Sunday, June 22, 2014

''सूरज'' कविता

''सूरज''
सूरज
प्रकृति को अपने अंक में समेट कर 
भोर मुहाने आ खड़ा होता है 
हर दिन 
उसकी किरनें उतरने लगती हैं जब 
आँखों में 
हौले-हौले पंछी अपने पर फड़फड़ाते हैं 
हल-बैल ले किसान खेतों की और जाता है 
दूर कहीं से मंदिर से घंटियों की 
आती आवाजें
तब कोई शीतल हवा का झोंका
चुपके चुपके आकर मेरे कानों में कहता है
एरी सखी!
तू क्यूँ अब तक गुमसुम सी पड़ी है
उठ!
आजा
आज का नया दिन
तेरे स्वागत में पलक पावड़े बिछाये
तेरा इंतज़ार कर रहा है ----शकुंतला तरार

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