया है |
सांस्कृतिक क्षेत्र
में कोंडागांव के तहसीलपारा में रतनलाल देवांगन को थियेटर संस्कृति की स्थापना का श्रेय जाता है | साथ ही 60 के दशक में जब
रोजगारी पारा स्थित पुतरी शाला खुला तो उन्होंने
उस पारा के घर-घर जाकर बालिकाओं को स्कूल में भरती करने का काम तत्कालीन
तहसीलदार के निर्देश पर शिवबती बहनजी के साथ किया था | दोनों तब के ज़माने में जब लड़कियां स्कूल कम जाती
थीं, बालिकाओं को प्रोत्साहित करते थे यह बात स्वयं शिवबती देहारी बहनजी ने बताया
है |
कोंडागांव के विकास को देखते हुए 15 अगस्त 2011
को तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह जी ने इसे राजस्व जिला घोषित किया |
कोंडागांव जिला का
पुरावैभव---
कोंडागांव के केशकाल तहसील के एंडेगा ग्राम में वराह राज के 29 सिक्के प्राप्त हुए हैं | वराहराज का शासन काल -400 - 440 ई.,वे
नलवंश के संस्थापक माने जाते हैं |
भोंगापाल, बंडापाल,
मिसरी तथा बड़गर्इ ग्रामों के मध्य बौद्धकालीन ऐतिहासिक टीले पाए गए
हैं | ग्राम पंचायत भोंगापाल के पास दो
किमी की पर घने वन में लतुरा नदी के तट पर ईट निर्मित ऐतिहासिक बौद्ध चैत्य गृह
स्थापित है। यह प्राचीन टीला स्थित बुद्ध प्रतिमा स्मारक छत्तीसगढ़ शासन द्वारा
संरक्षित है |
कोपाबेड़ा स्थित शिव मंदिर:- कोपाबेड़ा स्थित शिव जी का विलक्षण मंदिर , कोण्डागंव
से 4.5 कि.मी. दूर नांरगी नदी के पास सदानीरा ढोड़गी के
किनारे स्थित है। पहुँच मार्ग के दोनों ओर घने साल वृक्ष आकर्षित करते हैं |
बड़ेडोंगर :- फरसगांव से मात्र 16 कि.मी. दूरी पर रचा बसा चारों ओर पहाडि़यों
से घिरा यह क्षेत्र बड़ेडोंगर अपने आराध्य माँ दंतेश्वरी के नाम से प्रसिद्द है | पहले कभी
बस्तर की राजधानी बड़ेडोंगर में मार्इ जी का प्रमुख पर्व दशहरे का संचालन इसी मंदिर
से होता था। कथा प्रचलित है कि महिषासुर नामक दैत्य का संग्राम मां दंतेश्वरी से
इसी स्थल पर हुआ था। महिषासुर उस रणभूमि में कोटि-कोटि सहस्त्र रथ हाथियों एवं
घोड़ों से घिरा हुआ था। देवी ने अस्त्र शस्त्रों काी वर्षा कर उनके सारे उपाय विफल
किए। बड़ेडोंगर में पुराने समय में यहाँ147 तालाब पाये गये थे जो इसे विशेष तौर पर तालाबों की पवित्र नगरी के नाम से
विख्यात करते हैं।
आलोर :- ग्राम
पंचायत आलोर में मनोरम पर्वत श्रृंखला के
बीचोंबीच धरातल से 100 मी. की ऊंचार्इ पर प्राचीनकाल की मां लिंगेश्वरी देवी की
प्रतिमा विद्यमान है। जनश्रुति अनुसार मंदिर सातवीं शताब्दी का होना बतया जाता जा
रहा है। इस मंदिर के प्रांगण में प्राचीन गुफाएं स्थित हैं| प्राचीन मान्यता के
अनुसार साल में एक बार पितृमोक्ष अमावस्या
माह के प्रथम बुधवार को श्रद्धालुओं के दर्शन हेतु पाषाण का कपाट खोला जाता है। जहां लोग संतान प्राप्ति की कामना लेकर आते हैं
|
केशकाल की मनोरम घाटी :- कोण्डागांव
जिले की केशकाल तहसील में सुरम्य एवं मनोहरी केशकाल घाटी राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर
कोण्डागांव-कांकेर के मध्य स्थित है। केशकाल घाटी घने वन क्षेत्र, पहाडि़यों तथा खूबसूरत घुमावदार मोड़ों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ माँ
तेलिन सती का मंदिर स्थित होने से इसे तेलिन घाटी के नाम से भी जाना जाता है। 12 घुमावदार
मोड़ यात्रियों के आकर्षण का केंद्र है |
टाटामारी :- ऐतिहासिक धरोहर स्थल
टाटामारी का पठार लगभग डेढ सौ एकड़ जमीन पर फैला हुआ है |उंचाई से अनुपम ऊंची
चोटियों का विहंगम दृष्य देखते ही बनता है। इसके अतिरिक्त कोण्डागांव जिले में अनेक स्थल हैं,
जिनका पुरातात्विक व धार्मिक महत्व है।
ऐतिहासिक- धार्मिक
स्थल गढ़ धनोरा-- कोण्डगांव-केशकाल मुख्य
मार्ग पर केशकाल से 2 कि.मी. पूर्व बायीं ओर, 3 किमी की दूरी पर स्थित है। धनोरा
को कर्ण की राजधानी कहा जाता है। गढ़ धनोरा में 5-6 वीं सदी के प्राचीन मंदिर, विष्णु एवं अन्य मूर्तियां व बावड़ी प्राप्त हुर्इ हैं । यहां केशकाल टीलों
की खुदार्इ पर अनेक शिव मंदिर मिले हैं । यहां स्थित एक टीले पर कर्इ शिवलिंग हैं,
यह गोबरहीन के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अलावा लिंगदरहा, लहू हाता, लयाह मटटा, मुत्ते खड़का, सिंगारपुर
में शैल चित्र पाए गए हैं। जिनका शोध किया जाना आवश्यक है |
बेस्ट है
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