Saturday, July 12, 2014

एक गीत --मेघ फिर मुकर गए,

आज सावन का पहला दिन है और बादल पता नहीं कहाँ चले गए हैं- रूठे-रूठे से लग रहे हैं इस बार --हमने ही तो प्रकृति के  विनाश करने का ठेका ले रखा है  ------
एक गीत आप सबके लिए ----
कैसी यह सृष्टि हुई मानव मन तड़प रहा
प्रकृति से छेड़छाड़ उसके लिए सबक बना ||
मेघ फिर मुकर गए, पवन ठहर-ठहर गए
शाखों के पात सभी, फिर हहर-हहर गए
जलद पास  आकर भी, घुमड़ कर चले गए
दामिनी दमक-दमक, चमक दिखा चली गई
चातक भी प्यासा है, पवन टार नहीं हुए
दादुर झींगुर भी मौन, व्रत वरन-वरन किए
बुझ न पाई प्यास अभी, ताल नहीं भर पाए
डूबा नहीं पनघट और, जाल नहीं खुल पाए
शंख भी सहम गए, सीप मोती चुग गए
घोंघे फिर घूम-घूम, कर लहर-लहर गए ---शकुंतला तरार