Sunday, February 13, 2022

शकुंतला तरार 

कोंडानार से कोंडगांव तक





कोंडागांव जिले का गठन – 1 जनवरी, 2012 को राजस्व जिला के रूप में हुआ | इसका  भौगोलिक क्षेत्रफल- 7768-907 है | जिला मुख्यालय-कोंडागांव है जिसकी जनसंख्या-लगभग 578326 है |कोंडागांव जिसका प्राचीन नाम कोंडानार था | किवदंती है कि मरार यानि पटेल समाज के लोग बैलगाड़ी से आगे जा रहे थे हो सकता है वे जगदलपुर की ओर जा रहे हों कि नारायणपुर वाले रास्ते में कंद की लताओं में उनकी गाड़ी फंस गई ( कंद की लता अर्थात कांदा नार),सो मज़बूरी में उन्हें वहीँ रात्रि विश्राम करना पड़ा | रात्रि को उनके ग्रुप के मुखिया को स्वप्न आया कि अब तुम लोग यहीं पर बस जाओ | उन्होंने उपजाऊ भूमि देखकर वहीँ पर बस जाने का निर्णय लिया और जिस गांधी चौक में गाडी फंसने का जिक्र है उसे रोजगारी पारा कहते हैं और उसके ठीक आगे नारायणपुर रोड पर  मरार पारा स्थित है अतः यह कहा जा सकता है कि कांदा नार कहते-कहते अपभ्रंश होकर कांदानार से कोंडानार नाम तभी पड़ा हो | वैसे पुराने नारायणपुर रोड जिसे बारिश के दिनों को छोड़कर लोग पैदल पार करते थे उस पर अब नया पुलिया के बन जाने से बारिश में भी आवागमन सुलभ हो गया है और यह सीधी सड़क है |

बस्तर में नार, पाल, वंड और वाड़ा नाम बहुतायत में मिलते हैं | पाल कहें तो  किलेपाल, केरलापाल केसरपाल, तोकापाल, वंड कहें तो बकावंड, चिपावंड, करपावंड आदि |  विद्वानों के मतानुसार---- वाड़ा और नार में कुछ अंतर है अर्थात सुव्यवस्थित बसाहट वाले गाँव वाड़ा कहलाते थे और अव्यवस्थित बसाहट वाले गाँव नार कहे जाते थे जैसे दंतेवाड़ा, गामावाड़ा, पुसवाड़ा |  उसी तरह नार में कोंडानार, नकुलनार, चिन्तलनार, छिंदनार आदि | कहा जाता है कि यह “नार” शब्द नागयुग का प्रतिनिधित्व करते हैं | अर्थात नार को हम नाग युगीन मान सकते हैं | प्राचीन दण्डाकारण्य का यह क्षेत्र रामायण कालीन बाणासुर का इलाका माना जाता है।

तेलुगु में कोंडा का अर्थ होता है पहाड़, नार का अर्थ होता है गाँव | अर्थात यदि तेलुगु के अनुसार हम देखें तो कोंडागांव का मतलब हुआ पहाड़ वाला गाँव | जो कि केशकाल की घाटी से प्रारंभ होती है जिसे हम पठार कहते हैं |

वहीँ हम जहां ऋषि संस्कृति के आधार पर यदि कोंडागांव के नाम की बात करें तो, डॉ विष्णु सिंह ठाकुर के मतानुसार-----वर्तमान कोंडागांव कुंदगढ़ कहलाता था जिसका प्राकृत शब्द था कुंद ग्राम | यह ऋषि कुंद कुन्दाचार्य की तपस्थली थी | कोंडागांव उत्तर और दक्षिण में परिवर्तित, चौथी शताब्दी ईस्वी में कुंद कुंदाचार्य जैन मुनि की तपस्थली थी जिसे उनके द्वारा महावन में दंडकारण्य कहा गया है | एक ऎसी पहाड़ी जिसके नीचे से घाटी नदी बह रही है और जहां शमी, शाल्मली तरु हैं | जहां रीछ झाड पर चढ़कर मधु छत्ते को अपने वाम हस्त के मध्यमा पंजे से विदीर्ण कर यानि छेद कर ऊपर मुंह कर मधुरस का पान कर लेता है | जहाँ हरील, अकोल की झाड़ियाँ मुख्य हैं | जहां वैसाख के महीने में जामुन जैसे छोटे-छोटे फल लगते हैं, अन्य वन्य वृक्षों के अतिरिक्त इन सभी वृक्षों की प्रधानता के कारण कृष्ण सार मृग से सेवित उस पर्वत के श्रृंग पर ऋषि कुंद कुंदाचार्य ने तपस्या की | वे ”जिन” धर्म से सम्बंधित देशाटन करते हुए, देशनादि संदेश उपदेश से उस स्थल को पावन करते रहे | कालांतर में उस पर्वत की तलहटी पर जो गाँव आबाद हुआ वह ऋषि के नाम पर कुंदकुंद गाँव कहलाया (प्राकृत शब्द) जो कालांतर में अपभ्रंश होकर कोंडागांव कहलाने लगा|

विश्व के सभी मत के प्रवर्तक सत्य की खोज के लिए निसर्ग पर अवलंबित हैं , निसर्ग की शरण में ही गए हैं | नैसर्गिक स्थान को ही आत्मसिद्धि के लिए उत्तम माना गया है | कृत्रिम वातावरण में आज तक किसी ने सर्वोत्तम आत्म सिद्धि की प्राप्ति नहीं की इसलिए आचार्य कुंद कुंद ने भी आत्मसिद्धि के लिए भ्रमण काल में कोंडागांव की पहाड़ी में, उसकी तलहटी में सघन वन के बीच देशाटन के वक्त आए होंगे |

इसके अलावा मर्दापाल का जो क्षेत्र है वह अबूझमाड़ से लगा हुआ है, यहाँ गोंड संस्कृति विद्यमान है अर्थात आम बोलचाल की भाषा में पुराने स्थानीय लोग एक साथ गोंड, मुरिया ही कहते हैं सो गोंड कहते हुए गोंड गाँव कहते-कहते अपभ्रंश होकर कोंडागांव बन गया होगा |

गोंडी भाषा में गाँव को नार कहते हैं इसलिए ------वर्तमान में कोंडागांव का जो लोगो बना है -------उसके बारे में –कुछ बातें---

 

लोगो के  अक्षर में आदिवासी तत्वों को समाहित किया गया है। सबसे ऊपर इसमें हमें प्राकृतिक खूबसूरती और घुमावदार सड़क दिखाया गया है जो केशकाल की घाटी का प्रतिबिम्ब है । आदिवासी संस्कृति में प्रसिद्ध मांदरी के साथ माड़िया व्यक्ति और चिटकुली के साथ माडिन स्त्री को लोगो के केंद्रीय स्तंभ में लिया गया है। बाएँ वक्र पर हवा, आवास, कृषि और दाईं ओर शिकार को दर्शाता है। शीर्ष दाईं ओर तीन आगे के आकार के तीरों के साथ घिरे आदिवासी डिजाइन के प्रतीक, आने वाले वर्षों में कोंडागांव की प्रगति को इंगित करते हैं। यही बात नीचे लिखे कोंडानार शब्द में है जोकि आदिवासी नृत्य के साथ प्रदर्शित है, रास्ते भर में नारियल के झाड़,  नारियल के उच्च स्तरीय वृक्षारोपण और देशभर में सर्वोच्च गुणवत्ता के उत्पादन का प्रतिनिधित्व करता है। कोंडागांव के कोपाबेड़ा में नारियल की नर्सरी है जहां से नारियल और उसका तेल केवल कोंडागांव या केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में इसका निर्यात किया जा रहा है जो इस बात का प्रतीक है कि वहां  उच्च स्तरीय नारियल का उत्पादन होता है जो केवल समुद्र तट पर पाए जाते हैं उससे कहीं कम नहीं | आदिवासी संस्कृति के महत्वपूर्ण वाद्य यंत्र तोड़ी के सुर व संगीत के प्रतीक के रूप में को  का रूप बन रहा है जोकि यहां के आदिवासियों के जीवनशैली से जुड़ता है। पूरे अक्षर को बेलमेटल से बनाया गया है, जिसकी उत्पत्ति पूरे विश्व में सर्वप्रथम कोंडागांव से हुई है। मावा कोंडानार अर्थात मेरा “कोंडागांव”|

बस्तर रियासत के एक अधिकारी ने हनुमान मंदिर में वरिष्ठ जनों की एक बैठक में इसे कोण्डानार के स्थान पर कोण्डागांव रखना ज्यादा उचित बताया। उस समय का पुराना मार्ग पुराना नारायणपुर मार्ग ही था। अत: मरारों के मुख्य परिवारों की बसाहट उसी मार्ग के दोनों ओर हुर्इ। यही पुराना कोण्डागांव था। सन 1905  में केशकाल घाटी के निर्माण के बाद मुख्य सड़क बनी, जो गांधी चौक के पास पुराने नारायणपुर मार्ग से मिलती है। नया मार्ग बनने पर उसके दोनों ओर नर्इ बसाहट होने लगी। रोजगारी पारा नए मार्ग के दोनों ओर बसा। केशकाल घाटी की सड़क का निर्माण होने के बाद केशकाल का क्षेत्र राठौर परिवार को मालगुजारी में दिया गया। वह परिवार तथा इनसे संबंधित लोग बाद में कोण्डागांव मुख्य मार्ग पर बसे। इसके अलावा कोष्टा लोगों की बहुलता है बल्कि कुछ गाँव तो कोष्टा गाँव ही हैं | जैसे कोंडागांव के जामकोट पारा, आड़काछेपडा, पलारी, बाफना, नेवता, मुलमुला, भगदेवा कनेरा, बेंदरी, सरगीपाल  के साथ ही कोपाबेड़ा, भीरागांव यानि कोंडागांव को प्राचीन समय का कोष्टा गाँव भी कह सकते हैं |

मुख्य सड़क रायपुर से जगदलपुर को जाती थी। इस प्रकार कोण्डागांव की मुख्य सड़क बस्तर की राजधानी जगदलपुर से जुड़ गयी । 1980  के दशक में इसे राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 43 घोषित किया गया । 2010  में यही राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 30 घोषित किया गया है। रियासत काल में कोण्डागांव, बडेडोंगर तहसील के अंतर्गत था तथा उसका पुलिस स्टेशन भी बडेडोंगर में था। बाद में तहसील मुख्यालय कोण्डागांव 1943 में आया। शायद सड़क मार्ग में स्थित होने के कारण इसे मुख्यालय बनाया गया |

यहां बसने वाली जातियों में सबसे पुराने मरार फिर कोष्टा आए उसके बाद अनुसूचित जाति, जनजाति में गांडा, घसिया, हल्बा आदि थे। आज हम जिस हल्बी लोक भाषा को बस्तर की संपर्क भाषा के रूप में जानते हैं उस हल्बी भाषा का पोषक बड़े डोंगर ही है जो कि कोंडागांव जिले के अंतर्गत आता है क्योंकि बड़े डोंगर हल्बा बहुल गाँव है | बड़े डोंगर से लेकर कोंडागांव, मर्दापाल, बारसूर, बीजापुर यह पूरा बेल्ट हल्बा आदिवासियों की है | जो नाग युग का प्रतिनिधित्व करते हैं | अच्छी बसाहट होने के बाद 1930 के आसपास प्राथमिक शाला बनी फिर कुछ सालों बाद मिडिल स्कूल और 1953 में मेट्रिक भी | बंगला देशी शरणार्थी यानि  बंगालियों को बसाने के लिए उस समय केन्द्रीय पुनर्वास मंत्रालय द्वारा मलकानगिरी से लेकर जगदलपुर, कोंडागांव, पखांजूर आदि स्थानों पर दंडकारण्य प्रोजेक्ट के तहत कोंडागांव में प्रसाशनिक भवन और आवास बनाया गया साथ ही एक सर्व सुविधायुक्त अस्पताल भी बनवाया जो पूरे बस्तर का सबसे बड़ा अस्पताल हुआ करता था, जो केंद्र सरकार के द्वारा संचालित होता था |1958 में बिजली आई, 1965 में कोंडागांव को राजस्व अनुविभाग घोषित किया गया | 1975 में नगर पालिका परिषद् की स्थापना हुई | कोंडागांव वर्तमान में एशिया का सबसे बड़ा वन काष्ठागार है | यहाँ बेलमेटल शिल्प, लौह शिल्प, काष्ठ शिल्प, बांस शिल्प, बुनकरी कौड़ी शिल्प आदि ने कोंडागांव को विश्व स्तर पर लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचाया है |

सांस्कृतिक क्षेत्र में कोंडागांव के तहसीलपारा में रतनलाल देवांगन को थियेटर संस्कृति की स्थापना का श्रेय जाता है | साथ ही 60 के दशक में जब रोजगारी पारा स्थित पुतरी शाला खुला तो उन्होंने  उस पारा के घर-घर जाकर बालिकाओं को स्कूल में भरती करने का काम तत्कालीन तहसीलदार के निर्देश पर शिवबती बहनजी के साथ किया था |  दोनों तब के ज़माने में जब लड़कियां स्कूल कम जाती थीं, बालिकाओं को प्रोत्साहित करते थे यह बात स्वयं शिवबती देहारी बहनजी ने बताया है |

 कोंडागांव के विकास को देखते हुए 15 अगस्त 2011 को तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह जी ने इसे राजस्व जिला घोषित किया |

कोंडागांव जिला का पुरावैभव---

कोंडागांव के केशकाल तहसील के एंडेगा ग्राम में वराह राज के 29 सिक्के प्राप्त हुए हैं  | वराहराज  का शासन काल -400 - 440 ई.,वे नलवंश के संस्थापक माने जाते हैं |

भोंगापाल, बंडापाल, मिसरी तथा बड़गर्इ ग्रामों के मध्य बौद्धकालीन ऐतिहासिक टीले पाए गए हैं | ग्राम पंचायत भोंगापाल  के पास दो किमी की पर घने वन में लतुरा नदी के तट पर ईट निर्मित ऐतिहासिक बौद्ध चैत्य गृह स्थापित है। यह प्राचीन टीला स्थित बुद्ध प्रतिमा स्मारक छत्तीसगढ़ शासन द्वारा संरक्षित है |

कोपाबेड़ा स्थित शिव मंदिर:- कोपाबेड़ा स्थित शिव जी का विलक्षण मंदिर , कोण्डागंव से 4.5 कि.मी. दूर नांरगी नदी के पास सदानीरा ढोड़गी के किनारे स्थित है। पहुँच मार्ग के दोनों ओर घने साल वृक्ष आकर्षित करते हैं |

 बड़ेडोंगर :- फरसगांव से मात्र 16 कि.मी. दूरी पर रचा बसा चारों ओर पहाडि़यों से घिरा यह क्षेत्र बड़ेडोंगर अपने आराध्य माँ दंतेश्वरी  के नाम से प्रसिद्द है | पहले कभी बस्तर की राजधानी बड़ेडोंगर में मार्इ जी का प्रमुख पर्व दशहरे का संचालन इसी मंदिर से होता था। कथा प्रचलित है कि महिषासुर नामक दैत्य का संग्राम मां दंतेश्वरी से इसी स्थल पर हुआ था। महिषासुर उस रणभूमि में कोटि-कोटि सहस्त्र रथ हाथियों एवं घोड़ों से घिरा हुआ था। देवी ने अस्त्र शस्त्रों काी वर्षा कर उनके सारे उपाय विफल किए। बड़ेडोंगर में पुराने समय में यहाँ147 तालाब पाये गये थे जो इसे विशेष  तौर पर तालाबों की पवित्र नगरी के नाम से विख्यात करते हैं।

आलोर :- ग्राम पंचायत आलोर में मनोरम  पर्वत श्रृंखला के बीचोंबीच धरातल से 100 मी. की ऊंचार्इ पर प्राचीनकाल की मां लिंगेश्वरी देवी की प्रतिमा विद्यमान है। जनश्रुति अनुसार मंदिर सातवीं शताब्दी का होना बतया जाता जा रहा है। इस मंदिर के प्रांगण में प्राचीन गुफाएं स्थित हैं| प्राचीन मान्यता के अनुसार साल  में एक बार पितृमोक्ष अमावस्या माह के प्रथम बुधवार को श्रद्धालुओं के दर्शन  हेतु पाषाण का कपाट खोला जाता है।  जहां लोग संतान प्राप्ति की कामना लेकर आते हैं |

केशकाल की मनोरम घाटी :- कोण्डागांव जिले की केशकाल तहसील में सुरम्य एवं मनोहरी केशकाल घाटी राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर कोण्डागांव-कांकेर के मध्य स्थित है। केशकाल घाटी घने वन क्षेत्र, पहाडि़यों तथा खूबसूरत घुमावदार मोड़ों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ माँ तेलिन सती का मंदिर स्थित होने से इसे तेलिन घाटी के नाम से भी जाना जाता है। 12 घुमावदार मोड़ यात्रियों के आकर्षण का केंद्र है |  

टाटामारी :- ऐतिहासिक धरोहर स्थल टाटामारी का पठार लगभग डेढ सौ एकड़ जमीन पर फैला हुआ है |उंचाई से अनुपम ऊंची चोटियों का विहंगम दृष्य देखते ही बनता है।  इसके अतिरिक्त कोण्डागांव जिले में अनेक स्थल हैं, जिनका पुरातात्विक व धार्मिक महत्व है।

ऐतिहासिक- धार्मिक स्थल गढ़ धनोरा-- कोण्डगांव-केशकाल मुख्य मार्ग पर केशकाल से 2 कि.मी. पूर्व बायीं ओर, 3 किमी की दूरी पर स्थित है। धनोरा को कर्ण की राजधानी कहा जाता है। गढ़ धनोरा में 5-6 वीं सदी के प्राचीन मंदिर, विष्णु एवं अन्य मूर्तियां व बावड़ी प्राप्त हुर्इ हैं । यहां केशकाल टीलों की खुदार्इ पर अनेक शिव मंदिर मिले हैं । यहां स्थित एक टीले पर कर्इ शिवलिंग हैं, यह गोबरहीन के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अलावा  लिंगदरहा,  लहू हाता,  लयाह मटटा,  मुत्ते खड़का, सिंगारपुर में शैल चित्र पाए गए हैं। जिनका शोध किया जाना आवश्यक है |

          संस्कृति एवं लोक परम्पराओं में घोटुल का स्थान सर्वश्रेष्ठ है | यह प्रथा गोंड-मुरिया  जनजाति के युवक-युवतियों का सामाजिक संगठन है जो सामाजिक सहकार और भावी जीवन की पाठशाला है | इसमें बहुमुखी विकास की शिक्षा दी जाती है |

विकास ने गोंड संस्कृति का क्षरण किया है किंतु गोंडगाँव हैं तो कोंडागांव है अन्यथा आयातित संस्कृति ने इसके पतन में कोई कमी नहीं रखी है |

शकुंतला तरार

                                                                                                                                   प्लाट नंबर-32, सेक्टर-2 ,

एकता नगर , गुढ़ियारी, रायपुर (छ.ग.)

मो-9425525681

 

Friday, January 1, 2021

Saturday, December 19, 2020

छत्तीसगढ़ में गांधी जी के सौ वर्ष

 छत्तीसगढ़ में  गांधी जी के सौ वर्ष


बीसवीं सदी का प्रारंभ छत्तीसगढ़ के लिए बहुत ही कांटों भरा सफर था। अंग्रेजी हुकुमत का दमन चक्र जारी था। रानी सुवर्ण कुंवर और लाल कालेन्द्र सिंह द्वारा सेना के नेतृत्व का दायित्व गुण्डाधुर को दिया जाना इस बात का संकेत था कि अब बस्तरियों का आजादी के संग्राम में मरने मिटने का समय आ गया है। इधर अंग्रेज चाहते थे कि बस्तर के आदिवासियों में फूट डालकर उनका शोषण कर उन्हें गुलाम बनाकर रखा जाए वहीं बस्तर के आदिवासियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ अनेकों बार सशस्त्र क्रांति हुई थी किंतु 1910 की अंतिम क्रांति ने अंग्रेजी शासन को हिला कर रख दिया था ब्रिटिश कूटनीति के तहत यदि गुण्डाधुर की सेना के साथ विश्वासघात न किया गया होता तब परिस्थति उस वक्त कुछ और होती | उसी साल  सोनाखान के जमींदार वीर नारायण सिंह ने भी अंग्रेजी शासन के विरूद्ध क्रांति का शंखनाद कर दिया था जिसकी परिणति 10 दिसंबर 1857 में ही उनकी शहादत के साथ शिथिल हो गई थी। इन सबका असर छत्तीसगढ़ के जनमानस में था ही क्योंकि हमारे वीरों और शहीदों के दमन के लिए ब्रिटिश हुकुमत की मदद के लिए नागपुर, जबलपुर, जैपुर ,विशाखापट्टनम आदि स्थानों से सैन्य दलों का छत्तीसगढ़ में प्रवेश करना भी था।


इन सबका असर वृहद रूप से छत्तीसगढ़ के सभी हिस्सों में पड़ा। 1914 में धमतरी के माडमसिल्ली गांव के पास अंग्रेजों ने सीता नदी पर एक बांध का निर्माण किया और उसी के संचित जल को महानदी में बहाकर रूद्री में एक और बांध का निर्माण किया गया जिससे कृषि कार्य के लिये जल की आपूर्ति संभव हो सके। किंतु नहर विभाग को इससे पर्याप्त आय नहीं मिल पा रहा था इसलिए सिंचाई विभाग के द्वारा किसानों को नहर के पानी से सिंचाई के बदले दस वर्षों का एग्रीमेंट जिसमें आबपाशी के लिए 4304 रूपये सिंचाई कर देना पड़ता। अगस्त 1920 में नहर विभाग ने एक साजिश के तहत नहर की नाली काट कर गांव के पूरे खेतों में पानी बहा दिया ताकि गांव वालों पर पानी चोरी का आरोप लगाकर कर वसूल किया जा सके। किंतु ईश्वर की अपार महिमा थी कि उसी रात घनघोर वर्षा हुई और साजिश असफल हो गया किंतु ब्रिटिश प्रशासन ने फिर भी पानी चोरी का अभियोग लगाकर 4304 रूपये नहर पानी का लगान तय किया। इस कुत्सित कार्य के लिए पैसा न पटाने पर किसानों के मवेशियों को नीलाम कर पैसा वसूल करने का कार्य किया जाने लगा किंतु कर्मचारियों के पहुँचने से पूर्व ही स्वयंसेवकों की टोलियाँ पहुँच कर अंग्रेजों की इस मानसिकता के खिलाफ प्रचार कर देते। धमतरी के बाजार से इसकी शुरूआत की गई थी किंतु वहाँ विरोध स्वरूप नीलामी न हो पाने से मवेशियों को आसपास के बाजारों में ले जाने लगे। यहाँ भी  नीलामी न हो पाने की स्थिति में मवेशियों के खाने-पीने की समुचित व्यवस्था न हो पाने की स्थिति में मवेशी मरने लगे बीमार होने लगे। अंत में ब्रिटिश प्रशासन ने इस विरोध के कार्य में संलग्न बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव और उनके चचेरे भाई लालजी बाबू एवं अन्य राष्ट्र भक्तों को गिरफ्तार करने में जुट गई।


इधर सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन को व्यापक रूप देने महात्मा गांधी पूरे देश के दौरे पर निकले थे और उस वक्त वे कलकत्ता में थे। तब बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव के द्वारा एक सभा बुलाई गई जिसमें राजिम से पं. सुंदरलाल शर्मा, नारायण राव फड़नवीस मेघावाले, बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव ने संबोधित किया और वहीं यह तय किया गया कि पं. सुंदरलाल शर्मा को महात्मा गांधी को लाने के लिए कलकत्ता भेजा जाय क्योंकि, उसी वक्त गांधी जी के कलकत्ते में होने की जानकारी प्राप्त थी। इस तरह 02 दिसंबर 1920 को पं. सुंदरलाल शर्मा ने कलकत्ता के लिए प्रस्थान किया।


इधर जब ब्रिटिश प्रशासन को असहयोग आंदोलन और सत्याग्रह के बारे में जानकारी हुई तो वे चैकन्ने हो गए इससे पूर्व की गांधी जी का रायपुर और कंडेल (धमतरी) आगमन हो उससे पहले ही रायपुर से संबंधित विभाग के अधिकारी को भेजकर वस्तुस्थिति की जानकारी मंगाई गई जहाँ यह साबित हो गया कि वहाँ के नहर की नाली काटकर किसानों के खेतों तक रात भर में पानी ले जाना संभव ही नहीं था इस तरह उन्हें अमानवीय अविवेकपूर्ण तरीके से लगाए जा रहे समस्त लगान को माफ करना पड़ा।


 पं. सुन्दरलाल शर्मा ने गांधी जी से मिलकर उन्हें छत्तीसगढ़ की इस पावन धरा पर आने का आमंत्रण लेकर जो गए थे उसे महात्मा गांधी जी ने स्वीकार कर लिया और फिर वह अविस्मरणीय क्षण भी आ गया जब 20 दिसम्बर 1920 को रायपुर की पावन धरा पर सत्यता के पुजारी अहिंसा के पैरोकार जन-जन के हृदय में बसने वाले मोहनदास करमचंद गांधी यानि महात्मा गांधी का आगमन हुआ।


वे आए और रायपुर के एक मैदान में उन्होंने अपार जनसमूह वाले सभा को संबोधित किया। इसी चौक को इसी स्थान को आज हम गांधी चौक के नाम से जानते हैं। वहाँ से महात्मा गांधी धमतरी गए जहाँ रायपुर से लेकर धमतरी तक रास्ते में पड़ने वाले सभी गाँवों में पुष्पमाला, फूलों की वर्षा और जय जय कार के साथ उनका अभिनन्दन किया गया | धमतरी पहुंचकर गांधी जी ने वहाँ की सभा में लोगों को संबोधित किया दो घंटा रुकने के पश्चात् नत्थू जी जगताप के यहाँ उन्होंने फलाहार किया और वापस रायपुर आए ।


आज 20 दिसम्बर 2020 महात्मा गांधी जी के स्मरण का पावन दिन है जब उन्होंने छत्तीसगढ़ के इस पावन धरा को अपने चरण रज से और पावन किया। वंदे मातरम और भारत माता की जय से पूरा वातावरण गुंजायमान हो गया। धन्य है वे लोग जिन्हें महात्मा गांधी का सानिध्य मिला और धन्य है वे लोग जिन्होंने प्रत्यक्ष उनका दर्शन लाभ लिया और उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर अपना तन-मन-धन सब न्यौछावर कर मां भारती की स्वतंत्रता के लिए अपना अमूल्य योगदान दिया जिनमें महिलाओं ने भी कदम से कदम मिलाकर उनका साथ दिया।

शकुंतला तरार  

संपादक-“नारी का संबल”

प्लाट नं.-32, सेक्टर-2, एकता नगर,

गुढ़ियारी, रायपुर (छत्तीसगढ़)

मो-9425525681,


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झांझ लेक नया रायपुर------कुछ दिन पूर्व
नया रायपुर में स्थित झांझ लेक में कुछ खुशनुमा पल बिताने का अवसर मिला । पहली बार जाना हुआ । बिटिया ने बहुत तारीफ की थी हालांकि उसने भी देखा नहीं था। गाड़ी उठाई गूगल गुरु की सहायता से जा पहुंचे उस गांव जहाँ यह झील है । मगर अद्भुत यहां तो 4 स्टार मेफेयर लेक रिसॉर्ट भी है और रिसॉर्ट के पीछे ही बरडिया और अग्रवाल परिवार के शादी समारोह की पार्टी की तैयारी














भी चल रही थी।नाव को फूलों से सजाया गया था नव दंपत्ति के लिए हमने नाव में बैठने का आनंद उठाया | हम वहां बहुत देर तक तो नहीं रुके जैसे ही बाहर निकले डॉ जे आर सोनी जी से भेंट हो गई वे विवाह समारोह में शामिल होने आए थे |
अगर आपको वहां जाना हो तो दिन से जाकर शाम को लौटें तो उस खूबसूरत नज़ारे को जी भर कर देख सकते हैं । इस खूबसूरती को हमने कैमरे में कैद किया है । मैं चाहूंगी मेरे जितने भी मित्र,जान -पहचान , रिश्तेदार सभी एक बार जरुर जाएं |
हर तरह का नाश्ता, भोजन उपलब्ध है बस मोटी रकम साथ हो |

Friday, May 29, 2020

दुनिया का सबसे छोटा रेलवे जंक्शन -बोरी डांड

दुनिया का सबसे छोटा रेलवे जंक्शन -बोरी डांड
कभी-कभी भूली बिसरी यादें मन को सुकून देती हैं , प्रकृति की गोद में सुकून भरी ऐसी ही एक जगह है छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की सीमा रेखा पर दुनिया का सबसे छोटा रेलवे जंक्शन बोरी डाँड । बिजुरी से मनेन्द्रगढ़ चिरमिरी जाते हुए आप प्रकृति की इस अनुपम स्थली का अवलोकन कर सकते हैं । इस स्थान पर रेलवे काउंटर के अलावा एक झोपड़ीनुमा होटल है। इस होटल का बड़ा खाने के लिए बिजुरी और मनेन्द्रगढ़ से लोग आते हैं । लोगों की पिकनिक भी हो जाती है, शौक पूरा करते हैं साथ ही प्रकृति के मोहक स्वरूप का आनंद भी उठाते हैं । मैंने भी इस अवसर का लाभ उठाया । मुझे पता था कि जब तक बिटिया की यहां नौकरी है तभी तक आना होगा अन्यथा बिना कारण घर निकलना संभव होता नहीं। उसी अवसर का चित्र - बिटिया श्वेता द्वारा लिया गया ।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति

Monday, August 19, 2019

छत्तीसगढ़ी फिल्म मंदराजी देखा क्या ? मैंने तो देख लिया |

"छत्तीसगढ़ी फिल्म मंदराजी देखा क्या ?मैंने तो देख लिया |"

                        गाँव की माटी की सोंधेपन की महक लिए नाचा के पुरोधा दाऊ दुलार सिंह मंदराजी के जीवनी (बायोपिक )पर बनी फिल्म मंदराजी जून 2019 को रिलीज़ हो चुकी है |इसमें एक ऐसे व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित करने का उपक्रम किया गया है जिसने लोक कला, लोक संस्कृति को प्रशय देकर उसके संरक्षण, संवर्धन के लिए अपना खेत घर सब कुछ बेच बेचकर पैसा लगाया और अंत में उपेक्षा, अभाव, गरीबी से जूझता हुआ अपने प्राणों का उत्सर्ग करता है | 

                   निर्देशक विवेक सारवा ने फिल्म के माध्यम से मंदराजी के जीवन के विभिन्न पहलुओं को, उनके मर्म को रेखांकित करने का अपनी तरफ से भरपूर प्रयास किया है | फिल्म शुरू से अंत तक दर्शकों को बांधे रखने में सक्षम है | किस तरह संगीत प्रेमी मंदराजी दाऊ ने एक छोटे से गाँव के छोटे-मोटे कलाकार जो थोड़ा बहुत हास्य प्रहसन कर लोगों का मनोरंजन कर अर्थोपार्जन करते हैं उन कलाकारों को एकत्र करने का काम किया और उन्हें मंच प्रदान किया | नाचा जैसी विधा को परिष्कृत कर रवेली नाचा पार्टी का गठन किया | गाँव-गाँव में नाचा दिखाकर जनजागृति फैलाई तत्पश्चात नाचा के माध्यम से हंसते-हंसाते सामाजिक जागरूकता का सन्देश जैसे छुआछूत की समस्या, ऊँच-नीच, अमीरी- गरीबी, दहेज़ समस्या, स्वास्थ्य आदि कुप्रथाओं के प्रति लोगों को जागरूक करने लगे |गीत संगीत के प्रति उनका यह जूनून उन्हें घर से उलाहना का भी पात्र बनाया किन्तु वे डिगे नहीं अपनी ही धुन के पक्के उसी में रमे रहे | आज़ादी से पहले से शुरू यह दौर आज़ादी के बाद भी अनवरत चलता रहा किन्तु होनी बलवान है | जीवन भर जिनके साथ और जिनके लिए संघर्ष करते रहे कैसे उन्हें उनके साथी कलाकारों ने धोखा दिया कैसे दूसरी संस्था के लोगों ने उनके मंजे हुए परिपक्व कलाकारों को अपने साथ ले लिया और विश्वविख्यात बने | पैसा के ख़तम होते ही साथियों ने मुंह फेर लिया मालगुजार परिवार के होने के बावजूद अंत समय में वे एक-एक पैसे के लिए मोहताज होते रहे उपेक्षा, अभाव, गरीबी में उन्होंने अपने प्राण त्यागे|
              फिल्म में दाऊ दुलार सिंह मंदराजी का जीवंत अभिनय किया है करण खान ने उन्होंने अपने अभिनय के बेजोड़ कला कौशल से दर्शकों के दिलोदिमाग पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है उनका अभिनय इतना जीवंत है कि कहीं-कहीं दर्शकों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं | उनकी पत्नी रामहीन के रूप में ज्योति पटेल सहित फिल्म के सभी कलाकारों ने उत्कृष्ट अभिनय किया है चाहे वे नाचा के पात्र हों या परिवार के सदस्य | लक्ष्मण मस्तुरिया के गीत और खुमान साव के संगीत ने दर्शकों को भाव विभोर किया है हालाँकि उनके गीतों को पहली बार नहीं सुना गया है किन्तु किस स्थान पर गीतों को रखना यह निर्देशक ने बख़ूबी सूझ-बूझ से प्रयुक्त किया है साथ ही उस समय के ठेठ ग्रामीण परिवेश गाँव घर को प्रदर्शित करने की कोशिश की गई है और इसमें वे सफल भी रहे हैं | 
                सारवा ब्रदर्स फिल्म प्रोडक्शन एवं माँ नर्मदा फिल्म्स द्वारा प्रस्तुत यह फिल्म हर उस छत्तीसगढ़िया को देखना चाहिए जिनकी कला एवं संस्कृति में जरा भी रूचि हो, प्रेम हो | सारवा ब्रदर्स बधाई के पात्र हैं जिन्होंने एक ऐसे व्यक्ति के जीवन चरित्र पर फिल्म बनाई है जिन्हें आज की पीढ़ी ने देखा भी नहीं है | छत्तीसगढ़ शासन द्वारा प्रतिवर्ष लोक कला के क्षेत्र में किसी एक लोक कलाकार को दाऊ मंदराजी सम्मान से सम्मानित भी किया जाता है |
मुझे मंदराजी देखे एक सप्ताह हो गया किन्तु आज भी दिलो दिमाग पर मंदराजी की छवि अंकित है | अभी भी समय है आप इस फिल्म को रायपुर के प्रभात टाकिज में दोपहर 12 से 3 के समय में देख सकते हैं |