स्मृतियाँ ------9मार्च 1997 को लिखा था
चंद स्मृतियों को
संजोये
मैं खड़ी हूँ नितांत
अकेली
सागर तट पर
निहारती हूँ
उस समूचे सौन्दर्य को
जो मिलती हैं
इस विशाल महासागर से
जिधर नज़रें उठाओ
अथाह विशाल विस्तृत जल
जिसका न कोई ओर न कोई
छोर
वेग से चली आती उत्सुक
नदियाँ भी
इसके निकट आकर
इससे मिलने को
शांत रूप धारण कर लेती
हैं
मानो
किसी प्रेमी से मिलने
को
उसकी प्रेमिका दौड़ी चली
आ रही हो
और
मिलते ही शरमा कर ठिठक
जाती हो,
सिमट जाती हो,
सिकुड़ जाती हो,
ठीक वैसे ही
नदी भी शांत रूप धरकर
सागर की बाँहों में
समा जाती है
और अपना अस्तित्व
समाप्त कर
स्वयं का परिचय
खो देती है
तब महासागर बन जाती है.
मगर न जाने क्यों
मेरा मन अशांत है
महासागर में उठते हुए
उस ज्वार-भाटे की तरह
स्मृतियाँ
कुरेदती हैं मन को---शकुंतला
तरार