Tuesday, May 28, 2019

संस्मरण—3---- कोंडागांव बस्तर ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


संस्मरण—3----
 कोंडागांव बस्तर  ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


कक्षा तीसरी में --– कक्षा तीसरी की भी अपनी ही कहानी है | तीसरी हमें पढ़ाया मिश्रा गुरूजी ने |  आजकल मिश्रा को मिश्र कहने का चलन हो गया है, अन्यथा हम लोग तो अब तक मिश्रा ही जानते थे | तो हमारे मिश्रा गुरूजी इलाहाबाद से आए थे | उनकी पहली पोस्टिंग शायद कोंडागांव में ही हुई थी और वे रिटायर भी उसी स्कूल से हुए |जहां तक मुझे याद है कभी भी वे अपने परिवार के साथ नहीं रहे केवल छुट्टियों में घर जाते | अत्यंत विनम्र, शालीन, मगर उनका ज़िक्र मैं यहाँ इसलिए कर रही हूँ कि ये जो बालमन होता है ना वह बहुत जिज्ञासु होता है उसे जो कुछ भी नयापन दिखा वह उसे जानने के लिए उत्साहित रहता है इसी कड़ी में हमारे जिज्ञासु मन की उलझन थी कि मिश्रा सर के पैर इतने गुलाबी कैसे ? मैं और मेरे सहपाठी लड़का हो या लड़की सभी का ध्यान केवल उनके पैरों पर ही रहता था | वे बहुत गोरे चिट्टे से थे मगर उनका पैर एकदम गुलाबी और चिकना रहता था | उनको सरकारी आवास मिला था उनके आवास और  स्कूल के बीच में सड़क थी सामने में रोड और उसके पार पुलिस थाना | पांच मिनट के रिसेस में हम सखियाँ सड़क पार करके उनके घर में यह देखने जाती थीं कि वे कौन से साबुन से नहाते हैं जिसकी वजह से उनका पैर इतना गुलाबी रहता है |  
दरअसल जब ठंडी के दिन आते तो हमारे समय में कोंडागांव में ठंडी शिमला के ठण्ड की तरह ही होती थी हमारे सभी भाई बहनों के पैर एकदम फटते रहते | मेरे पैर तो बहुत ज्यादा फटते | क्योंकि तब आज की तरह न तो बाडी लोशन न ही कोई अन्य क्रीम न बोरोलीन न बोरोप्लस यदि कुछ रहा भी हो तो मुझे तो पता नहीं और हम भाई - बहनों के लिए असंभव ही था क्योंकि हम बहुत ही गरीब किसान के बच्चे थे | हाँ हमारे लिए उपाय होता था गाय का गोबर ! रविवार के दिन गाय के गोबर का लेप पैरों में पिंडली के आते तक गीला-गीला लगाकर बैलगाड़ी में पैर लटकाकर धूप सेंकते बैठते | मेरा दावा है मेरे फेसबुक के किसी भी मित्र ने इस तरह के उपाय नहीं किए होंगे | जब पैर काफी देर तक भीगा रहता तो उस गोबर को धोकर खपरे के टुकड़े से फटे पैरों को घिसते पैर भीगे होने से अच्छे से साफ़ हो जाता  फिर नहा धोकर उसमें तेल लगाते |  जब हम नहाने के बाद हाथ और पैरों में टोरा का तेल लगाते तो चलने पर पुनः-पुनः उसमें धूल चिपक जाया करता था | हमने कभी भी अपने माँ–बाबा से अभावों का रोना नहीं रोया | स्कूल भी हम भाई बहन बिना जूता-चप्पल के जाते थे हमारे आधे से ज्यादा सहपाठी भी बिना जूता-चप्पल के ही आते थे | न अभावों का रोना  न ही कोई शिकायत ही की जो मिला उसी में संतुष्ट रहते |
शेष फिर -----

संस्मरण—2---- कोंडागांव बस्तर ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


संस्मरण—2----
 कोंडागांव बस्तर  ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव

कक्षा दूसरी में --कक्षा दूसरी में मैं जब पढ़ रही थी हमारे कक्षा शिक्षक थे प्रभात कुमार झा जी | उनका परिवार बिहार से आया था, सरगीपाल पारा में उनका मकान था | झा गुरूजी बड़े ही सरल सहज इंसान लगते थे | हमारा स्कूल चूँकि पहली से पांचवी तक ही था अतः पाँचों कक्षाएं ठंडी के दिनों में शनिवार को बाहर धूप में किसी पेड़ के नीचे ब्लेक बोर्ड लगाकर ली जाती थी |एक बार की बात है ठंडी के दिन थे हमारी क्लास स्कूल के बाहर धूप में लगाईं गई थी वहीँ टाटपट्टी  लगाकर हम लोग बैठे थे शनिवार का दिन होने से सुबह की कक्षा थी |तब झा गुरूजी ने हमें हू हू देवता की कहानी सुनाई थी जो हंसी से भरपूर थी बचपन की सुनी हुई वह कहानी आज भी विचारों के साथ मन के किसी कोने में विचारों का तानाबाना बुनता है | कहानी मुझे पूरी तो याद नहीं किन्तु इतना स्मरण है कि एक साधु गाँव में आता है, ठंडी के दिन, पतियों को तो रात में तालाब स्नान करके आने को कहता है और पत्नियों से कहता है कि घर में जब रात को हू हू देवता आयेंगे तो उनकी डंडे से खूब पिटाई करना | पति लोग जब ठंडे पानी में तालाब स्नान करके आते हैं और आवाज़ लगाते हैं तो ठण्ड के मारे उनकी आवाज़ निकलती नहीं और वे हू हू, हू हू करने लगते हैं पहले से छुपाकर रखे हुए डंडे से पत्नियां दरवाजा खोलकर पतियों की पिटाई करती हैं बस कहानी इतनी ही हुई थी पूरे क्लास में बच्चों की हंसी, कि स्कूल की छुट्टी की घंटी बज गई और वह कहानी अधूरी रह गई | बचपन में सुना था इसलिए अभी बहुत कुछ छूट रहा है पर अंत अधूरा रह गया इतना याद है | इसलिए शायद मैं झा गुरूजी को कभी भूल नहीं पाई |
शेष फिर -----

संस्मरण—1----कोंडागांव ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव


21-05-2019
संस्मरण-1---
कोंडागांव ---- बात उन दिनों की ---------जनपद प्राथमिक शाला कोंडागांव
             घर में भाई बहनों में मैं सबसे छोटी थी | हमारे ज़माने में 6 साल की उम्र से पहले स्कूल में भरती नहीं करते थे, इसके अलावा हाथ को सर के ऊपर से लेकर कान छूना होता था जो कि मेरा हाथ वहां तक पहुँचता नहीं था  | इस तरह स्कूल में भरती  करने के कुछ नियम कानून होते थे जिसमें मैं पूरी तरह ख़ारिज हो गई थी |   तब मैं सिर्फ पांच साल की थी  इसलिए मेरे बाबा ने मुझे स्कूल में एडमिशन नहीं करवाया परन्तु मुझे स्कूल जाने का इतना चाव था कि मैं अपने छोटे भैया मनीशंकर के साथ ही उसके पीछे-पीछे स्कूल जाती | माँ ने मुझे एक कपड़े के थैला में एक स्लेट और पेन्सिल दे दिया था | जिसे कंधे पर टांगकर मैं भैया और उनके सहपाठियों के साथ स्कूल जाती |
    स्कूल में प्रार्थना होने के बाद मैं भैया के साथ जाकर बैठ जाती | तब स्कूल के  प्राचार्य थे शिव कुमार पाण्डेय | बहुत ही सामान्य कद काठी के व्यक्ति, उनका हुलिया कुछ ऐसा था कि उनके सामने के दो दांत चूहे के दांतों की तरह बड़े-बड़े जो कि होंठ बंद करने के बाद एकदम बाहर को निकले होते थे | पीठ पीछे बच्चे सभी उन्हें दतला गुरूजी कह कर ही संबोधित करते थे | बाल छोटे-छोटे और पीछे एक चुटिया लम्बी सी जो उनके पंडित होने  की निशानी थी | पतले-दुबले धोती कुरता पहने होते जरा झुक कर चलते थे | बच्चे उन्हें देखकर भय खाते थे | मगर पता नहीं क्यूँ मुझे उनसे जरा भी डर नहीं लगता था | बल्कि गुस्सा आता था कारण --- कारण यह कि वे थोड़ी देर बाद आते और मुझसे मुखातिब होकर कहते ---ऐ लड़की तेरा नाम नहीं लिखा है जा तू घर जा | नन्हीं सी उम्र नन्हीं समझ किन्तु मुझे उनका हिकारत से भरा यह स्वर जिसमें ‘ऐ लड़की’ कहना ज़रा भी नहीं भाता था आज भी याद करती हूँ तो बुरा लगता है | ये जो बालमन है ना सचमुच कुम्हार के मिटटी के घड़ने के जैसा है न जाने क्यूँ बचपन से ही मैं उन्हें  --न मान सकी |
    मैं उठकर बाहर निकल कर कंधे में बस्ता टांगकर स्कूल से लगभग आधे पौन  किलोमीटर की दूरी रोते हुए ही तय करती और जैसे ही घर में पहुंचती बाहर से ही माँ को आवाज़ देते हुए माँ माँ वो (---सात्विक गाली---) दतला गुरूजी मोला स्कूल ले निकराय दईस | माँ मनाती तो मैं थोड़ी देर में भूल जाती किन्तु दूसरे दिन फिर वही प्रक्रिया | सब के साथ नहा धोकर तैयार स्कूल जाने को | यही क्रम लगातार दो सप्ताह तक चलता रहा मैं रोज जाती रोज क्लास से निकाली जाती रो रोकर घर आती तब माँ ने परेशान होकर बाबा से कहा | बच्ची को स्कूल जाने का, पढ़ने का इतना शौक है इसे भरती क्यूँ नहीं करा देते | 
          बाबा मुझे अपने साथ लेकर स्कूल गए मैं बहुत खुश कि आज मुझे बाबा भरती करेंगे लेकिन वहां जाने के बाद फिर एक झटका लगा| वहां बैठे थे मेरे सहिनाव बाबा के लड़के जिनका नाम था निरंजन सिंह ठाकुर सब उन्हें निरंजन गुरूजी कह कर ही संबोधित करते थे | बाबा का वे बहुत आदर करते थे | दरअसल हमारे ज़माने में रिश्तों की जो अहमियत होती थी वो आज हमारे द्वारा ही विभ्रंश किया जा रहा है |
     निरंजन गुरूजी यानि मेरे दादा (भैया) के बाबूजी और मेरे बाबा का नाम एक ही था रतनलाल हम देवांगन थे वे ठाकुर | सरनेम चाहे जो भी हो नाम यदि एक है तो वे दोनों सगे भाई की तरह हुए | यानि दोनों में रक्त संबंधों की तरह जुड़ाव | भाई-भाई की तरह ही, तब हम उन्हें सहिनाव बाबा कहेंगे उनके बच्चे हमारे सगे भाई बहनों की तरह होंगे और वे भी हमारे बाबा को सहिनाव बाबा ही कहेंगे |  इस सम्बन्ध में जाति-पांति, अमीर-गरीब, उम्र, कोई मायने नहीं रखता |

   अब बात स्कूल की-- तब निरंजन गुरूजी ने बाबा को समझाया कि इसकी उम्र भी कम है और इसका हाथ भी नहीं पूरता कान तक तो अब क्या करें ? उम्र बढ़ाकर इसको भरती कर देते हैं | बाबा ने कहा हाँ बेटा कर दे जैसे भी हो कर दे | स्कूल आने के लिए ये बहुत परेशान करती है बहुत शौक है इसे पढ़ने का |  उस दिन तारीख 15 जुलाई थी सो एडमिशन के अनुसार मेरा जन्म 15 जुलाई को हुआ और पांच की जगह मेरी उम्र 6 कर दी गई | संयोग से मेरा असली जन्म 13 जुलाई यानि 2 दिन पहले ही होता था यदि उस समय 13 जुलाई ही कर दिया जाता तो शायद अलग –अलग जन्मदिन नहीं होता |मुझे अच्छे से स्मरण तो नहीं किन्तु कक्षा पहली में शायद निरंजन गुरूजी ने ही हमारी क्लास ली थी | और इस तरह एक वर्ष मेरी उम्र बढ़ाकर मुझे कक्षा पहली में पढ़ने का अवसर प्रदान किया गया |
शेष फिर -----