लेख- शकुंतला तरार
''छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति एवं उसका भाषा माधुर्य''
आदिकाल से ही प्रकृति की लोक लुभावनी रम्य छटा नीले -नीले अम्बर, चन्द्रमा की शीतल चांदनी, झिलमिलाते तारे, पेड़ - पौधों की हरियाली, रंग बिरंगे फूल, नदी-नाले, पर्वत, झरने, बादल-वर्षा, विराट जंगल, पर्वत श्रृंखलाएं, पक्षियों की चहचहाहट, भ्रमरों का सुर से सुर मिलाना, इन्द्रधनुषी सप्त रंग, चारों ओर बिखरा माधुर्य और सौन्दर्य मानवीय भावनाओं को झंकृत करने में सक्षम है | कहीं रहस्यात्मक अनुभूति तो कहीं प्राकृतिक उल्लास की गहरी छाप और इसी अनुभूति उल्लास की आल्हादकारी अभिव्यंजना के मध्य पुष्पित पल्लवित होती है यह छत्तीसगढ़
की लोक संस्कृति |
लोक संस्कृति
चाहे किसी भी प्रदेश की हो उसका संरक्षण, संवर्धन लोक कलाओं के माध्यम से होता है।
लोक साहित्य की परंपरा मौखिक होती है, वह क्षेत्रीय भाषा के सहारे, विगत के सहारे, पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए शब्द मञ्जूषा में कैद होकर भविष्य के
लिए सुरक्षित, संरक्षित होता है तथा यह देश काल परिस्थितियों के अनुसार निरंतर
विकसित होता है| जीवन यापन, जीविकोपार्जन, कार्य कलाप संघर्ष, दुःख पीड़ा, तनाव आदि
समस्याओं से मुक्त होकर एक पारिवारिक एवं स्वच्छंद वातावरण में आनंद और उल्लास के
साथ शनै-शनै विकसित होकर पुष्पित, पल्लवित होता है यही उसका
उज्ज्वल पक्ष है।
जब
हम छत्तीसगढ़ की संस्कृति की बात करते हैं तब हम स्वभावतः उन क्षेत्रीय परम्पराओं
की ओर आकर्षित होते हैं जिनमें यहाँ के रीति-रिवाज़ परम्पराएँ, उत्सव ,
व्रत,त्यौहार, कर्मकांड, वेशभूषा एवं बोलियाँ सभी सम्मिलित होते हैं जो छत्तीसगढ़
की संस्कृति को एक मानक स्वरूप प्रदान करते हैं |
छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य में यहाँ के
रीति-रिवाज़ एवं संस्कारों की अहम् भूमिका है जंत्र-मन्त्र, टोना-टोटका, का
अधिकाधिक प्रयोग ग्रामीण अंचलों में देखने को मिलता है। संभव है कि आदिकाल से ही मानव ने अपने मन में
छुपे हुए भय के कारण ही यह मार्ग अपनाया होगा जो कि आज हमारे सम्मुख अंधविश्वास के
रूप में खड़ा है | वैसे इतिहास के पन्ने यदि हम पलटकर देखें तो हमें ऐसा प्रतीत
होता है कि प्राचीन काल से ही मानव सहनशील एवं परिश्रमी रहा है | वैदिक काल से ही चली
आ रही तपोवन संस्कृति ने, ऋषि-मुनियों की तपोभूमि को, लोक परंपरा को, पथप्रदर्शक के रूप में अग्रेसित
किया है | तभी तो द्वारकाधीश होने पर भी कृष्ण को ब्रज नहीं बिसरता | उनकी लीलाएँ,
ललित कलाएँ, लोक कला ही तो हैं। राम को
अपना रामत्व विभिन्न लोक समुदायों के बीच ही प्राप्त होता है| तुलसी की चौपाइयाँ
सूर और कबीर के पद लोगों की जुबान पर ऐसे बस गए जैसे वे बहुत शिक्षित हों किन्तु
जिन्हें अक्षर का तनिक भी ज्ञान नहीं। तभी तो तुलसी कहते हैं -----
लोकहूँ वेद विदित सब
काहू |
लोकहूँ वेद सुसाहिब
रीति ||
अर्थात --जहाँ लोक की
रीति ही सुसाहिब की रीति है यानि लोक के मानदंडों से ही कोई सुसाहिब हो सकता है, होता है जहाँ रीति का
निर्धारण लोक का वेद करता है साहिब नहीं| वेद, पुराण, महाभारत, रामचरित मानस,
यहाँ तक की अभिज्ञान शाकुंतलम और मेघदूत सब वन में वास करने वालों के द्वारा रचे
गए | श्रीरामचंद्र जी जब तक इस संसार में रहे अधिकतर समय वनवासियों के साथ ही रहे,
फिर चाहे वह गुरुकुल हो या वनवास का समय या फिर शासन काल में हनुमान जी का साथ
रहा हो |
विराट महानदी-चित्रोत्पला की कल-कल पावन धारा
के तट पर स्थित शिवरीनारायण रामायण के युग की याद दिलाता है वहीँ श्री कृष्ण लीला
पर खेली जाने वाली रास जिसे हम रहस के
नाम से संबोधित करते हैं ग्राम नरियरा की पहचान बन चुका है। रावत
नाच बिलासपुर, तो ककसाड, लेजा, मारी रोसोना, चईत परब बस्तर की विशेष पहचान
है वहीं, सरहुल सरगुजा तथा कर्मा, ददरिया, सुवा, समस्त छत्तीसगढ़ की पहचान
है, तो पंथी नृत्य -गीत जाति विशेष को रेखांकित करता है |
अतः लौकिक, पारलौकिक, धार्मिक, राजनीतिक,
सामजिक क्षेत्र का मानव मन जो प्रभाव ग्रहण करता है और उसे आत्मसात करता है वहीँ
पर संस्कृति का निर्माण होता है। छत्तीसगढ़
की संस्कृति में कलात्मकता की भावना पग-पग पर दृष्टिगोचर होती है | भाषा का माधुर्य
इतना प्रबल है कि आज पूरे विश्व में छत्तीसगढ़ के लोक साहित्य के प्रति सभी का
आकर्षण बना हुआ है, यहाँ की संस्कृति अति प्राचीन है किन्तु
लिखित साहित्य की कमी अभी भी खटकती है | हमारा
लोक संगीत अभी भी गतिशील है | यहाँ लोक साहित्य, लोक संगीत, लोक नृत्य-गीत,
लोक कलाएँ यानि कि ललित कलाएँ समृद्धि एवं सामर्थ्य से परिपूर्ण हैं अतिथि देवो भव से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ में
विनम्रता, निश्छलता,सहनशीलता जहाँ कूट-कूट कर भरी हुई है वहीँ सरलता और शालीनता की
शीतल-शीतल छाँव के तले मेहमान की आत्मा स्वयं धन्य हो उठती है | गाली देने में भी
यहाँ शिष्टता का ही आभास होता है | यहाँ
के लोक जीवन की अपनी अलग विशिष्टताएं हैं जिनमें रहन-सहन, खान-पान, पहनावा
में सादगी है तो वहीँ कृषि संस्कृति से भरपूर यह धान का कटोरा परम्पराओं और विश्वासों की
संस्कृति है |
शकुंतला
तरार
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