Saturday, August 31, 2024

विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा -शकुंतला तरार ,संदीप तरार

जय माँ दंतेश्वरी 

बस्तर महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव जी 

विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा 

v शकुंतला तरार, संदीप तरार

    जगदलपुर बस्तर के ऐतिहासिक 75 दिन के दशहरा का प्रारंभ हरियाली अमावस्या के दिन पाठ जात्रा पूजा की रस्म के साथ ही प्रारंभ हो जाता है| दशहरा शुरू होने के पहले दिन राजा के द्वारा बस्तर क्षेत्र के विभिन्न देव गुड़ियों में नवरात्रि पर्व पर दीप प्रज्ज्वलित करने हेतु मंदिर पुजारियों, गांयता एवं प्रमुखों को 101 दीप-कलश, श्रीफल, अगरबत्ती, पीला-चावल सहित विविध पूजन सामग्री भेंट किया जाता है |दशहरा पर्व का प्रारम्भपरंपरानुसारकाछनगादी पूजा विधान  से  संपन्न होता है। काछनगादी पूजा बस्तर दशहरा का प्रथम चरण है. काछनगादी बेल काँटो से तैयार झूला होता है. पितृमोक्ष अमावस्या के दिन काछनगादी पूजा विधान संपन्न होता है. काछनगादी यानि देवी की गद्दी में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी आती है, जो बेल के कांटो के झूले पर बैठी  दशहरा पर्व मनाने एवं फूल रथ संचालन करने की अनुमति देती है। काछनगादी पूजा में मिरगान जाति की कन्या के द्वारा दशहरा पर्व मनाने की अनुमति दी जाती है, काछनगादी पूजा विधान के बाद गोल बाजार में जाकर रैला देवी (रैनी देवी) की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है। काछनगादी पूजा एवं रैला देवी पूजा के दौरान दशहरा कमेटी के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, राजपरिवार के सदस्य, राजगुरु, मांझी,चालकी एवं अन्य गणमान्य नागरिकों की विशेष उपस्थिति रहती है |दशहरा में प्रमुख रूप से काछनगादी, पाट जात्रा, जोगी बिठाई, मावली जात्रा, भीतर रैनी, बाहर रैनी तथा मुरिया दरबार मुख्य रस्में होती हैं। “1725 ईसवी में काछनगुड़ी क्षेत्र में माहरा समाज के लोग रहते थे | तब तात्कालीन महाराजा दलपत देव जी से कबीले के मुखिया ने जंगली पशुओं से अभयदान माँगा | महाराजा इलाके में पहुँचे और उन्हें राहत प्रदान किया, वे वहाँ की आबोहवा से इतने प्रभावित हुए कि रियासत की राजधानी को बस्तर के बजाए जगतुगुड़ा में बनाया जो कालांतर में जगदलपुर के नाम से जाना गया | महाराजा साहब ने कबीले की इष्टदेवी काछनदेवी से आश्विन अमावस्या को आशीर्वाद व अनुमति लेकर दशहरा उत्सव प्रारंभ किया, बस तब से ही ये परंपरा इसी तरह चली आ रही है”|

          पहले दिन स्थानीय सिरहासार भवन में ग्राम बिरिंगपाल से लाई गई साल की टहनियों को गड्ढे में पूजा विधान के साथ गाड़ते हैं | इस गाड़ने की प्रक्रिया को डेरी गड़ाई कहा जाता है। तत्पश्चात जोगी बिठाईकी रस्म होती है जो कि दशहरा का पर्व निर्विघ्न संपन्न हो इस उद्देश्य से नौ दिनों तक उसी स्थान पर निराहार बैठे रहते हैं |कहते हैं कि जोगी को नौ दिनों तक स्वयं देवी द्वारा दिव्य भोजन कराया जाता है | इसकेदूसरे दिन से सप्तमी तक रथ परिचालन कर नगर भ्रमण कराया जाता है | महाष्टमी को निशाजात्रा की पूजा संपन्न होती है | नवमी के दिन जोगी उठाई की रस्म होती है फिर कुंवारी पूजा की जाती है | उसी दिन शाम के वक़्त कुवांरी पूजा की सामग्री को गंगामुंडा के जल में प्रवाहित कर दिया जाता है | यह कार्य केवल महिलाओं के द्वारा किया जाता है | उसके पश्चात् मावली परघाव की रस्म पूरी की जाती है जिसमें राजा के द्वारा दंतेवाड़ा से पधारी माई की डोली के स्वागत की परंपरा होती है जिसमें बस्तर के आमंत्रित देवी-देवताओं सहित राजा द्वारा स्वागत कर राजभवन प्रांगण जहाँ माई दंतेश्वरी विराजमान हैं वहाँ  तक लाई जाती हैं | अगले दिन दशहरा को,रथ परिचालन होता है जिसे भीतर रैनी कहा जाता है इसी दिन आदिवासियों द्वारा रथ की चोरी की जाती है और उसे कुमडाकोट ले जाया जाता है | जहाँ राजा दूसरे दिन नया खानी का त्यौहार मनाते हैं | दूसरे दिन बाहर रैनी पर कुमडाकोट में विशेष पूजा और शाम को रथ वापसी होती है | 


          अगले दिन काछन जात्रा देवी की बिदाई और मुरिया दरबार उसके अगले दिन ,कुटुंब जात्रा के साथ देवी-देवताओं को विदाई अर्थात बस्तर दशहरा में शामिल हुए बस्तर के सभी परगनाओं के देवी-देवताओं को अश्विन शुक्ल13को गंगा मुंडा कुटुंब जात्रामें पूजा-अनुष्ठान के बाद विदाई दी जाती है. माई दंतेश्वरी के अलावा विभिन्न देवी-देवताओं के छत्र-डोली आदि जात्रा स्थल पर पहुंचते हैं. इस कार्यक्रम को "ओहाड़ी" कहते हैं. पहले बस्तर दशहरा के विभिन्न जात्रा कार्यक्रमों में पशु बलि दी जाती थी  सैकड़ों पशुमुंड कटते थे, पर अब यह प्रथा बंद-सी हो गई है|

             इसके दूसरे दिन या वार देखकर दंतेवाड़ा की माईजी की डोली की विदाई के साथ पर्व का समापन होता है ।

                                                             7,8,2024      क्रमशः 

वनवासी संस्कृति से ओतप्रोतदुनिया में सबसे लंबी अवधि लगभग 75 दिनों तक चलने वाला बस्तर का दशहरा पर्व समूचे विश्व में प्रसिद्ध बस्तर दशहरा में देश ही नहीं अपितु विदेशों से भी लोग इसके आकर्षण से खींचे चले आते हैं | इतने भव्य रथ को केवल इंसानों के द्वारा खींचा जाना भी मुख्य आकर्षण है दशहरा का | रथ को लकड़ी से दुमंजिला बनाया जाता है, इस भव्य रथ की खासियत यह है कि इसे एक विशेष वर्ग द्वारा ही निर्मित किया जाता है जो पर्यटकों के लिए खास आकर्षण का केन्द्र होता है। हर साल नये सिरे से बनाए जाने वाले इस काष्ठ निर्मित भव्य रथ का इतिहास पिछले 600 वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी निर्बाध रूप से जारी है | रथ को बनाने के लिए पारंपरिक औजारों का प्रयोग किया जाता है इन्हीं पारंपरिक औजारों से माचकोट एवं तिरिया के जंगल से लाए गए साल वृक्ष के तने को चीर कर उसी की लकड़ी से रथ का निर्माण किया जाता है |



वर्षों से मेरी दिली इच्छा थी कि मैं बस्तर का दशहरा पर्व पहले दिन से लेकर उसके समापन मुरिया दरबार तक एवं माता की डोली की ससम्मान विदाई दंतेवाड़ा के लिए, वहां रहकर देखूंऔर अपने अनुभव आप सब के साथ साझा करूँ किन्तु पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण संभव ही नहीं हो सका | वर्ष 2018 दहशरा का वक़्त एक दिन बैठे-बैठे मैं और बेटा संदीप ने तय किया कि क्यों न इस वर्ष  जगदलपुर में मनाये जाने वाले विश्व प्रसिद्ध दशहरा उत्सव में शामिल हुआ जाय | दशहरा उत्सव शुरू हुए लगभग 6 दिन हो चुका था फिर भी रथयात्रा देखने का मोह मुझे खीँच ले गया जगदलपुर की ओर | प्रोग्राम बनते ही मैंने जगदलपुर निवासी साहित्यकार एवं बस्तर दशहरा को शिद्दत से महसूसने और जीने वाले भाई रुद्रनारायण पाणिग्राही को फोन किया, उनसे संपर्क नहीं हो पाया फिर मैंने भाई सनत जैन जी को फोन किया| फोन करने का कारण यह था कि इस वक्त जगदलपुर के सारे होटल बुक रहते हैं रहने की जगह नहीं मिलती | वैसे तो जगदलपुर में मेरे बहुत सारे रिश्तेदार रहते हैं किन्तु त्यौहार के वक्त किसी के घर पर रूकना यानि उनके लिए बंधन का कारण बनता है | बेटे का दोस्त ओमप्रकाश सिंह और उनका परिवार भी बहुत शील स्वभाव के, मेहमाननवाजी के लिए तत्पर, चाहते तो हम वहां भी रूक सकते थे उन्होंने हमारे रूकने का इंतजाम भी कर दिया था किन्तु मैं जिस उद्देश्य को लेकर उत्सव देखने गई थी वह समय खातिरदारी में निकल जातायह सोचकर मैंने होटल में ही ठहरना उचित समझा | खैर सनत भाई से पता चला की सारे होटल बुक हैं मगर राजमहल के काफी निकट आनंद लाज है जिसमें आपको कमरा मिल जाएगा | अंधे को क्या चाहिए  दो आँखें , मेरा तो दशहरा उत्सव देखने के आनंद को, आनंद लाज ने आनंद में बदलकर दुगुना उत्साह से भर दिया | वहां से मैं पैदल कई बार आना जाना कर सकती थी और मैंने किया भी | सप्तमी के दिन मैं और बेटा संदीप हमारी आल्टो 800 में रायपुर से जगदलपुर के लिए निकले | कांकेर में हमने शीतल दीदी के यहाँ से भोजन किया कुछ देर रुके और कोंडागांव के लिए निकले | केशकाल पहुँचने से कुछ पहले रास्ते  में घाटी से पहले आतुरगाँव के पास आनंदित करने वाला अद्भुत दृश्य सड़क के किनारे-किनारेअलग अलग स्थानों पर टोकरियों में सीताफल लेकर गाँव के लोग बैठे हैं, दीदी ने पहले ही बता दिया था कि खूब सीताफल मिलेगा जाते हुए, हमें इससे अच्छा और क्या चाहिए था भला ! हमने तुरंत गाड़ी रोकी खूब मोलभाव करके टोकरी भर सीताफल लिया कोंडागांव में भैया-भाभियों और बच्चों के लिए | यहाँ मोलभाव करके फल या सब्जी लेना अच्छा लगता है |बसें तो रूकती नहीं किन्तु जो स्वयं के साधन से आना जाना करते हैं वे जरुर रुक कर उनसे नाना प्रकार के मौसमी जंगली फल साग-सब्जी खरीदते हैं |वे यह भी जानते हैं कि जो यहाँ पहुँचते हैं वे हमसे मोलभाव जरुर करेंगे इसलिए थोडा बढ़ाकर बताते हैं किन्तु इतना ज्यादा भी नहीं कि लोग भाव सुनकर आगे बढ़ जाएं | वैसे भी जो दाम बताया जाता है वह आने जाने वालों के लिए बहुत सस्ता है क्योंकि शहर पहुंचकर उसकी कीमत दुगुनी से ज्यादा हो जाती है | ------|

सप्तमी के दिन हम कोंडागांव में विद्या भाभी और  मनीशंकर भैया भाभी के यहाँ रूके यानि मेरा मायका है वह | दुर्गा अष्टमी के दिन प्रातः जगदलपुर के लिए निकले, वहां पहुंचकर हमने आनंद लाज को अपना ठिकाना बनाया | नवमी के दिन प्रातः हम ओमप्रकाश सिंह के सरकारी आवास पर पहुंचे जहां निकट ही जिया डेरा है | आपको पता है !!! गाँव और गाँव के लोग, ठेठ ग्रामीण मेरी कमजोरी है पहुंचकर लगा----ओह क्या बात है क्या ही अद्भुत दृश्य वहां का, चारों तरफ लोग ही लोग ग्राम्यजन | माता मावली की डोली दंतेवाड़ा  से आकर जिया डेरा में विश्राम जो कर रही थीं | जिया डेरा यानि दंतेवाड़ा  के मंदिर के पुजारी का डेरा यहाँ आकर माताजी अभी भी मेहमान हैं जब तक कि उन्हें ससम्मान स्वागत सत्कार के द्वारा लिवाने राज परिवार, दशहरा समिति,अन्य सम्बंधित और गाँव-गाँव से दशहरा उत्सव मनाने पहुंचे विभिन्न देवी देवता |  पहुंचकर देखा हमने, चारों ओर गाँव के लोग इधर-उधर बिखरे हुए रंग-बिरंगे वस्त्रों से सुसज्जित माई की अगवानी में पहुंचे लोग और माई के दर्शन करने पहुंचे लोग, माई को दंतेवाड़ा  से लेकर आए श्रद्धालु, पुजारी सिरहा,गुनिया जिया उनके सहयोगियों की आवाजाही | उनके घर से हम लोग दंतेश्वरी माई की डोली जो दंतेवाड़ा  से लाई गई थी दशहरा उत्सव में शामिल होने के लिए के दर्शन करने गए | उस वक्त ऐसा लग रहा था यह वक्त यहीं ठहर जाए और मैं जी भरकर माई दंतेश्वरी केप्रतीक रूप (मावली माता) को निहार सकूँ |
                                                                                   8-8-2024- क्रमशः 
माई जी की खासियत ही यही है कि उनके दर्शन यदि दंतेवाड़ा में करना हो तो पारंपरिक तरीके से यानि धोती पहनकर हीमंदिर प्रवेश कर सकते हैं जींस या फुलपेंट में नहीं | और यहाँ जिया डेरा में भी माता के कक्ष में भी जींस या फुलपेंट वालों को यानि आपको भारतीयता या आदिवासी संस्कृति की रक्षा को तत्पर होना चाहिए | इसमें कोई कोताही बरतना नहीं चाहिए | नियम तो आखिर नियम होता है उसका पालन करना ही चाहिए वह भी अपने संस्कृति की रक्षा के लिए | सो प्रवेश करने नहीं दिया जा रहा था | यह बात मेरे मन को बहुत भाई, सुकून मिला, क्योंकि एक ही तो नियम सबके लिए लागू है अन्यथा आजकल पैसे वाले, पहुँच वाले, राजनेता ये सब पावर दिखाकर अपनी बातें मनवा लेते हैं किन्तु हमारे यहाँ के राजनेता भी जानते हैं माई तो आखिर माई हैं उनके आगे भला इंसानों की क्या बिसात |
मैंने अन्दर 
कर साष्टांग दंडवत कर देवी को नमन किया | जी कर रहा था अब वहाँ से हटना ही नहीं है जी भर कर माता के उस प्रतीक रूप में आई माई की डोली को निहार लूँ | माई के उस अद्भुत रूप के दर्शन कर मन धन्य-धन्य हो गया | माता के दर्शन कर हमने ओमप्रकाश सिंह के यहाँ भोजन किया और वापस पहुंचे सीरासार जहां 9 दिनों से जोगी बिठाई की रस्म अदायगी हुई थी | भीतर प्रवेश करने से पूर्व दशहरा देखने पहुंचे दर्शनार्थियों के हुजूम से हमारा सामना हुआ जिधर नज़र जाती लोग प्रसन्न मन से इधर से उधर, उधर से इधर तितलियों की तरह मंडरा रहे थे लगता जैसे राजमहल से लेकर सीरासर तक और उससे भी परे चारों ओर की जो परिधि है वह एक बहुत बड़ा बाग़ है जिसमें विभिन्न तरह के फूल चारों तरफ, खूबसूरत इतने कि जिधर भी जाओ जिधर भी देखो मन आनंदित हो उठे, चारों ओर तितलियाँ मंडरा रही हैं पराग लेने, हाँ सचमुच तो सभी मंडरा ही तो रहे थे माई के प्रेम रूपी रस का पान करने के लिए | उद्देश्य वही माँ के दर्शन, त्यौहार रूपी उत्सव का आनंद कहीं से थोड़ी सी भी माँ की कृपा उस पर हो जाए और हमारे आराध्य राजा के दर्शन हो जाएं | यहाँ ग्रामीणों में यह भावना आज भी विद्यमान है कि राजा ही आज भी उनके लिए सर्वोपरि हैं |शासन–प्रशासन अलग है उनका मान–सम्मान तो उनके राजा से है |

क्रमशः 31-08-2024 

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