Friday, February 5, 2016

चलचित्र -"पेंग तुपकी ढोल मांदर "

मुक्तक -"नारी"

" नारी "

एक खूबसूरत एहसास है नारी,
इच्छाओं की प्यास है नारी,
जीवन के इस वातायन में,
प्यार भरा मधुमास है नारी ॥ 

लेख-''छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति एवं उसका भाषा माधुर्य''

''छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति वं उसका भाषा माधुर्य''
§  लेख- शकुंतला तरार 

   आदिकाल से ही प्रकृति की लोक लुभावनी रम्य छटा नीलेनीले अम्बर, चन्द्रमा की शीतल चांदनी,  झिलमिलाते तारे, पेड़ - पौधों की रियालीरंग बिरंगे फूलनदी-नालेपर्वतझरनेबादल वर्षा, विराट जंगल, पर्वत श्रृंखलाएं, पक्षियों की चहचहाहट,  ्रमरों का सुर से सुर मिलानान्द्रधनुषी सप्त रंग, चारों ओर बिखरा माधुर्य और सौन्दर्य मानवीय भावनाओं को झंकृत करने में सक्षम है | कहीं रहस्यात्मक अनुभूति तो कहीं प्राकृतिक उल्लास की गहरी छाप और इसी अनुभूति उल्लास की आल्हादकारी अभिव्यंजना के मध्य पुष्पित पल्लवित होती ै यह छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति |
     लोक संस्कृति चाहे किसी भी प्रदेश की हो उसका संरक्षण, संवर्धन लोक कलाओं के माध्यम से होता है।  लोक साहित्य की परंपरा मौखिक होती हैवह क्षेत्रीय भाषा के सहारेविगत के सहारेपीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए शब्द मञ्जूषा में कैद होकर भविष्य के लिए सुरक्षित, संरक्षित होता है तथा यह देश काल परिस्थितियों के अनुसार निरंतर विकसित होता है| जीवन यापन, जीविकोपार्जन, कार्य कलाप संघर्ष, दुःख पीड़ा, तनाव आदि समस्याओं से मुक्त होकर एक पारिवारिक एवं स्वच्छंद वातावरण में आनंद और उल्लास के साथ शनै-शनै विकसित होकर पुष्पितपल्लवित होता है यही उसका उज्ज्वल पक्ष है।
      जब हम छत्तीसगढ़ की संस्कृति की बात करते हैं तब हम स्वभावतः उन क्षेत्रीय परम्पराओं की ओर आकर्षित होते हैं जिनमें यहाँ के रीति-रिवाज़ परम्पराएँ, उत्सव , व्रत,त्यौहार, कर्मकांड, वेशभूषा एवं बोलियाँ सभी सम्मिलित होते हैं जो छत्तीसगढ़ की संस्कृति को एक मानक स्वरूप प्रदान करते हैं |
     छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य में यहाँ के रीति-रिवाज़ एवं संस्कारों की अहम् भूमिका है जंत्र-मन्त्र, टोना-टोटका, का अधिकाधिक प्रयोग ग्रामीण अंचलों में देखने को मिलता है।  संभव है कि आदिकाल से ही मानव ने अपने मन में छुपे हुए भय के कारण ही यह मार्ग अपनाया होगा जो कि आज हमारे सम्मुख अंधविश्वास के रूप में खड़ा है | वैसे इतिहास के पन्ने यदि हम पलटकर देखें तो हमें ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से ही मानव सहनशील एवं परिश्रमी रहा है | वैदिक काल से ही चली आ रही तपोवन संस्कृति नेऋषि-मुनियों की तपोभूमि कोलोक परंपरा कोपथप्रदर्शक के रूप में अग्रेसित किया है | तभी तो द्वारकाधीश होने पर भी कृष्ण को ब्रज नहीं बिसरता | उनकी लीलाएँ, ललित कलाएँ, लोक कला ही तो हैं।  राम को अपना रामत्व विभिन्न लोक समुदायों के बीच ही प्राप्त होता है| तुलसी की चौपाइयाँ सूर और कबीर के पद लोगों की जुबान पर ऐसे बस गए जैसे वे बहुत शिक्षित हों किन्तु जिन्हें अक्षर का तनिक भी ज्ञान  नहीं। तभी तो तुलसी कहते हैं -----

लोकहूँ वेद विदित सब काहू |
लोकहूँ वेद सुसाहिब रीति ||
      अर्थात --जहाँ लोक की रीति ही सुसाहिब की रीति है यानि लोक के मानदंडों से ही कोई  सुसाहिब हो सकता है, होता है जहाँ रीति का निर्धारण लोक का वेद करता है साहिब नहीं| वेद, पुराण, महाभारत, रामचरित मानस, यहाँ तक की अभिज्ञान शाकुंतलम और मेघदूत सब वन में वास करने वालों के द्वारा रचे गए | श्रीरामचंद्र जी जब तक इस संसार में रहे अधिकतर समय वनवासियों के साथ ही रहे, फिर चाहे वह गुरुकुल हो या वनवास का समय या फिर शासन काल में हनुमान जी का साथ रहा हो |
     विराट महानदी-चित्रोत्पला की कल-कल पावन धारा के तट पर स्थित शिवरीनारायण रामायण के युग की याद दिलाता है वहीँ श्री कृष्ण लीला पर खेली जाने वाली रास  जिसे हम   रहस के नाम से संबोधित करते हैं ग्राम नरियरा की पहचान बन चुका है।  रावत  नाच बिलासपुर, तो ककसाड, लेजा, मारी रोसोना, चईत परब बस्तर की विशेष पहचान है वहीं,  सरहुल सरगुजा तथा  कर्मा, ददरिया, सुवा, समस्त छत्तीसगढ़ की पहचान है, तो पंथी नृत्य -गीत जाति विशेष को रेखांकित करता है |
     अतः लौकिक, पारलौकिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामजिक क्षेत्र का मानव मन जो प्रभाव ग्रहण करता है और उसे आत्मसात करता है वहीँ पर संस्कृति का निर्माण होता है।  छत्तीसगढ़ की संस्कृति में कलात्मकता की भावना पग-पग पर दृष्टिगोचर होती है | भाषा का माधुर्य इतना प्रबल है कि आज पूरे विश्व में छत्तीसगढ़ के लोक साहित्य के प्रति सभी का आकर्षण बना हुआ हैयहाँ की संस्कृति अति प्राचीन है किन्तु लिखित साहित्य की कमी अभी भी खटकती है | हमारा  लोक संगीत अभी भी गतिशील है | यहाँ लोक साहित्य, लोक संगीत, लोक नृत्य-गीत, लोक कलाएँ यानि कि ललित कलाएँ समृद्धि एवं सामर्थ्य से परिपूर्ण हैं  अतिथि देवो भव से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ में विनम्रता, निश्छलता,सहनशीलता जहाँ कूट-कूट कर भरी हुई है वहीँ सरलता और शालीनता की शीतल-शीतल छाँव के तले मेहमान की आत्मा स्वयं धन्य हो उठती है | गाली देने में भी यहाँ शिष्टता का ही आभास होता है | यहाँ  के लोक जीवन की अपनी अलग विशिष्टताएं हैं जिनमें रहन-सहन, खान-पान, पहनावा में सादगी है तो वहीँ कृषि संस्कृति से भरपूर यह धान का कटोरा परम्पराओं और विश्वासों की संस्कृति  है |
    
शकुंतला तरार
 प्लॉट न॰ 32, सेक्टर-2, एकता नगर, गुढ़ियारी रायपुर (छत्तीसगढ़)
मो- 09425525681, 07770810556

लेख-"बस्तर की बोलियाँ,लोक गीत और साहित्य"

"बस्तर की बोलियाँ,लोक गीत और साहित्य"
v शकुंतला तरार
     1938 में लिखी गई "माड़िया गोंड्स ऑफ़ बस्तर ' नामक ग्रियर्सन की किताब की भूमिका में एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख मिलता है जो बस्तर की 36 बोलियों का जानकार था| इससे यह ज्ञात होता है कि समग्र बस्तर में जो उस समय कांकेर से लेकर कोंटा तक था और आज भी है, 36 बोलियाँ व्यवहृत होती थीं| वर्तमान समय में गोंडी,माड़ी, हल्बी, भतरी, परजी, दोरला, छत्तीसगढ़ी और उड़िया मुख्य बोलियाँ हैं|
      बोलियों पर मैं बात करूँ उससे पहले यह जानना अति आवश्यक है कि बस्तर में छत्तीसगढ़ी का प्रवेश कैसे हुआ| एक तो व्यापारी वर्ग के द्वारा , दूसरे तत्कालीन सरकारी सेवक तीसरे परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने पर और सबसे बड़ा कारण था रेडियो|
      आकाशवाणी रायपुर की स्थापना के बाद छत्तीसगढ़ी का प्रवेश बस्तर में बहुत ही तीव्रता से हुआ, इसका अर्थ यह है कि मनोरंजन के माध्यम से- कर्णप्रिय संगीत, विविध धुनों में लोक संगीत , सिनेमाई संगीत, प्रहसन नाटक आदि प्रसारित होते थे, जिसे सब सुना करते थे| इसके अलावा उच्च शिक्षा के तहत विद्यार्थियों का बस्तर से बाहर रायपुर की ओर आने-जाने का क्रम, साथ ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति के कारण भी छत्तीसगढ़ी भाषा बस्तर में निरंतर प्रविष्ट होती रही | इसके विपरीत उसी तीव्रता के साथ हल्बी का इस क्षेत्र में विस्तार नहीं हुआ, यह अपने क्षेत्रीय सीमा तक ही सीमित रहा| शासन द्वारा इसके प्रचार-प्रसार के लिए किसी भी प्रकार का उपक्रम का उस अवधि में अभाव रहा है जिससे कि बस्तर की बोलियाँ प्रश्रय नहीं पा सकीं और आज भी स्थिति वही है और ये बोलियाँ उपेक्षित हैं| जबकि स्थानीय साहित्यकारों एवं बुद्धिजीवियों द्वारा छुटपुट प्रयास होते रहे हैं|दण्डकारन्य समाचार पत्र ने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास अवश्य किया है वहीँ 1908 में  पं. केदारनाथ ठाकुर की  "बस्तर भूषण" नामक शोधपरक किताब प्रकाशित हुई | ठाकुर पूरन सिंह की "हल्बी का व्याकरण" हल्बी, हिंदी और अंग्रेजी तीनों भाषा बोलियों में प्रकाशित हुई |
      रामचरित मानस चतुश्शताब्दी समारोह के अवसर पर प्रो. हीरालाल शुक्ल के द्वारा बस्तर अंचल में बोली जाने वाली हल्बी, गोंडी तथा माड़ी भाषा में स्थानीय लेखकों द्वारा रामायण से सम्बंधित रचनाओं का प्रकाशन कर उक्त भाषाओं के उन्नयन की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किया गया जो कि भोपाल संवाद से प्रकाशित एक स्तुत्य कार्य था, अप्रत्यक्ष रूप से अंचल के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ|
      मध्यप्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित " बस्तर लोक कला संस्कृति'' लाला जगदलपुरी द्वारा लिखित पुस्तक है जिसके पृष्ठ 17 पर उन्होंने जानकारी दी है कि "-बस्तर संभाग में कोंडागांव, नारायणपुर, बीजापुर, जगदलपुर और कोंटा तहसीलों में तथा दंतेवाड़ा  में दंडामी माड़िया, अबूझमाड़िया, घोटुल मुरिया, परजा-धुरवा और दोरला जनजातियाँ आबाद मिलती हैं और इन गोंड जनजातियों के बीच द्रविड़ मूल की गोंडी बोलियाँ प्रचलित हैं| गोंडी बोलियों में परस्पर भाषिक विभिन्नताएं विद्यमान हैं| इसीलिए गोंड जनजाति के लोग अपनी गोंडी  बोली के माध्यम से परस्पर संपर्क साध नहीं पाते यदि उनके बीच हल्बी बोली न होती | भाषिक विभिन्नताओं के रहते हुए भी उनके बीच परस्पर आंतरिक सदभावनाएँ मिलती हैं| इसका मूल कारण है हल्बी | अपनी इसी उदात्त प्रवृति के कारण ही हल्बी भूतपूर्व रियासत काल में बस्तर राज्य की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही थी| और इसी कारण आज भी बस्तर संभाग में हल्बी एक संपर्क बोली के रूप में लोकप्रिय बनी हुई है|   
      प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल ने गोंडी, हल्बी आदि भाषाओं के गीतों का- भाषा शास्त्रीय, संगीत शास्त्रीय वैज्ञानिक अध्ययन कर अपनी किताब "आदिवासी लोक संगीत" में प्रकाशित किया है जो इस क्षेत्र में संभवतः प्रथम प्रयास है| वहीँ बस्तर रेडियो स्टेशन के स्थापित होने के पश्चात बस्तर की क्षेत्रीय भाषाएं, आकाशवाणी के माध्यम से फैलने के लिए, सीखने-समझने के लिए, रूचि जाग्रत करने के लिए मनोरंजन का अच्छा साधन सिद्ध हुई हैं |एक समय ऐसा भी था जब बस्तर क्या अन्य प्रान्तों के श्रोता भी हल्बी गीतों की फरमाईश करते थे| मेघनाथ पटनायक द्वारा गाया गया यह गीत काफी लोकप्रिय हुआ था -
आया मोचो दंतेसरी बुआ भैरम आय
भाई दंडकार बईन इन्दाराबती सरन सरन
तुमके सरन सरन आय
मयं आयं बस्तर जिला चो आदिबासी पिला
बैलाडीला बैलाडीला, ने अपार लोकप्रियता पाई–

वहीँ विभिन्न तरह से गाया जाने वाला लोक गीत ''लेजा'' बस्तर में आज भी काफी लोकप्रियता के  चरम शिखर पर है- जैसे-
1 -   लेजा लेजा लेजा दादा लेजा केंवरा
घोटिया मंडई जायेंदे दादा पयसा देऊरा
काय लेजा रे होय दादा पयसा देऊरा |
2-सुका सिंयाडी भेलवां लसा डोबरी खाले चो आय

      वर्तमान समय में  हल्बी के साहित्य में छत्तीसगढ़ी का सम्मिश्रण अधिक होने लगा है उनके विषय जो मंडई, हाट-बाजार, शादी-ब्याह, जन्म-मरण तक ही सीमित होते थे अब उसमें छत्तीसगढ़ी, हिंदी के साथ ही अंग्रेजी के भी शब्द आ गए हैं  उदा. देखिये -
रेलोओओ रेरेलोयो रेलो रेरेला रेलाआआ
सिंगी बांगा  जोपा परेसे
ओंदे बाबू सिंगी बांगा  जोपा परेसे
जोपा के दखुन टोड़से ना
ओंदे बाबू जोपा के दखुन टोड़से ना
लाईट दखुन साईट मारसे
ओंदे बाबू लाईट दखुन साईट मारसे
रेरेलोयो रेरेला रेलोओओ रेरेलोयो रेरेला

      आज तुकबंदी के कारण अंग्रेजी, छत्तीसगढ़ी, हिंदी, उड़िया आदि स्वतः ही इन गीतों में प्रश्रय पा रहे हैं गाने वाले को यह नहीं पता कि यह किस भाषा के शब्द हैं | दरअसल हल्बी बोली अभूतपूर्व है महाराष्ट्र का व्यक्ति यदि हल्बी सुनता है तो उसे इस  भाषा में आत्मीयता का आभास होता है तो ओड़िया भी हल्बी-भतरी से प्रभावित होता है एक छत्तीसगढ़िया व्यक्ति के लिए भी भाषा का माधुर्य प्रभावित करता है |
      वर्तमान समय में बस्तर की बोलियों  में पूर्व प्रकाशित हल्बी, गोंडी भाषा की कुछ सांस्कृतिक किताबों का पुनर्मुद्रण संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन द्वारा करवाया गया है. जो कि  शासन का स्तुत्य प्रयास है और आने वाले समय में लोक भाषाओँ का भविष्य निश्चय ही उज्जवल होगा ऎसी उम्मीद की जा सकती है|
      हल्बी में प्रकाशित साहित्य यद्यपि  विपुल संख्या में नहीं है परन्तु इस दिशा में अब जागृति उत्पन्न हो रही है. हरिहर वैष्णव द्वारा प्रकाशित बस्तर की लोकगाथा "धनकुल जगार" हल्बी को स्थापित करने, उसके उन्नयन की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है | इसकी एक झलक -
आया बालें मयं दंतेसरी
आया बालें मयं दंतेसरी
जगार नेवता पड़े परभू
जगार नेवता पड़े
बाटे आसे मोर नौंदेल कुंआ
बाटे आसे मोर नौंदेल कुंआ
पांय पखारी आव दाई
पांय पखारी आव

      इसके अलावा बस्तर में काम करने वालों में लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव अग्रणी पंक्ति में आते हैं. वहीं शकुंतला तरार द्वारा संकलित बस्तर की  लोक कथाएं हिंदी में प्रकाशित है तो "रांडी माय लेका पोरटा" के नाम से गेय लोककथा का संकलन कर उसका हल्बी से हिंदी और छत्तीसगढ़ी में शब्दशः अनुवाद करके पाण्डुलिपि प्रकाशन हेतु तैयार किया गया है | साथ ही हल्बी भतरी के लोक गायक, भजन गायक, रामायण के टीकाकार रतनलाल देवांगन एवं उनकी धर्मपत्नी जमना बाई देवांगनकोंडागांव के  द्वारा सुनाये गए और गाये  गए हल्बी-भतरी के लोक गीतों और लोक कथाओं का संकलन करके उसका भाषाशास्त्रीय परिचयप्रकाशन हेतु तैयार किया गया है आवश्यकता है तो सिर्फ एक प्रकाशक की | एक बाल साहित्य जो कविताओं पर केन्द्रित है, तथा एक 100 लेजा गीत प्रकाशन को तैयार है|
      हीरालाल शुक्ल द्वारा लिखित और लाला जगदलपुरी द्वारा अनुदित हल्बी रामायण के एक भाग में "सीता बिहा" नाम से गिरधारी लाल रायकवार ने नाटक की रचना की है| इसी तरह छुटपुट साहित्य के रूप में बस्तर की बोलियों के लिखित साहित्य हमारे  बीच यदाकदा दिख जाते हैं|  हरिहर वैष्णव ने ककसाड नामक एक लघु पत्रिका का सम्पादन किया था |वहीँ जगदलपुर से हल्बी गीतों कविताओं का संकलन ''चिड़खा'' के नाम से प्रकाशित हुई है|
      बस्तर चूँकि तीन प्रान्तों से घिरा हुआ है अतः दक्षिण बस्तर में भोपालपट्टनम,कोंटा आदि क्षेत्रों में दोरली बोली जाती है जिसमें आंध्रप्रदेश से लगे होने के कारण तेलुगु का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है| दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा दण्डामी बोली का क्षेत्र है| जगदलपुर, दरभा, छिन्द्गढ़ धुरवी बोली का क्षेत्र है| कोंडागांव क्षेत्र केमुरिया अधिकतर हल्बी बोलते हैं | नारायणपुर घोटुल मुरिया और माड़िया क्षेत्र है|वर्तमान समय में गदबा बोली विलुप्ति का दंश झेल रहा है |
      हल्बी बोली में जहाँ उड़िया,मराठी और छत्तीसगढ़ी के शब्द पाए जाते हैं तो भतरी उड़िया से प्रभावित है|बस्तर की खासियत यह है की यहाँ की बोलियाँ आपस में संवाद करती हुई मालूम होती हैं| वे कहती हैं हम सब आपस में सगी बहनें हैं क्यूंकि हमारा जन्म बस्तर की माटी में हुआ है| जिस तरह नदी अपने साथ छोटी-छोटी नदियों को लेकर एक बड़ी नदी का रूप धारण करती है उसी तरह हमारी भाषा और बोलियाँ हैं | यदि बोलियाँ समृद्ध होंगी तभी भाषा मजबूत होगी हमारी बोलियाँ मिलजुल कर राजभाषा, राष्ट्रभाषा को समृद्ध करेंगी|
      बस्तर के बारे में यह कहावत सही मालूम होती है कि कोस-कोस में पानी बदले चार कोस में बानी| जैसे ही हम चारामा की सीमा में प्रवेश करते हैं छत्तीसगढ़ी का वो शब्द जैसे- कोन  डाहर जावत हस - वह हो जाता है कोन राहा जा-थस- फिर जैसे ही हम केशकाल की घाटी पार करते हैं बस्तरिया शुरू हो जाता है और वह कोंडागांव से लेकर जगदलपुर, नारायणपुर, दंतेवाडा सभी जगह  चलता है जैसे - कोन बाटे जाथस, हल्बी में - कोन बाटे जासीत, भतरी - कोन बाटे जायसी आची वहीँ जातिगत बोली कोष्टा में - केते जथास हो जाता है |
      जब हम साहित्य की बात कर रहे हैं तो उन लोक गीतों को बिसरा नहीं सकते जो, निश्चल भावनाओं  से ओतप्रोत, सुमधुर कंठों से गुंजित होने वाले शब्दों की ध्वनियों, प्राकृतिक सौंदर्य से निकली बस्तर की मीठी-मीठी बोलियों से गुंजायमान होती हैं|लेजा, झालियाना, मारीरोसोना, परब नृत्य गीत, ककसाड़, रीलो, करमा बस्तर के प्रमुख लोक गीत विधा हैं जिनमें बोलियों की मिठास झलकती है- चांदनी रात में जब परब नृत्य गीत में युवक-युवतियों का दल झूमने लगता है --
1-नंदी कठा-कठा गागुआय रे बगनी बागो,
गागुआय रे बगनी बागो,
धान मिरी बड रागो दादा
जानी चीनी करी लागो--
2-डाल खाई रे आँखी मारी दिले बायले मिरे
आया बूबा नाँई  मिरे डाल खाई रे
डाल खाई रे मैना
आया बूबा नाँई  मिरे --
उसी तरह पौष पूर्णिमा के दिन गाया जाने वाला छेरता गीत –
झिरलीटी- झिरलीटी
पंडकी मारा लिटी रे
नकटा छेर छेर –

      लोक, लोक चेतना और उससे उपजी संस्कृति किसी भी सभ्यता की, किसी भी साहित्य की परिचालक शक्ति होती है. जो साहित्य अपने लोक की चेतना और संस्कृति से जितना जुड़ता है उतना ही वह सच्चा और प्रतिनिधि होता है उतना ही लोकव्यापी व कालजयी होता है अपनी लोक संस्कृति का सच्चा प्रतिरूप होने की वजह से तुलसी की चौपाईयां, सूर और कबीर के पद ऐसे लोगों के होठों में बस गए जिन्हें अक्षर का भी ज्ञान नहीं है | वह शायद इसलिए कि उन्होंने इसे अपनी भाषा-बोली में लिखा ठीक उसी तरह बस्तर की लोक बोलियाँ हैं जो किसी अन्य भाषा बोलियों की बैसाखी लिए बिना आज भी निरंतर गतिमान हैं| इन्हें संजो कर रखना ही होगा अन्यथा बस्तर की लोक बोलियाँ कब विलुप्त हो जाएँगी हमें पता भी नहीं चलेगा |
                                                                       
                                                                   शकुंतला तरार
                                           प्लाट न.-32, सेक्टर-2, एकता नगर,
                                                            गुढ़ियारी, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                                                      मो.-09425525681, 07770810556,

लेख-‘‘बस्तर – घोटुल गुड़ी का सौंदर्य और आदिवासी नारी’’

‘‘बस्तर – घोटुल गुड़ी का सौंदर्य और आदिवासी नारी’’
     नैसर्गिक सौंदर्य के मध्य आदिम सभ्यता के सानिध्य में पुष्पित पल्लवित होता हुआ वह बस्तर, जिसके हृदय में सरलता, सौम्यता का विशाल सरगी वन है, उसे इक्कीसवीं सदी तक आते –आते कई वर्ष लग सकते हैं। धन्य है उस माटी  को जो छल-छद्म से कोसों दूर निश्छल जीवन के हिंडोले भरता चाँदनी रात में घोटुल गुड़ी में पलता है, खेलता है, कूदता है, झूमता है, गाता है, मचलता है, इतराता है, और रचता है एक नया इतिहास। उसी घोटुल गुड़ी के आँगन मे बनते हैं जोड़े। कहते हैं की जोड़ा ऊपर से बनकर आता है जिसे ईश्वर ने सबके लिए नियत करके रखा हुआ है । अब जोड़ा ऊपर से बनकर आता है या  नहीं यह तो चर्चा का विषय है किन्तु बस्तर में जोड़ा घोटुल गुड़ी में  बनता है, जब चाँदनी रात में अविवाहित युवकों-युवतियों की टोली बाहों मे बाहों  डाले झूमते हैं, थिरकते हैं, एक दूसरे के साथ हँसी –ठिठोली करते हुये गीतों की शृंखला में आबद्ध हो जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे बागों मे कुसुम दल खिले हुए हैं, ताल- तलैया पोखरों मे कमलिनी, खिलकर मंद मंद मुस्कुरा रहे हों और उसके चारों ओर भँवरे मंडरा रहे हों भून-भून करते हुए। इसी गुनगुनाहट मे काव्य की वह सहज अभिव्यक्ति होती है की, व्यक्ति व्यक्ति न रहकर प्रेमी हो जाता है और स्वयं को स्वर्गलोक की अलौकिक आयानंददायक स्थिति मे पाता है। बरबस ही वह गुनगुनाहट शब्द का रूप ले लेते हैं और सुनाई दे जाते हैं गीतों के मधुर-मधुर से बोल।
     ठीक उसी तरह चाँदनी रात मे जब चईत परब नृत्य में युवक युवतियों का दल झूमता है तब नारी की प्रशंसा में जो गीत गाये जाते हैं उसके बोल कुछ इस तरह कि—
सुका सींयाड़ी भेलवाँ लसा डोबरी खाले चो आय
डंडकी दखून मुचकी मारे खोदरी गाल चो आय
लेजा रे  होय पापा खोदरी गाल चो आय
     ओह! क्या होता है नारी मन! कैसी होती है युवती जिसकी तुलना जंगल में होने वाले सींयाड़ी के फल से की गई है वह सींयाड़ी का फल जो सूख जाने की बाद अब खाने के लायक हो गया है और वह भेलवाँ भी हो गया है जिसका पका हुआ फल खाया जाता है किन्तु फल के नीचे का बीज वाले भाग से चिपकाने वाला लसा निकलता है अर्थात वह जंगली बेल वाला फल जो ऊपर से सख्त और भीतर से कोमल है वह चिपकने वाले गोंद की तरह मुलायम है, जो तालाब के उस पार रहती है , मैं जब उसे देखता हूँ तो वह मुस्कुरा देती है तब उसके गालों पर पड़ने वाले गड्ढों को देखकर मैं भौंचक्क रह जाता हूँ और बरबस मेरे मुँह से निकलता है..... सुनो ऐ गालों पर गड्ढे पड़ने वाली सुंदरी ? क्या तुम मेरे साथ लेजा गीत गाना और नृत्य करना चाहोगी।
     बस्तर के लोक गीतों में जो माधुर्य भाव है, रमणीयता है उसमें  अद्भुत शब्द विन्यास का आभास होता है। बाहर से आए सैलानियों में कुछ गंदी मानसिकता वाले भी होते हैं उन्होंने घोटुल को उन्मुक्त सेक्स का अड्डा बताया है यह सत्य नहीं बल्कि उनकी गंदी नीयत और गंदी मानसिकता की उपज है।
     घोटुल छिछली भावुकता का समावेश नहीं है बल्कि गहरी और  सूक्ष्म दृष्टि से कला को निरखने का अदम्य आंतरिक प्रयास जो परस्पर ओतप्रोत है भावों की गहरी समझ से। यहाँ सहज निश्छल प्यार की लीला है, स्नेह है, शिष्ट आचरण है, एक ही शर से बिंधे प्रेमी युगल हो सकते हैं किन्तु कामुक नहीं। बनता  है तब एक जोड़ा जो घोटुल गुड़ी के गीत गाते हुए कब राधाकृष्णमय हो जाते हैं पता ही नहीं चलता । उनकी इतनी ही अभिलाषा कि चाँदनी रात में वे उस चाँद को माध्यम मानकर अपने प्यार का इजहार कर सकें और जन्म-जन्मांतर तक एक दूसरे के हो सकें।
सचमुच वह जंगली सौंदर्य होता ही ऐसा है कि प्रिय का रूप सलोना देखकर बैकुंठ की भी चाह ना रहे। चंद्रमा सा मुख सलोना, कोयल सी वाणी, हिरनी सी चंचलता बरबस ही आकर्षित कर देने के लिए बाध्य कर देती है ।
     दरअसल हमारे लोक गीत आदिम युग से चले आ रहे वे मनोभाव हैं जो पारंपरिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती चली आ रही है।  परंतु इतर संस्कृति के संपर्क संबंधजन्य विकृतियों ने इसकी जड़ों को भी हिलाना शुरू कर दिया है ।
     आवश्यकता है सतर्क होने की, बचाना है हमें इस प्राचीन संस्कृति को।  उपाय खोजते-खोजते कहीं हम इसे खो न दें।  बहुत जल्द इसके संरक्षण, संवर्धन का उपाय खोजना  होगा अन्यथा घोटुल गुड़ी और आदिवासी संस्कृति केवल किताबों में रह जाएगा संस्मरणों के रूप में| शकुंतला तरार

लेख-बस्तर दशहरा-काछिन देवी अर्थात शक्ति पूजा


3-बस्तर दशहरा-काछिन देवी अर्थात शक्ति पूजा
(सन्दर्भ-पारंपरिक बस्तर दशहरा पर्व)
शकुंतला तरार
बस्तर अंचल छत्तीसगढ़ प्रदेश का एक ऐसा भूभाग है जो न सिर्फ यहाँ निवासरत अनुसूचित जाति-जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग की जीवन शैली, धन-धान्य, खनिज सम्पदा, वन, लौह अयस्क आदि के लिए जाना जाता है अपितु विश्व में सबसे लम्बी अवधि 75 दिनों तक चलने वाले दशहरा उत्सव के लिए भी जाना जाता है | यह पूर्णतः राजनीतिकरण से दूर आंचलिक पर्व है जिसमें छुआछूत,जाति-पांति के लिए कोई स्थान ही नहीं है | गाँव अनुसार, परम्परानुसार सबके अपने-अपने काम बंटे हुए होते हैं, पूरा बस्तर संभाग इसमें अपनी सहभागिता देता है| महाराजा, माय दंतेश्वरी और बस्तर के प्रमुख बाकी सारे देवी-देवताओं के सम्मान का प्रतिनिधित्व करता है यह पर्व |
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” यह पंक्ति यहाँ एकदम सही चरितार्थ होती है | इस पर्व की सबसे बड़ी विशेषता ही यह है कि यहाँ नारी शक्ति को विशेष महत्व प्राप्त है,चाहे वह महिषासुर मर्दिनी स्वरुपा देवी दंतेश्वरी हो या दशहरा उत्सव की प्रथम पूज्या देवी काछिन हो |
लगभग छै सौ वर्ष पुरानी इस परंपरा में दस दिन के दशहरे की शुरुआत काछिन गादी की परंपरा से होता है काछिन मिरगानों की देवी है जिसे दशहरा पर्व में विशेष गद्दी प्रदान की जाती है| स्थानीय बोली में इसे गादी कहते हैं यह गादी काँटों की होती है यानि उसमें कील लगे होते हैं जिस पर देवी को आसीन किया जाता है | मिरगान जाति जो नारायणपुर जिले के निवासी  हैं,(वर्तमान समय में जगदलपुर जिले में ही स्थापित हो चुके हैं) उनकी एक कुवांरी कन्या जिसकी उम्र लगभग 7-8 साल की होती है और जिसका चुनाव इस दैवीय कार्य के लिए उनका समाज स्वयं करता है, आश्विन (क्वांर) मास की अमावस्या के दिन पूरे राजकीय परम्परानुसार ससम्मानपारंपरिक वाद्यों के साथ कन्या का स्वागत सत्कार किया जाता है| जब कन्या पर देवी स्वयं सवार होती हैं तो पुजारी द्वारा देवी को गादी में आसीन किया जाता है जहां देवी की पूजा अर्चना की जाती है तत्पश्चात देवी प्रसन्न होकर  दशहरा का पर्व मनाने की अनुमति देती है |
जिस तरह आश्विन मास की अमावस्या को काछिन देवी की पूजा आराधना से बस्तर का दशहरा  शुरू होता है उसके बाद उसी आश्विन मास के शुक्ल पक्ष 12 यानि दो दिन पश्चात् दशहरा निर्विघ्न संपन्न होने की ख़ुशी स्वरूप ससम्मान विदाई के लिए काछिन जात्रा के द्वारा देवी का गुडी के समीप स्थित पूजामंडप में आवाहन किया जाता है और  उनको सम्मानित किया जाता है |
समय बदला लोग बदले किन्तु हमारे बीच विद्यमान कुछ प्राचीन परम्पराएं, संस्कृतियाँ हैं जो आज भी लोगों को जोड़े हुए है | नारी सम्मान का प्रतिनिधित्व करता है बस्तर का दशहरा  पर्व | परंपराओं, जनभावनाओं, संस्कृतियों की रक्षा करने उन्हें  बचाए रखने के लिए शासन का अपेक्षित सहयोग भी अवश्यम्भावी है |
एकता नगर,सेक्टर-2,प्लाट न.32, गुढ़ियारी रायपुर (छ.ग.)मो-9425525681

लेख-''छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति एवं उसका भाषा माधुर्य''



''छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति एवं उसका भाषा माधुर्य''
§  लेख- शकुंतला तरार 

   आदिकाल से ही प्रकृति की लोक लुभावनी रम्य छटा नीलेनीले अम्बर, चन्द्रमा की शीतल चांदनी,  झिलमिलाते तारे, पेड़ - पौधों की हरियालीरंग बिरंगे फूलनदी-नालेपर्वतझरनेबादल वर्षा, विराट जंगल, पर्वत श्रृंखलाएं, पक्षियों की चहचहाहट,  भ्रमरों का सुर से सुर मिलानाइन्द्रधनुषी सप्त रंग, चारों ओर बिखरा माधुर्य और सौन्दर्य मानवीय भावनाओं को झंकृत करने में सक्षम है | कहीं रहस्यात्मक अनुभूति तो कहीं प्राकृतिक उल्लास की गहरी छाप और इसी अनुभूति उल्लास की आल्हादकारी अभिव्यंजना के मध्य पुष्पित पल्लवित होती है यह छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति |
     लोक संस्कृति चाहे किसी भी प्रदेश की हो उसका संरक्षण, संवर्धन लोक कलाओं के माध्यम से होता है।  लोक साहित्य की परंपरा मौखिक होती हैवह क्षेत्रीय भाषा के सहारेविगत के सहारेपीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए शब्द मञ्जूषा में कैद होकर भविष्य के लिए सुरक्षित, संरक्षित होता है तथा यह देश काल परिस्थितियों के अनुसार निरंतर विकसित होता है| जीवन यापन, जीविकोपार्जन, कार्य कलाप संघर्ष, दुःख पीड़ा, तनाव आदि समस्याओं से मुक्त होकर एक पारिवारिक एवं स्वच्छंद वातावरण में आनंद और उल्लास के साथ शनै-शनै विकसित होकर पुष्पितपल्लवित होता है यही उसका उज्ज्वल पक्ष है।
      जब हम छत्तीसगढ़ की संस्कृति की बात करते हैं तब हम स्वभावतः उन क्षेत्रीय परम्पराओं की ओर आकर्षित होते हैं जिनमें यहाँ के रीति-रिवाज़ परम्पराएँ, उत्सव , व्रत,त्यौहार, कर्मकांड, वेशभूषा एवं बोलियाँ सभी सम्मिलित होते हैं जो छत्तीसगढ़ की संस्कृति को एक मानक स्वरूप प्रदान करते हैं |
     छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य में यहाँ के रीति-रिवाज़ एवं संस्कारों की अहम् भूमिका है जंत्र-मन्त्र, टोना-टोटका, का अधिकाधिक प्रयोग ग्रामीण अंचलों में देखने को मिलता है।  संभव है कि आदिकाल से ही मानव ने अपने मन में छुपे हुए भय के कारण ही यह मार्ग अपनाया होगा जो कि आज हमारे सम्मुख अंधविश्वास के रूप में खड़ा है | वैसे इतिहास के पन्ने यदि हम पलटकर देखें तो हमें ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से ही मानव सहनशील एवं परिश्रमी रहा है | वैदिक काल से ही चली आ रही तपोवन संस्कृति नेऋषि-मुनियों की तपोभूमि कोलोक परंपरा कोपथप्रदर्शक के रूप में अग्रेसित किया है | तभी तो द्वारकाधीश होने पर भी कृष्ण को ब्रज नहीं बिसरता | उनकी लीलाएँ, ललित कलाएँ, लोक कला ही तो हैं।  राम को अपना रामत्व विभिन्न लोक समुदायों के बीच ही प्राप्त होता है| तुलसी की चौपाइयाँ सूर और कबीर के पद लोगों की जुबान पर ऐसे बस गए जैसे वे बहुत शिक्षित हों किन्तु जिन्हें अक्षर का तनिक भी ज्ञान  नहीं। तभी तो तुलसी कहते हैं -----

लोकहूँ वेद विदित सब काहू |
लोकहूँ वेद सुसाहिब रीति ||
      अर्थात --जहाँ लोक की रीति ही सुसाहिब की रीति है यानि लोक के मानदंडों से ही कोई  सुसाहिब हो सकता है, होता है जहाँ रीति का निर्धारण लोक का वेद करता है साहिब नहीं| वेद, पुराण, महाभारत, रामचरित मानस, यहाँ तक की अभिज्ञान शाकुंतलम और मेघदूत सब वन में वास करने वालों के द्वारा रचे गए | श्रीरामचंद्र जी जब तक इस संसार में रहे अधिकतर समय वनवासियों के साथ ही रहे, फिर चाहे वह गुरुकुल हो या वनवास का समय या फिर शासन काल में हनुमान जी का साथ रहा हो |
     विराट महानदी-चित्रोत्पला की कल-कल पावन धारा के तट पर स्थित शिवरीनारायण रामायण के युग की याद दिलाता है वहीँ श्री कृष्ण लीला पर खेली जाने वाली रास  जिसे हम   रहस के नाम से संबोधित करते हैं ग्राम नरियरा की पहचान बन चुका है।  रावत  नाच बिलासपुर, तो ककसाड, लेजा, मारी रोसोना, चईत परब बस्तर की विशेष पहचान है वहीं,  सरहुल सरगुजा तथा  कर्मा, ददरिया, सुवा, समस्त छत्तीसगढ़ की पहचान है, तो पंथी नृत्य -गीत जाति विशेष को रेखांकित करता है |
     अतः लौकिक, पारलौकिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामजिक क्षेत्र का मानव मन जो प्रभाव ग्रहण करता है और उसे आत्मसात करता है वहीँ पर संस्कृति का निर्माण होता है।  छत्तीसगढ़ की संस्कृति में कलात्मकता की भावना पग-पग पर दृष्टिगोचर होती है | भाषा का माधुर्य इतना प्रबल है कि आज पूरे विश्व में छत्तीसगढ़ के लोक साहित्य के प्रति सभी का आकर्षण बना हुआ हैयहाँ की संस्कृति अति प्राचीन है किन्तु लिखित साहित्य की कमी अभी भी खटकती है | हमारा  लोक संगीत अभी भी गतिशील है | यहाँ लोक साहित्य, लोक संगीत, लोक नृत्य-गीत, लोक कलाएँ यानि कि ललित कलाएँ समृद्धि एवं सामर्थ्य से परिपूर्ण हैं  अतिथि देवो भव से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ में विनम्रता, निश्छलता,सहनशीलता जहाँ कूट-कूट कर भरी हुई है वहीँ सरलता और शालीनता की शीतल-शीतल छाँव के तले मेहमान की आत्मा स्वयं धन्य हो उठती है | गाली देने में भी यहाँ शिष्टता का ही आभास होता है | यहाँ  के लोक जीवन की अपनी अलग विशिष्टताएं हैं जिनमें रहन-सहन, खान-पान, पहनावा में सादगी है तो वहीँ कृषि संस्कृति से भरपूर यह धान का कटोरा परम्पराओं और विश्वासों की संस्कृति  है |(ब्लॉग में डाल दिया है)

    
शकुंतला तरार
 प्लॉट न॰ 32, सेक्टर-2, एकता नगर, गुढ़ियारी रायपुर (छत्तीसगढ़)
मो- 09425525681, 07770810556