Thursday, December 22, 2016

साहित्य अकादमी का भाषा सम्मान

श्री हरिहर वैष्णव को साहित्य अकादमी का भाषा सम्मान ------बधाई
कथाकार एवं कवि मूलसृजन कर्म केवल बस्तर पर केन्द्रित बस्तर की लोकभाषाओं (हल्बी, भतरी एवं बस्तरी) के जानकार श्री हरिहर वैष्णव को साहित्य अकादमी दिल्ली का भाषा सम्मान --
आपकी प्रकाशित कृतियों में से हैं -1-मौखिक कथाएँ (लोक साहित्य, बस्तर की विभिन्न लोकभाषाओं की लोक कथाएँ उनके हिन्दी अनुवाद के साथ, बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद्, कोंडागाँव, 1991), 02. मोहभंग (कहानी-संग्रह, राष्ट्रीय प्रकाशन मन्दिर, लखनऊ, 1997), 03. राजा और बेल कन्या (लोक साहित्य, हल्बी लोक कथा का हिन्दी अनुवाद, साक्षरता समिति, दुर्ग, 1998), 04. चलो, चलें बस्तर (बाल साहित्य, हिन्दी, बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद्, कोंडागाँव, 2002), 05. बस्तर के तीज-त्यौहार (बाल साहित्य, हिन्दी, बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद्, कोंडागाँव, 2002), 06. गुरुमाय सुकदई कोराम द्वारा प्रस्तुत लछमी जगार (लोक साहित्य, बस्तर के लोक महाकाव्य का संक्षेपित संस्करण, हल्बी-हिन्दी-अँग्रेजी में, ककसाड़ प्रकाशन, कोंडागाँव, 2003), 07. बस्तर का लोक साहित्य (लोक साहित्य, बस्तर की विभिन्न लोकभाषाओं का लोक साहित्य उनके हिन्दी अनुवाद के साथ, ककसाड़ प्रकाशन, कोंडागाँव, 2003), 08. बस्तर की गीति कथाएँ (लोक साहित्य, बस्तर की विभिन्न लोकभाषाओं की गीति कथाएँ उनके हिन्दी अनुवाद के साथ, बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद्, कोंडागाँव, 2004), 09. गुरुमाय केलमनी द्वारा प्रस्तुत धनकुल (लोक साहित्य, बस्तर का लोक महाकाव्य, मूल हल्बी एवं हिन्दी अनुवाद, बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद्, कोंडागाँव, 2008), 10. बस्तर के धनकुल गीत (लोक साहित्य पर शोध विनिबन्ध, दक्षिण-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, नागपुर, 2008), 11. बस्तर की लोक कथाएँ (लोक साहित्य, बस्तर की विभिन्न लोकभाषाओं की लोक कथाएँ उनके हिन्दी अनुवाद के साथ, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नयी दिल्ली, 2013, 2014), 12. बस्तर का आदिवासी एवं लोक संगीत (लोक संस्कृति, बस्तर की विभिन्न लोकभाषाओं के लोक गीत उनके हिन्दी अनुवाद के साथ, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नयी दिल्ली, 2013, 2015), 13. साहित्य ऋषि लाला जगदलपुरी : लाला जगदलपुरी समग्र (यश पब्लिकेशन्स, नयी दिल्ली, 2014), 14. बस्तर की आदिवासी एवं लोक हस्तशिल्प परम्परा (राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014), 15. धातुशिल्पी डॉ. जयदेव बघेल : एक शिखर यात्रा (लोक कलाकार की जीवनी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014), 16. तीजा जगार (लोक साहित्य, मूल हल्बी एवं हिन्दी अनुवाद, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2014), 17. सुमिनबाई बिसेन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी लोक गाथा : धनकुल (लोक साहित्य, मूल छत्तीसगढ़ी के साथ हिन्दी अनुवाद, छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, रायपुर, 2014), 18. बस्तर की भतरी लोक कथाएँ (लोक साहित्य, मूल भतरी के साथ हिन्दी अनुवाद, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नयी दिल्ली, 2015), 19. गुरुमाय केलमनी द्वारा प्रस्तुत बस्तर की धान्य-देवी की महागाथा : लछमी जगार (लोक साहित्य, मूल हल्बी के साथ हिन्दी अनुवाद, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली, 2015), 20. अन्धकार का देश (श्री सोनसिंह पुजारी की हल्बी कविताओं का हिन्दी अनुवाद मूल सहित, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली, 2015)

Saturday, October 8, 2016

स्तम्भ लेखक संगोष्ठी-लखनऊ

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, प्रचार विभाग
स्तम्भ लेखक संगोष्ठी
24-25 सितंबर
विषय:- भारत की भारतीय अवधारणा बनाम भारत की अभारतीय अवधारणा


लखनऊ/ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा आयोजित स्तम्भ लेखक संगोष्ठी का उद्घाटन संघ के  अखिल भारतीय पदाधिकारियों, चिंतकों, विचारकों एवं देश के विभिन्न भागों से आये हुए स्तम्भ लेखकों की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ | उद्घाटन सत्र के दौरान जे नन्द कुमार जी द्वारा कार्यक्रम में उपस्थित संघ के वरिष्ठ सम्मानित पदाधिकारियों का परिचय कराया गया जिनमें सम्मानित अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य  मार्गदर्शक  मधुभाई कुलकर्णी जी, अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डॉ. मनमोहन वैद्य जी, मिलिंद जी, डॉ. प्रदीप कुठ्यागत जी, जगदीश उपासने जी, नरेंद्र कुमार ठाकुर जी, नरेन्द्र जी  प्रचार प्रमुख मध्य क्षेत्र, छत्तीसगढ़, कृपाशंकर जी, राजेंद्र सक्सेना जी, प्रसन्न देशपांडे जी, विनायक जी, सतीश जी आदि थे |
 उदघाटन सत्र के पश्चात् वैचारिक संगोष्ठी को संबोधित करते हुए डॉ. मनमोहन वैद्य जी ने कहा कि संगोष्ठी का उद्देश्य राष्ट्रीय जागरण के विषयों का प्रचार प्रसार करने के लिए  देश भर से ऐसे स्तम्भ लेखकों के साथ विचार विमर्श करना, उनके साथ एक दृष्टिकोण निर्मित करना है | ऐसे लेखकों को जिनका पाठकों में स्थान है उनके माध्यम से वैचारिक बातें जो देश हित से जुडी हुई हैं जिन विषयों पर लेखों का अभाव है यह विचार समाज तक पहुंचे  यही हमारे संगोष्ठी का उद्देश्य है |

संगोष्ठी में राष्ट्र जागरण के निमित्त समाज में जागरूकता  किस तरह से लाया जाय आदि तथ्यपरक बातों पर विचार करने के साथ ही आर्थिक, सामजिक संरचना, राजनैतिक, इतिहास आदि  अलग-अलग विषयों पर 8 सत्र हुए और लगभग प्रति दो सत्रों के बाद प्रश्नोत्तरी का  कार्यक्रम भी रखा गया था जिससे आगंतुक स्तंभ लेखकों की जिज्ञासाओं का समाधान  किया जा सके|
कार्यक्रम के दौरान स्तम्भ लेखकों के प्रचार विभाग द्वारा गत वर्ष जयपुर राजस्थान में आयोजित महिला विषयक भारतीय दृष्टिकोण विषय पर केन्द्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी में विद्वान और विदुषियों द्वारा रखे गए विचारों को “संवर्धिनी” के नाम से पुस्तकाकार स्वरूप प्रदान किया गया था, का विमोचन मंचस्थ अतिथियों द्वारा किया गया | पुस्तक का संपादन नरेंद्र ठाकुर जी ने किया है, प्रकाशन विचार विनिमय नई दिल्ली ने किया है | कार्यक्रम में पत्रकारिता से जुड़े विभिन्न राज्यों से लगभग 250 से अधिक स्तम्भ लेखकों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की | कार्यक्रम का संचालन नन्द कुमार जी ने किया | जय भारत , जय जननी, वन्दे मातरम
शकुंतला तरार 
प्लाट न- 32 , सेक्टर-2, 
एकता नगर, गुढ़ियारी, 
रायपुर (छत्तीसगढ़) मो – 9425525681  

Thursday, October 6, 2016

-सर्जिकल स्ट्राइक पर राजनीति दुर्भाग्यपूर्ण

सर्जिकल स्ट्राइक पर राजनीति दुर्भाग्यपूर्ण 
      उरी में हुए आतंकवादी हमले में भारत के 18 जवानों की शहादत के खिलाफ भारत का सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम देना देश के लिए गौरव की बात है किन्तु, कुछ सिरफिरे  लोगों द्वारा यह नागवार गुजरा कि इतने कम समय में हमारे प्रधान मंत्री ने यह सब कैसे कर दिखाया है और वे लगे इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाने | उनकी इस घिनौनी हरकत से देश लज्जित ही नहीं हो रहा है बल्कि बाहरी दुनिया में भीतर की  लड़ाई से शर्मिंदा भी हो रहा है | आज देश के  समर्थन में जहां विश्व के लगभग सभी बड़े देश आगे आ रहे हैं और इस सर्जिकल स्ट्राइक को सही ठहरा रहे हैं, ऐसे समय जब भारत आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता की अपेक्षा करता है अपने ही घर के भेदी ओछी राजनीति पर उतर आए हैं | वे कम से कम देश  की अस्मिता  और देश के तीनों सेनाओं  के जवानों के देश के प्रति समर्पण की भावना को तो बख्श देते |
एक तरफ कांग्रेस के लाडले पप्पू प्रधान मंत्री की तारीफ  करते हैं वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के ही अन्य पदाधिकारी उनकी विश्वसनीयता को  संदेह की नज़रों से देखते हैं | राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर  विपक्ष राजनीति करना चाह रही है| राजनीति कभी भी देश से सर्वोपरि नहीं हो सकता |
सेना के डी जी एम ओ लेफ्टिनेंट जनरल रणवीर सिंह ने स्वयं मीडिया को सर्जिकल स्ट्राइक की  जानकारी दी उसके बाद भी नेता हमारे सबूत मांग रहे हैं| पूरी दुनिया के सामने आज पाकिस्तान अलग-थलग पड़ गया है ऐसे समय में इन नेताओं की गलत बयानबाजी जवानों के मनोबल को कम कर सकता है | दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो पाकिस्तान में हीरो बन गए हैं क्या उन्हें अपने देश की सेना से ज्यादा आतंकवादियों पर भरोसा है | ऐसे  ही लोगों के उटपटांग बयान से  देश की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न होता है-
हमें तो अपनों ने लूटा गैरों में कहाँ दम था,
हमारी कश्ती वहाँ  डूबी जहां पानी कम था |
यह वो समय है जब पूरा देश एक ही स्वर में स्वर मिला कर खड़ा हो गया है तब ऐसा अनर्गल प्रलाप केवल कुछ राजनेताओं को ही शोभा देता है| हमें दुश्मनों की क्या आवश्यकता, हमारे ही घर में तो दुश्मनों की लम्बी जमात है | दुनिया भर के देशों की नफ़रत और धिक्कार से आहत और बेहोश हुए पाकिस्तान को हमारे नेता संजीवनी  बूटी सूंघा रहे हैं, अपने शब्दों की चाशनी से  पाकिस्तान पर मरहम लगा रहे हैं | ऐसे लोग  देश हित की नहीं स्व हित की बात सोचते हैं | ऐसे जयचंदों को लोगों ने सर पर बिठाकर रखा है |
दरअसल सेना के सर्जिकल स्ट्राइक को देखने की चाहत ने इन्हें अँधा कर दिया है ये देखना चाहते हैं की किस तरह से यह हमला किया जाता है | उसे देखने की जिज्ञासा उनकी चाहत ने, लोलुपता संवरण न कर सकने की स्थिति में संदेह की दृष्टि से देखने का नाटक कर रहे हैं ताकि उनके कहने पर इसका प्रसारण चैनलों में किया जा सके और ये उस दृश्य को  महसूस कर सकें |
कुछ बातें देश हित में सर्वोपरि होती है,  देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दों को, मिशन को गुप्त ही रखा जाना श्रेयस्कर होता है अन्यथा सेना की निजता को खतरा उत्पन्न हो सकता है, उनका मनोबल कमजोर पड़ सकता है | अतः हमें सावधान रहना पड़ेगा अपने ही भीतरघाती उन जयचंदों से देश को बचाने के लिए | हमारे सैनिकों की शहादत कभी व्यर्थ नहीं जाएगी  पहले देश है फिर विद्वेष --- जय भारत , जय जननी, वन्दे मातरम

शकुंतला तरार 
प्लाट न- 32 , सेक्टर-2, 
एकता नगर, गुढ़ियारी, 
रायपुर (छत्तीसगढ़) मो – 9425525681  

Thursday, August 25, 2016

"ग़ज़ल"


"ग़ज़ल"

"सैनिक ''

"सैनिक ''


"सीमा के प्रहरी"

"सीमा के प्रहरी"


"नारी"

एक मुक्तक-"नारी"


"बेटी"


 मुक्तक-"बेटी"


"नारी मन की थाह"


"नारी मन की थाह "


"नारी"

एक मुक्तक- "नारी"


"नारी"

एक मुक्तक- "नारी"


"नारी"

एक मुक्तक- "नारी"


"नारी"

एक मुक्तक- "नारी"



Tuesday, April 26, 2016

गज़ल -श्वेता तरार


सुनहरी यादें ----
जगार 2015 में बिटिया द्वारा सुगम गायन कार्यक्रम के तहत एक ग़ज़ल की प्रस्तुति ----- प्रख्यात तबला वादक सत्यम भारती और केसिओ पर शांतनु भट्टाचार्य



Monday, April 25, 2016

ग़ज़ल-जान पाएगा तो कह देगा कहानी की वजह

ग़ज़ल----
 
जान पाएगा तो कह देगा कहानी की वजह

“खुद से पूछेगा कभी इस बदगुमानी की वजह” ||
मिलते हैं छुप-छुप के आशिक प्यार की आगोश में
सुरमई सँझा की ढलती दरमियानी  की वजह ||
छल कपट का दंश जग की रीत बनकर रह गई
तुम चलो जैसे हो नदिया की रवानी की वजह ||
क्यूँ भटकता फिर रहा वह व्योम में पंछी बना
ज़िंदगी  सा धन मिला है तत्वज्ञानी की वजह ||
देश सेवा से बड़ी सेवा नहीं ऐ ज़िंदगी
वो हिमालय बन गया है निगहबानी की वजह ||
चैन से हम सो रहे सरहद पे मुस्तैदी बढ़ी
है नमन ऐ वीरों तुम हो जिंदगानी की वजह ||
शकुंतला तरार 

Tuesday, March 29, 2016

“बस्तर की नारी”

 

“बस्तर की नारी” 
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस
8 मार्च
पार्लर से निकली
लिपी-पुती कुछ महिलाएं 
बड़े-बड़े आयोजनों का हिस्सा बनतीं 
मोमेंटो, कागज का सम्मान पत्र 
उपलब्धि के कुछ लाईन  
समाज सेवा के खोखले उदाहरण ---
बस्तर के बीहड़ों में 
कभी नक्सल के नाम पर  
जूझती मारी जाती  
नारी 
कभी नक्सलियों के हाथों 
मारी जाती नारी 
किस आयोजन का हिस्सा बनेंगीं
कौन से सम्मान पत्र पर 
लिखा जाएगा इनका नाम  
अब के 
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर ||

शकुंतला तरार -- 30-03-2016

Saturday, February 27, 2016

निर्णायक-


साथियो बड़ा ही आनंद का अवसर था जब डॉ. राधाबाई नवीन कन्या महाविद्यालय में महाविद्यालयीन छात्र-छात्राओं द्वारा तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता- काव्य पाठ प्रतियोगिता और पोयम काम्पीटीशन का निर्णायक बनने का सुखद क्षण आया | साथ में महाविद्यालय की डॉ अरुणा पल्टा जी प्राचार्य विभागाध्यक्ष डॉ गौरी अग्रवाल केसाथ ही अन्य निर्णायक डॉ भारती तिवारी छत्तीसगढ़ महाविद्यालय डॉ. अग्रवाल जी सेवानिवृत प्रो. साइंस कालेज केअलावा अनेक प्रोफ़ेसर और विद्यार्थियों ने अपनी उपस्थिति और सहभागिता देकर कार्यक्रम को सफल बनाया|




Friday, February 5, 2016

चलचित्र -"पेंग तुपकी ढोल मांदर "

मुक्तक -"नारी"

" नारी "

एक खूबसूरत एहसास है नारी,
इच्छाओं की प्यास है नारी,
जीवन के इस वातायन में,
प्यार भरा मधुमास है नारी ॥ 

लेख-''छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति एवं उसका भाषा माधुर्य''

''छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति वं उसका भाषा माधुर्य''
§  लेख- शकुंतला तरार 

   आदिकाल से ही प्रकृति की लोक लुभावनी रम्य छटा नीलेनीले अम्बर, चन्द्रमा की शीतल चांदनी,  झिलमिलाते तारे, पेड़ - पौधों की रियालीरंग बिरंगे फूलनदी-नालेपर्वतझरनेबादल वर्षा, विराट जंगल, पर्वत श्रृंखलाएं, पक्षियों की चहचहाहट,  ्रमरों का सुर से सुर मिलानान्द्रधनुषी सप्त रंग, चारों ओर बिखरा माधुर्य और सौन्दर्य मानवीय भावनाओं को झंकृत करने में सक्षम है | कहीं रहस्यात्मक अनुभूति तो कहीं प्राकृतिक उल्लास की गहरी छाप और इसी अनुभूति उल्लास की आल्हादकारी अभिव्यंजना के मध्य पुष्पित पल्लवित होती ै यह छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति |
     लोक संस्कृति चाहे किसी भी प्रदेश की हो उसका संरक्षण, संवर्धन लोक कलाओं के माध्यम से होता है।  लोक साहित्य की परंपरा मौखिक होती हैवह क्षेत्रीय भाषा के सहारेविगत के सहारेपीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए शब्द मञ्जूषा में कैद होकर भविष्य के लिए सुरक्षित, संरक्षित होता है तथा यह देश काल परिस्थितियों के अनुसार निरंतर विकसित होता है| जीवन यापन, जीविकोपार्जन, कार्य कलाप संघर्ष, दुःख पीड़ा, तनाव आदि समस्याओं से मुक्त होकर एक पारिवारिक एवं स्वच्छंद वातावरण में आनंद और उल्लास के साथ शनै-शनै विकसित होकर पुष्पितपल्लवित होता है यही उसका उज्ज्वल पक्ष है।
      जब हम छत्तीसगढ़ की संस्कृति की बात करते हैं तब हम स्वभावतः उन क्षेत्रीय परम्पराओं की ओर आकर्षित होते हैं जिनमें यहाँ के रीति-रिवाज़ परम्पराएँ, उत्सव , व्रत,त्यौहार, कर्मकांड, वेशभूषा एवं बोलियाँ सभी सम्मिलित होते हैं जो छत्तीसगढ़ की संस्कृति को एक मानक स्वरूप प्रदान करते हैं |
     छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य में यहाँ के रीति-रिवाज़ एवं संस्कारों की अहम् भूमिका है जंत्र-मन्त्र, टोना-टोटका, का अधिकाधिक प्रयोग ग्रामीण अंचलों में देखने को मिलता है।  संभव है कि आदिकाल से ही मानव ने अपने मन में छुपे हुए भय के कारण ही यह मार्ग अपनाया होगा जो कि आज हमारे सम्मुख अंधविश्वास के रूप में खड़ा है | वैसे इतिहास के पन्ने यदि हम पलटकर देखें तो हमें ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से ही मानव सहनशील एवं परिश्रमी रहा है | वैदिक काल से ही चली आ रही तपोवन संस्कृति नेऋषि-मुनियों की तपोभूमि कोलोक परंपरा कोपथप्रदर्शक के रूप में अग्रेसित किया है | तभी तो द्वारकाधीश होने पर भी कृष्ण को ब्रज नहीं बिसरता | उनकी लीलाएँ, ललित कलाएँ, लोक कला ही तो हैं।  राम को अपना रामत्व विभिन्न लोक समुदायों के बीच ही प्राप्त होता है| तुलसी की चौपाइयाँ सूर और कबीर के पद लोगों की जुबान पर ऐसे बस गए जैसे वे बहुत शिक्षित हों किन्तु जिन्हें अक्षर का तनिक भी ज्ञान  नहीं। तभी तो तुलसी कहते हैं -----

लोकहूँ वेद विदित सब काहू |
लोकहूँ वेद सुसाहिब रीति ||
      अर्थात --जहाँ लोक की रीति ही सुसाहिब की रीति है यानि लोक के मानदंडों से ही कोई  सुसाहिब हो सकता है, होता है जहाँ रीति का निर्धारण लोक का वेद करता है साहिब नहीं| वेद, पुराण, महाभारत, रामचरित मानस, यहाँ तक की अभिज्ञान शाकुंतलम और मेघदूत सब वन में वास करने वालों के द्वारा रचे गए | श्रीरामचंद्र जी जब तक इस संसार में रहे अधिकतर समय वनवासियों के साथ ही रहे, फिर चाहे वह गुरुकुल हो या वनवास का समय या फिर शासन काल में हनुमान जी का साथ रहा हो |
     विराट महानदी-चित्रोत्पला की कल-कल पावन धारा के तट पर स्थित शिवरीनारायण रामायण के युग की याद दिलाता है वहीँ श्री कृष्ण लीला पर खेली जाने वाली रास  जिसे हम   रहस के नाम से संबोधित करते हैं ग्राम नरियरा की पहचान बन चुका है।  रावत  नाच बिलासपुर, तो ककसाड, लेजा, मारी रोसोना, चईत परब बस्तर की विशेष पहचान है वहीं,  सरहुल सरगुजा तथा  कर्मा, ददरिया, सुवा, समस्त छत्तीसगढ़ की पहचान है, तो पंथी नृत्य -गीत जाति विशेष को रेखांकित करता है |
     अतः लौकिक, पारलौकिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामजिक क्षेत्र का मानव मन जो प्रभाव ग्रहण करता है और उसे आत्मसात करता है वहीँ पर संस्कृति का निर्माण होता है।  छत्तीसगढ़ की संस्कृति में कलात्मकता की भावना पग-पग पर दृष्टिगोचर होती है | भाषा का माधुर्य इतना प्रबल है कि आज पूरे विश्व में छत्तीसगढ़ के लोक साहित्य के प्रति सभी का आकर्षण बना हुआ हैयहाँ की संस्कृति अति प्राचीन है किन्तु लिखित साहित्य की कमी अभी भी खटकती है | हमारा  लोक संगीत अभी भी गतिशील है | यहाँ लोक साहित्य, लोक संगीत, लोक नृत्य-गीत, लोक कलाएँ यानि कि ललित कलाएँ समृद्धि एवं सामर्थ्य से परिपूर्ण हैं  अतिथि देवो भव से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ में विनम्रता, निश्छलता,सहनशीलता जहाँ कूट-कूट कर भरी हुई है वहीँ सरलता और शालीनता की शीतल-शीतल छाँव के तले मेहमान की आत्मा स्वयं धन्य हो उठती है | गाली देने में भी यहाँ शिष्टता का ही आभास होता है | यहाँ  के लोक जीवन की अपनी अलग विशिष्टताएं हैं जिनमें रहन-सहन, खान-पान, पहनावा में सादगी है तो वहीँ कृषि संस्कृति से भरपूर यह धान का कटोरा परम्पराओं और विश्वासों की संस्कृति  है |
    
शकुंतला तरार
 प्लॉट न॰ 32, सेक्टर-2, एकता नगर, गुढ़ियारी रायपुर (छत्तीसगढ़)
मो- 09425525681, 07770810556

लेख-"बस्तर की बोलियाँ,लोक गीत और साहित्य"

"बस्तर की बोलियाँ,लोक गीत और साहित्य"
v शकुंतला तरार
     1938 में लिखी गई "माड़िया गोंड्स ऑफ़ बस्तर ' नामक ग्रियर्सन की किताब की भूमिका में एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख मिलता है जो बस्तर की 36 बोलियों का जानकार था| इससे यह ज्ञात होता है कि समग्र बस्तर में जो उस समय कांकेर से लेकर कोंटा तक था और आज भी है, 36 बोलियाँ व्यवहृत होती थीं| वर्तमान समय में गोंडी,माड़ी, हल्बी, भतरी, परजी, दोरला, छत्तीसगढ़ी और उड़िया मुख्य बोलियाँ हैं|
      बोलियों पर मैं बात करूँ उससे पहले यह जानना अति आवश्यक है कि बस्तर में छत्तीसगढ़ी का प्रवेश कैसे हुआ| एक तो व्यापारी वर्ग के द्वारा , दूसरे तत्कालीन सरकारी सेवक तीसरे परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने पर और सबसे बड़ा कारण था रेडियो|
      आकाशवाणी रायपुर की स्थापना के बाद छत्तीसगढ़ी का प्रवेश बस्तर में बहुत ही तीव्रता से हुआ, इसका अर्थ यह है कि मनोरंजन के माध्यम से- कर्णप्रिय संगीत, विविध धुनों में लोक संगीत , सिनेमाई संगीत, प्रहसन नाटक आदि प्रसारित होते थे, जिसे सब सुना करते थे| इसके अलावा उच्च शिक्षा के तहत विद्यार्थियों का बस्तर से बाहर रायपुर की ओर आने-जाने का क्रम, साथ ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति के कारण भी छत्तीसगढ़ी भाषा बस्तर में निरंतर प्रविष्ट होती रही | इसके विपरीत उसी तीव्रता के साथ हल्बी का इस क्षेत्र में विस्तार नहीं हुआ, यह अपने क्षेत्रीय सीमा तक ही सीमित रहा| शासन द्वारा इसके प्रचार-प्रसार के लिए किसी भी प्रकार का उपक्रम का उस अवधि में अभाव रहा है जिससे कि बस्तर की बोलियाँ प्रश्रय नहीं पा सकीं और आज भी स्थिति वही है और ये बोलियाँ उपेक्षित हैं| जबकि स्थानीय साहित्यकारों एवं बुद्धिजीवियों द्वारा छुटपुट प्रयास होते रहे हैं|दण्डकारन्य समाचार पत्र ने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास अवश्य किया है वहीँ 1908 में  पं. केदारनाथ ठाकुर की  "बस्तर भूषण" नामक शोधपरक किताब प्रकाशित हुई | ठाकुर पूरन सिंह की "हल्बी का व्याकरण" हल्बी, हिंदी और अंग्रेजी तीनों भाषा बोलियों में प्रकाशित हुई |
      रामचरित मानस चतुश्शताब्दी समारोह के अवसर पर प्रो. हीरालाल शुक्ल के द्वारा बस्तर अंचल में बोली जाने वाली हल्बी, गोंडी तथा माड़ी भाषा में स्थानीय लेखकों द्वारा रामायण से सम्बंधित रचनाओं का प्रकाशन कर उक्त भाषाओं के उन्नयन की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किया गया जो कि भोपाल संवाद से प्रकाशित एक स्तुत्य कार्य था, अप्रत्यक्ष रूप से अंचल के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ|
      मध्यप्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित " बस्तर लोक कला संस्कृति'' लाला जगदलपुरी द्वारा लिखित पुस्तक है जिसके पृष्ठ 17 पर उन्होंने जानकारी दी है कि "-बस्तर संभाग में कोंडागांव, नारायणपुर, बीजापुर, जगदलपुर और कोंटा तहसीलों में तथा दंतेवाड़ा  में दंडामी माड़िया, अबूझमाड़िया, घोटुल मुरिया, परजा-धुरवा और दोरला जनजातियाँ आबाद मिलती हैं और इन गोंड जनजातियों के बीच द्रविड़ मूल की गोंडी बोलियाँ प्रचलित हैं| गोंडी बोलियों में परस्पर भाषिक विभिन्नताएं विद्यमान हैं| इसीलिए गोंड जनजाति के लोग अपनी गोंडी  बोली के माध्यम से परस्पर संपर्क साध नहीं पाते यदि उनके बीच हल्बी बोली न होती | भाषिक विभिन्नताओं के रहते हुए भी उनके बीच परस्पर आंतरिक सदभावनाएँ मिलती हैं| इसका मूल कारण है हल्बी | अपनी इसी उदात्त प्रवृति के कारण ही हल्बी भूतपूर्व रियासत काल में बस्तर राज्य की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही थी| और इसी कारण आज भी बस्तर संभाग में हल्बी एक संपर्क बोली के रूप में लोकप्रिय बनी हुई है|   
      प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल ने गोंडी, हल्बी आदि भाषाओं के गीतों का- भाषा शास्त्रीय, संगीत शास्त्रीय वैज्ञानिक अध्ययन कर अपनी किताब "आदिवासी लोक संगीत" में प्रकाशित किया है जो इस क्षेत्र में संभवतः प्रथम प्रयास है| वहीँ बस्तर रेडियो स्टेशन के स्थापित होने के पश्चात बस्तर की क्षेत्रीय भाषाएं, आकाशवाणी के माध्यम से फैलने के लिए, सीखने-समझने के लिए, रूचि जाग्रत करने के लिए मनोरंजन का अच्छा साधन सिद्ध हुई हैं |एक समय ऐसा भी था जब बस्तर क्या अन्य प्रान्तों के श्रोता भी हल्बी गीतों की फरमाईश करते थे| मेघनाथ पटनायक द्वारा गाया गया यह गीत काफी लोकप्रिय हुआ था -
आया मोचो दंतेसरी बुआ भैरम आय
भाई दंडकार बईन इन्दाराबती सरन सरन
तुमके सरन सरन आय
मयं आयं बस्तर जिला चो आदिबासी पिला
बैलाडीला बैलाडीला, ने अपार लोकप्रियता पाई–

वहीँ विभिन्न तरह से गाया जाने वाला लोक गीत ''लेजा'' बस्तर में आज भी काफी लोकप्रियता के  चरम शिखर पर है- जैसे-
1 -   लेजा लेजा लेजा दादा लेजा केंवरा
घोटिया मंडई जायेंदे दादा पयसा देऊरा
काय लेजा रे होय दादा पयसा देऊरा |
2-सुका सिंयाडी भेलवां लसा डोबरी खाले चो आय

      वर्तमान समय में  हल्बी के साहित्य में छत्तीसगढ़ी का सम्मिश्रण अधिक होने लगा है उनके विषय जो मंडई, हाट-बाजार, शादी-ब्याह, जन्म-मरण तक ही सीमित होते थे अब उसमें छत्तीसगढ़ी, हिंदी के साथ ही अंग्रेजी के भी शब्द आ गए हैं  उदा. देखिये -
रेलोओओ रेरेलोयो रेलो रेरेला रेलाआआ
सिंगी बांगा  जोपा परेसे
ओंदे बाबू सिंगी बांगा  जोपा परेसे
जोपा के दखुन टोड़से ना
ओंदे बाबू जोपा के दखुन टोड़से ना
लाईट दखुन साईट मारसे
ओंदे बाबू लाईट दखुन साईट मारसे
रेरेलोयो रेरेला रेलोओओ रेरेलोयो रेरेला

      आज तुकबंदी के कारण अंग्रेजी, छत्तीसगढ़ी, हिंदी, उड़िया आदि स्वतः ही इन गीतों में प्रश्रय पा रहे हैं गाने वाले को यह नहीं पता कि यह किस भाषा के शब्द हैं | दरअसल हल्बी बोली अभूतपूर्व है महाराष्ट्र का व्यक्ति यदि हल्बी सुनता है तो उसे इस  भाषा में आत्मीयता का आभास होता है तो ओड़िया भी हल्बी-भतरी से प्रभावित होता है एक छत्तीसगढ़िया व्यक्ति के लिए भी भाषा का माधुर्य प्रभावित करता है |
      वर्तमान समय में बस्तर की बोलियों  में पूर्व प्रकाशित हल्बी, गोंडी भाषा की कुछ सांस्कृतिक किताबों का पुनर्मुद्रण संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन द्वारा करवाया गया है. जो कि  शासन का स्तुत्य प्रयास है और आने वाले समय में लोक भाषाओँ का भविष्य निश्चय ही उज्जवल होगा ऎसी उम्मीद की जा सकती है|
      हल्बी में प्रकाशित साहित्य यद्यपि  विपुल संख्या में नहीं है परन्तु इस दिशा में अब जागृति उत्पन्न हो रही है. हरिहर वैष्णव द्वारा प्रकाशित बस्तर की लोकगाथा "धनकुल जगार" हल्बी को स्थापित करने, उसके उन्नयन की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है | इसकी एक झलक -
आया बालें मयं दंतेसरी
आया बालें मयं दंतेसरी
जगार नेवता पड़े परभू
जगार नेवता पड़े
बाटे आसे मोर नौंदेल कुंआ
बाटे आसे मोर नौंदेल कुंआ
पांय पखारी आव दाई
पांय पखारी आव

      इसके अलावा बस्तर में काम करने वालों में लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव अग्रणी पंक्ति में आते हैं. वहीं शकुंतला तरार द्वारा संकलित बस्तर की  लोक कथाएं हिंदी में प्रकाशित है तो "रांडी माय लेका पोरटा" के नाम से गेय लोककथा का संकलन कर उसका हल्बी से हिंदी और छत्तीसगढ़ी में शब्दशः अनुवाद करके पाण्डुलिपि प्रकाशन हेतु तैयार किया गया है | साथ ही हल्बी भतरी के लोक गायक, भजन गायक, रामायण के टीकाकार रतनलाल देवांगन एवं उनकी धर्मपत्नी जमना बाई देवांगनकोंडागांव के  द्वारा सुनाये गए और गाये  गए हल्बी-भतरी के लोक गीतों और लोक कथाओं का संकलन करके उसका भाषाशास्त्रीय परिचयप्रकाशन हेतु तैयार किया गया है आवश्यकता है तो सिर्फ एक प्रकाशक की | एक बाल साहित्य जो कविताओं पर केन्द्रित है, तथा एक 100 लेजा गीत प्रकाशन को तैयार है|
      हीरालाल शुक्ल द्वारा लिखित और लाला जगदलपुरी द्वारा अनुदित हल्बी रामायण के एक भाग में "सीता बिहा" नाम से गिरधारी लाल रायकवार ने नाटक की रचना की है| इसी तरह छुटपुट साहित्य के रूप में बस्तर की बोलियों के लिखित साहित्य हमारे  बीच यदाकदा दिख जाते हैं|  हरिहर वैष्णव ने ककसाड नामक एक लघु पत्रिका का सम्पादन किया था |वहीँ जगदलपुर से हल्बी गीतों कविताओं का संकलन ''चिड़खा'' के नाम से प्रकाशित हुई है|
      बस्तर चूँकि तीन प्रान्तों से घिरा हुआ है अतः दक्षिण बस्तर में भोपालपट्टनम,कोंटा आदि क्षेत्रों में दोरली बोली जाती है जिसमें आंध्रप्रदेश से लगे होने के कारण तेलुगु का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है| दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा दण्डामी बोली का क्षेत्र है| जगदलपुर, दरभा, छिन्द्गढ़ धुरवी बोली का क्षेत्र है| कोंडागांव क्षेत्र केमुरिया अधिकतर हल्बी बोलते हैं | नारायणपुर घोटुल मुरिया और माड़िया क्षेत्र है|वर्तमान समय में गदबा बोली विलुप्ति का दंश झेल रहा है |
      हल्बी बोली में जहाँ उड़िया,मराठी और छत्तीसगढ़ी के शब्द पाए जाते हैं तो भतरी उड़िया से प्रभावित है|बस्तर की खासियत यह है की यहाँ की बोलियाँ आपस में संवाद करती हुई मालूम होती हैं| वे कहती हैं हम सब आपस में सगी बहनें हैं क्यूंकि हमारा जन्म बस्तर की माटी में हुआ है| जिस तरह नदी अपने साथ छोटी-छोटी नदियों को लेकर एक बड़ी नदी का रूप धारण करती है उसी तरह हमारी भाषा और बोलियाँ हैं | यदि बोलियाँ समृद्ध होंगी तभी भाषा मजबूत होगी हमारी बोलियाँ मिलजुल कर राजभाषा, राष्ट्रभाषा को समृद्ध करेंगी|
      बस्तर के बारे में यह कहावत सही मालूम होती है कि कोस-कोस में पानी बदले चार कोस में बानी| जैसे ही हम चारामा की सीमा में प्रवेश करते हैं छत्तीसगढ़ी का वो शब्द जैसे- कोन  डाहर जावत हस - वह हो जाता है कोन राहा जा-थस- फिर जैसे ही हम केशकाल की घाटी पार करते हैं बस्तरिया शुरू हो जाता है और वह कोंडागांव से लेकर जगदलपुर, नारायणपुर, दंतेवाडा सभी जगह  चलता है जैसे - कोन बाटे जाथस, हल्बी में - कोन बाटे जासीत, भतरी - कोन बाटे जायसी आची वहीँ जातिगत बोली कोष्टा में - केते जथास हो जाता है |
      जब हम साहित्य की बात कर रहे हैं तो उन लोक गीतों को बिसरा नहीं सकते जो, निश्चल भावनाओं  से ओतप्रोत, सुमधुर कंठों से गुंजित होने वाले शब्दों की ध्वनियों, प्राकृतिक सौंदर्य से निकली बस्तर की मीठी-मीठी बोलियों से गुंजायमान होती हैं|लेजा, झालियाना, मारीरोसोना, परब नृत्य गीत, ककसाड़, रीलो, करमा बस्तर के प्रमुख लोक गीत विधा हैं जिनमें बोलियों की मिठास झलकती है- चांदनी रात में जब परब नृत्य गीत में युवक-युवतियों का दल झूमने लगता है --
1-नंदी कठा-कठा गागुआय रे बगनी बागो,
गागुआय रे बगनी बागो,
धान मिरी बड रागो दादा
जानी चीनी करी लागो--
2-डाल खाई रे आँखी मारी दिले बायले मिरे
आया बूबा नाँई  मिरे डाल खाई रे
डाल खाई रे मैना
आया बूबा नाँई  मिरे --
उसी तरह पौष पूर्णिमा के दिन गाया जाने वाला छेरता गीत –
झिरलीटी- झिरलीटी
पंडकी मारा लिटी रे
नकटा छेर छेर –

      लोक, लोक चेतना और उससे उपजी संस्कृति किसी भी सभ्यता की, किसी भी साहित्य की परिचालक शक्ति होती है. जो साहित्य अपने लोक की चेतना और संस्कृति से जितना जुड़ता है उतना ही वह सच्चा और प्रतिनिधि होता है उतना ही लोकव्यापी व कालजयी होता है अपनी लोक संस्कृति का सच्चा प्रतिरूप होने की वजह से तुलसी की चौपाईयां, सूर और कबीर के पद ऐसे लोगों के होठों में बस गए जिन्हें अक्षर का भी ज्ञान नहीं है | वह शायद इसलिए कि उन्होंने इसे अपनी भाषा-बोली में लिखा ठीक उसी तरह बस्तर की लोक बोलियाँ हैं जो किसी अन्य भाषा बोलियों की बैसाखी लिए बिना आज भी निरंतर गतिमान हैं| इन्हें संजो कर रखना ही होगा अन्यथा बस्तर की लोक बोलियाँ कब विलुप्त हो जाएँगी हमें पता भी नहीं चलेगा |
                                                                       
                                                                   शकुंतला तरार
                                           प्लाट न.-32, सेक्टर-2, एकता नगर,
                                                            गुढ़ियारी, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                                                      मो.-09425525681, 07770810556,