Thursday, November 28, 2013

''आरुषि होने के मायने''
दस से सोलह वर्ष का उम्र, बच्चों के जीवन में नए मोड़ देने का संकेत है ..इन चार-छै सालों  में बच्चों का शारीरिक-मानसिक विकास तेजी से होने लगता है. उन के पास सिर्फ पढाई के अलावा भी बहुत कुछ जानने- समझने  के लिए होता है। यही वह समय है जब वे  अपने शरीर में, अपने जीवन में बदलाव महसूस करते  हैं । खासकर लड़कियां जो होती हैं, जो बच्चियां हैं उनमे शारीरिक बदलाव होने लगते हैं वे घबरा जाती हैं  कि उनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है, इस होने वाले बदलाव के बारे में वे अपनी माँ से बात करना चाहती हैं. उन्हें  लगता है कि पल-पल उनके इस बदलाव की  साक्षी उनकी माँ  बने। उस वक़्त किसी भी बच्ची को माँ के लाड़-दुलार कीमाँ  के स्नेह की  आवश्यकता होती  है ताकिवह उन आने वाले परिवर्तनों से भयभीत होने के बजाय उनका साक्षात्कार करने को तैयार रहे, मगर जब इस वक्त बच्चियां  स्वयं  को अकेला पाती हैं तो अपना कोई हमराज़ ढूंढने लगती  हैं, उन्हें पल-पल  भारी होने लगता है तब उनके पास अपनी बात बताने के लिए माँ नहीं बल्कि आया होती है, वे  अपने भीतर के परिवर्तनों से घबराने लगती हैं , अपनी बात को साझा करना चाहती हैं  मगर किससे कहें फिर वे  अपनी सखी सहेलियों से कहेंगी  ..अब वह ज़माना तो नहीं रहा कि जहाँ बच्चे दादी, नानी, ताईचाची के बीच रहकर कुछ सीखें, संयुक्त परिवार का दौर अब रहा नहीं जहाँ भाई-बहन, बड़ी बहन, छोटी बहन, बीस पच्चीस लोग एक ही घरों में हुआ करते थे, आज एकाकी परिवार के बच्चों में उन्मुक्तता ज्यादा बढ़ रही है इसका एक कारन यही है कि अभिभावकों के पास बच्चो के लिए समय का अभाव है ..बच्चों से ज्यादा उन्हें अपना प्रोफेशन प्यारा होता है उनकी अथाह संपत्ति कमा लेने की चाह और अभिजात्य जीवन से बच्चों को नौकर नौकरानियों का साथ मिलता है ...
महानगरों में या बड़े शहरों के उच्च वर्गीय परिवारों के बच्चों की स्थिति यह है कि वे अपने माता-पिता के साथ समय बिताने के लिए तरस जाते हैं स्कूल से लौटने पर बच्चों को नुपुर छनकाती दरवाजे पर उनके आने की बाट  जोहती माँ जिससे वह मनुहार करे, दिल की  बातें कह सके, पर यह माँ जैसे कोई दिवा स्वप्न जैसी है किताब की  लिखी कहानियों की तरह नहीं यह माँ, जो उससे लाड़  लड़ाये ....तब उसका सामना होता है घरेलु नौकर या नौकरानी से, मन की  उत्कंठा मन के भीतर ही दब जाती है वहाँ न माँ होती है न माँ की ममता, न प्यार न झिड़की, न माँ के हाथ के चावल-दाल-फुलके ...फिर जब उनका आगमन होता है तो सिर्फ औपचारिकता, आपने होमवर्क किया या नहीं , आप अब तक सोये नहीं ,आपने  खाना खा लिया , जल्दी सो जाओ  सुबह स्कूल जाना नहीं है क्या ? इतनी रात गए तक टी वी  क्यों देख रहे हो  यानि शिकायतों का अम्बार।  तब बच्चे का मन करता है काश ! माँ आज आपने मेरे सर पर हाथ रखकर मेरा हाल चाल तो पूछा होता , मेरे मनोभावों को जाना होता , मगर यहाँ न झिड़की, न स्नेह भरा स्पर्श, न सर पर  हाथ या ऐसा कि चल मैं आज तुम्हारे साथ सो जाती हूँ किशोरवय बच्चों के मन के भावों को वे समझ सकें ऐसा कम ही होता है या वे जानबूझकर समझना नहीं चाहते। एक समय ऐसा भी आता है जब     बच्चे को  माँ बाप की  झिड़की अच्छी नहीं लगती वह अपने ही मन का करने का आदि हो जाता है ...  टी वी चैनल, इंटरनेट पर परोसे गए विविध अश्लीलता से उसका साक्षात्कार होता है मन की  उत्कंठा पतन की  ओर अग्रसर करती है वैसे भी विपरीत सेक्स के प्रति खिंचाव महसूस करना मानव प्रवृत्ति है  तब वहाँ मार्गदर्शन देने के लिए अभिभावक नहीं बल्कि पेट्रोल को चिंगारी मिलती है और तब हश्र होता है आरुषि हेमराज हत्याकांड के रूप में ...यहाँ आरुषि ऐसी अकेली बच्ची नहीं इन जैसी न  जाने  कितनी बच्चियाँ हैं जो समय से पहले ही जवान हो जाती  हैं। आरुषि के साथ जो हुआ उसकी पुनरावृत्ति न हो इसके लिए उन अभिभावकों को सचेत होकर अपने बच्चों के लिए  समय निकालना ही होगा ..वे  अपने पारिवारिक, सामाजिक दायित्वों को सिर्फ रुपयों की खनक के आगे भूल न जाएँ  ....सबक लेना होगा उन अभिभावकों को जो अपने व्यवसाय को अहम् मानते हैं ,ठीक है किन्तु अपनी ज़िम्मेदारियों से मुँह न मोड़ें, दोस्तों की  महफ़िल उन्हें प्यारी होती है शराब शवाब की रंगीनियां उन्हें भाती  हैंबच्चे तो वे इसलिए पैदा करते हैं कि यह वैवाहिक जीवन की महती  आवश्यकता है और आगे चलकर ये बच्चे उनकी संपत्ति का भरपूर उपयोग कर सकें, ऐश्वर्य से भरा जीवन जी सकें, किन्तु … 
   एक आरुषि हेमराज के मारे जाने  से यह सिलसिला थम नहीं सकता क्योंकि आरुषि होने के मायने हैं  अभिजात्य वर्ग और उससे जुडी विडंबनाएँ .......
शकुंतला तरार  स्वतंत्र पत्रकार