Monday, February 12, 2018

स्वामी विवेकानंद और नारी उत्थान 12-02 -2018

जय माँ दंतेश्वरी
स्वामी विवेकानंद और नारी उत्थान
ये वो दौर था जब हमारे यहाँ नारी प्रताड़ना अपने चरम पर थी, राजा राम मोहन राय ने भारतीय समाज में चली आ रही सती प्रथा का उन्मूलन कर दिया था जिसे 1829 में अंग्रेजों ने भारत में इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया जिसके बाद इस प्रथा का समूल अंत हो गया | किन्तु क्या वास्तव में नारी प्रताड़ना का इससे अंत हो गया था |
 12 जनवरी 1863 को जब स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ भारत अंग्रेजी दासता में जकड़ा हुआ त्राहि-त्राहि कर रहा था, कहते हैं साधु, संत, महात्माओं, मनीषियों का जन्म यूँ ही अकारण नहीं होता बल्कि इश्वर उन्हें विशेष प्रयोजन के लिए धरती पर भेजता है अपने अंश के रूप में, ताकि वे समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर कर समाज को नई दिशा प्रदान कर सकें |
  ऐसे ही एक सन्यासी को ईश्वर ने हमारे बीच भेजा ताकि वे समाज में हो रहे अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न के खिलाफ लोगों को एक जुट कर सामाजिक चेतना जाग्रत करें। समाज में सुधार ला सकें और उस महापुरूष का नाम था नरेन्द्र दत्त, जो कालान्तर में स्वामी विवेकानन्द के नाम से जाने गए।
       स्वामी जी जैसे महापुरुषों की मृत्यु नहीं होती है,  देह मरता है आत्मा अजर है, अमर है और अमर होते हैं वे अपने आदर्शों से, विचारों से, कर्मों के द्वारा| वे अपने युग के सर्वश्रेष्ठ विभूति थे जिन्होंने अमेरिका और यूरोप में जाकर हिंदू धर्म के कल्याणकारी होने की बात कही जिससे प्रभावित होकर अनेक अमेरिकी और अंग्रेज  हिंदू धर्म  अपनाकर उनके शिष्य बन गये थे। इसी तरह शिकागो की धर्मसभा में भी कई अमेरिकी उनके शिष्य बन गए थे |
       स्वामी जी के मन में गरीबों, दीन-दुखियों और नारी जाति के प्रति अपार श्रध्दा थी। वे कहते थे कि  स्त्री-पुरूष देह रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। उनका मानना था कि देश के सर्वांगीण विकास के लिए दोनों पहिए स्वस्थ्य, शिक्षित और सबल हों।  अर्थात देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए स्त्री और पुरुष दोनों को ही बराबरी का दर्जा प्राप्त होना चाहिए।
      स्वामी विवेकानन्द ने राष्ट्र के निर्माण में स्त्री शक्ति की महत्ता को स्वीकार किया है, उनका कहना था कि यदि हमें सामाजिक आजादी प्राप्त करना है तो महिलाएँ स्वतंत्र आत्मनिर्भर एवं आत्मशक्ति से भरपूर हों। इसी उद्देश्य को लेकर स्वामी जी ने लंदन में रह रही अपनी शिष्य सिस्टर निवेदिता को भारत बुलाया।
     सिस्टर निवेदिता को भारत बुलाने का उद्देश्य था कि महिलायें शिक्षा की ओर उन्मुख हों। लंदन में 1896 में स्वामी जी ने भगिनी निवेदिता से कहा कि  में चाहता हूँ कि अपने देश में स्त्री शिक्षा हेतु कुछ कार्य करूं और इस कार्य में आप काफी मददगार सिध्द होंगी।  स्वामी जी के आभामण्डल से सम्मोहित सिस्टर (भगिनी) निवेदिता भारत आई और कलकत्ता के बाग बाजा़र में 13 नवम्बर 1898 को एक नए तरह के शिक्षण संस्थान की स्थापना की उन्होंने । उनका कहना था कि  मेरी इच्छा है कि मैं स्वामी जी के समाज के प्रति किया जाने वाला जो प्रेम है उसका दासत्व स्वीकार कर लूं क्योंकि जिस समाज से वे इतना प्रेम करते हैं उस समाज की सेवा के लिए मैं अपने आपको समर्पित कर दूँ ।
     इधर स्वामी जी ने भी भगिनी निवेदिता को उत्तरदायित्व सौपते हुए कहा कि - जिस देस में या जिस घर में स्त्रियों की स्थिति ठीक नहीं है, वे कष्ट  में हैं, जहाँ  उन्हें सम्मान ना मिलता हो उनको कोई स्थान ना दिया गया हो, उस परिवार या उस देश की उन्नति की आशा व्यर्थ है। इसलिए सर्वप्रथम स्त्रियों की स्थिति में सुधार लाओ, उन्हें शिक्षित करो, उन्हें समर्थ बनाओ, उनमें आत्मविश्वास जगाओ, उन्हें सम्मान दो। इस कार्य के लिए शिक्षित स्त्रियों को एक आदर्श मठ की शुरूआत करनी होगी। सामाजिक उन्नति के लिए यह आवश्यक है। अपने गुरू के इस कथन को, संकल्प को साकार रूप प्रदान करने के लिए भगिनी ने भी दायित्व को स्वीकार किया और आजीवन उस दायित्व का निर्वाह करती रहीं।
     देश उस वक्त गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। नारी अस्मिता की रक्षा करना, उन्हें कर्तव्य पथ की ओर उन्मुख करना, उन्हें शिक्षित करना, स्वावलंबन की दिशा देना, स्वामी जी का मुख्य उद्देश्य था। अंग्रेज नहीं चाहते थे कि भारत विकास की दिशा की ओर अग्रसर हो वे उन्हें पैरों तले कुचलना चाहते थे | गरीबों का भरपूर शोषण किया जा रहा था तब स्वामी जी सबको जाग्रत करते कहते- सर्व प्रथम स्त्रियों का उद्धार करना होगा, समान जन के हृदय में जागृति लानी होगी तभी अपने देश भारत की उन्नति होगी। उसका भविष्य उज्जवल हो सकेगा।
     माता सीता उनकी आदर्श थीं। वे कहते- प्रत्येक हिन्दू नर नारी के रक्त में सीता विराजमान हैं हम सभी सीता की सन्तान हैं। सीता मूर्तिमान सतीस्व थीं। उन्होंने अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के शरीर का स्पर्श तक नहीं किया । भारत में जो कुछ पवित्र है विशुद्ध है जो कुछ पावन है उन सबका सीता शब्द से बोध हो जाता है | नारी में जो नारी जनोचित गुण माने गए हैं सीता शब्द उन सबका परिचायक है।
     स्वामी जी का मानना था कि भारतीय नारी ने त्याग- तपस्या, पवित्रता, धैर्य, दया, संतोष, सेवा, क्षमा आदि सदगुणों का विकास करके राष्ट्र की सांस्कृतिक उदात्तता और आध्यात्मिकता के उच्च स्तर को अक्षुण्ण बनाये रखा है।
     स्वामी जी ने जिन महिलाओं की शिक्षा, स्वतंत्रता और स्वालंबन की कल्पना की थी आज इक्कीसवीं सदी में वह साकार रूप ले रहा है किन्तु आज की नारी जो उच्चश्रृंखल हो गई है | टीवी, चलचित्रों में, विज्ञापनों, पोस्टर आदि में जो अपनी नग्न देह का भौंडा प्रदर्शन कर रही है इसकी तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। यदि आज के समय में वे जीवित होते तो अशिष्टता की सीमा पार कर रही इन महिलाओं के नैतिक पतन को देखकर उनका दिल टूट जाता। ऐसा नहीं कि वे महिलाओं की स्वतंत्रता के विरोधी रहे हों बल्कि उन्होंने तो महिलाओं के स्वावलंबन के लिए कठोर संघर्ष किया है।
     जब वे अमेरिका में थे तो यह देखकर हैरान हो गए थे कि वहाँ  की स्त्रियाँ ट्रामगाड़ी चलाती हैं। दफ्तर जाती हैं, स्कूल जाती हैं, प्रोफेसरी करती हैं इस तरह वहाँ की महिलाओं को पंछियों की तरह स्वाधीन देखकर दंग रह गए थे और वहाँ से उन्होंने अपने मित्र को विस्मय के साथ यह पत्र लिखा कि- मैंने जैसी शिष्ट और शिक्षित महिलायें यहाँ देखी वैसी कभी कहीं नहीं देखी। हमारे देश में शिक्षित पुरूष हैं परन्तु शिक्षित महिलायें मुश्किल से ही कहीं-कहीं दिखाई देती हैं। मैंने यहाँ हजारों ऐसी महिलाएँ देखी, जिनके हृदय हिमालय के समान पवित्र और निर्मल हैं। अहा। वे कैसी स्वतंत्र होती हैं। सामाजिक और विद्धालय महिलाओं से भरे हैं और हमारे देश में महिलाओं के लिए राह चलना भी निरापद नहीं।

  स्वामी जी पाश्चात्य महिलाओं की तुलना जब अपने देश की महिलाओं से करते थे तो पाते थे कि वहाँ की महिलाओं को लोग शक्ति के रूप में देखते हैं । इसलिए वे इतनी सुखी, विद्वान, उद्योगी और स्वंतत्र हैं किन्तु हमारे यहाँ स्त्री प्रताड़ना की शिकार होती है। उन्हें नीच, अधम समझा जाता है इसीलिए ही तो हम लोग दरिद्र उद्यमहीन और दास हो गए। परन्तु कहीं-कहीं स्वामी जी इस बात से संतुष्ट नजर आते थे कि हमारे यहाँ की स्त्रियों में नैतिकता और आध्यात्मिकता है वे विद्वान भले ही नहीं हैं परन्तु पाश्चात्य की तरह बुराई को गुलाबों के नीचे ढंककर रखने का यत्न नहीं करती। अपने आदर्शों की तिलांजलि नहीं देती।
     वे बाल विधवाओं की अधिक संख्या देखकर द्रवीभूत हो जाते और कहते कि बाल विवाह रोका जाना चाहिए। वे चाहते थे कन्याओं का विवाह कुछ अधिक आयु में हो उनका लालन-पालन सुसंस्कृत ढंग से हो तो वे ऐसी सन्तानों को जन्म देंगी जिनसे देश का कल्याण हो सकेगा। घर-घर में बाल विधवा पाए जाने का मूल कारण वे बाल विवाह को ही मानते थे।
     दरअसल स्वामी जी की माता जी- भक्तिमय जीवन जीने वाली, उच्च चरित्र की, उदार, सुशील, कर्तव्यनिष्ठ और वीरत्वपूर्ण संस्कारों की सजीव प्रतिमा थीं। परिवार के इस सुसंस्कृत वातावरण का नरेन्द्र नाथ के मनोमस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। वे कहते मातृ पद ही संसार में सबसे श्रेष्ठ पद है। क्योंकि यही एक ऐसी स्थिति है जहाँ निस्वार्थता की महत्तम शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। केवल भगवत प्रेम ही माता के प्रेम से उच्च बाकि सब तो निम्न श्रेणी के हैं।
     स्वामी जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि जब पहली-पहली बार धर्म की यात्रा पर अग्रसर हुआ तो मेरे घर का रास्ता जो था वह वेश्याओं के मोहल्ले से गुजरता था। संन्यासी होने के कारण मैं उस रास्ते न जाकर मील दो मील का चक्कर लगाकर घर पहुँचता । मैं सोचता यह मेरे संन्यास का रूप है किन्तु सत्य तो यह कि उन वेश्याओं  के मोहल्ले का आकर्षण ही था। जो विपरीत हो गया था। क्या फर्क पड़ता यदि वहाँ से गुजरे भी तो, एक बार वे जयपुर के पास एक रियासत के राजा के मेहमान बने थे। राजा ने आवभगत की, स्वागत सत्कार किया। साथ ही बनारस से एक वेश्या बुला ली उनके मनोरंजन के लिए। ऐन मौके पर जब स्वामी जी को पता चला उन्होंने सभा में जाने से मना कर दिया | उधर जब उस वेश्या को पता चला तो वह भी बहुत दुखी हुई, उसने नरसीं मेहता का एक भजन गाया जिसका भाव यह था कि लोहे का एक टुकड़ा पूजा घर में भी होता है और कसाई के घर में भी। लेकिन पारस की खूबी यह कि वह दोनों को सोना कर दे, अगर पारस यह कहे कि वह जो मंदिर में लोहे का टुकड़ा है मैं उसे सोना कर सकता हूँ, कसाई के घर का लोहे का टुकड़ा नहीं कर सकता तो समझो वह पारस नकली है। (कहीं मैंने पढ़ा था कि उस वेश्या ने तब सूरदास का भजन प्रभुजी मेरे अवगुण चित न धरो गाया था | )  
     स्वामी जी ने जब यह भजन सुना वे कांप गए उनकी ऑखों से अविरल अश्रु की धारा बह रही थी उन्होंने वेश्या को देखा। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा कि उस दिन मेरे मन में पहली बार संन्यास का जन्म हुआ क्योंकि, उस दिन वेश्या में भी मुझे माँ ही दिखाई पड़ी।
     अतः स्वामी विवेकानन्द जिन्हें एक वेश्या में भी माँ की झलक दिखाई दे वे उसे एक शक्ति  के रूप में प्रणाम करें ! धन्य है भारत की यह धरती, उस पुरुषार्थ के लिए जिन्होंने देश- विदेश में घूम-घूमकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की और मनुष्यों को मानवता का संदेश दिया। धन्य है छत्तीसगढ़ की वह पावन धरा रायपुर जहां स्वामी जी ने अपनी किशोरावस्था के दो वर्ष व्यतीत किये। उस पावन चरण को मेरा कोटि-कोटि नमन |

संदर्भ -

विवेकानन्द साहित्य
ज्योतिपुंज भगिनी निवेदिता-मीना शर्मा
स्वामी विवेकानन्द और उनका अवदान - स्वामी विदेहानन्द

                                  - शकुंतला तरार
                                  प्लाट नं.-32, एकता नगर,
सेक्टर-2, गुढि़यारी,


रायपुर (छ.ग.)