Sunday, June 8, 2014

बुजुर्गों की तरह रक्षा करते ये पेड़

              बुजुर्गों की तरह रक्षा करते ये पेड़ 


           मेरे घर के सामने एक बंगाली परिवार रहता है. उनके घर दादा की  मृत्यु को लगभग दस साल हो गए हैं दादा तो चले गए किन्तु उन्होंने जो बिरवा रोपा था आम के रूप में वह आज बहुत बड़ा पेड़ बन गया है उसे देखकर मुझे ठंडी शीतल छांह का एहसास होने लगता है . आज अल सुबह से ही कोयल बहुत जोर-जोर से कूक रही थी. कोयल की कूक से मन तरंगित होने लगा था यूँ लग रहा था मानो  मैं किसी दंडक बन में विचर रही हूँ और कोयल की  मीठी तान सुन रही हूँ  कई सितार एक साथ बज उठे हों जैसे कहीं पास ही में झरनों का कलकल निनाद --जीवन में कितना सुकून, कितना आनंद है उस एक क्षण ने मुझे एहसास करा दिया था ..तभी स्मरण हुआ कि विकास की रफ़्तार ने हमारे इन बड़े- बड़े छायादार वृक्षों को  अपने अपने ऊपर कुल्हाड़ी चलाने को मजबूर कर दिया है आज हम थक कर किसी पेड़ की छाँव तले  सुस्ताने की कल्पना भर कर सकते हैं. जैसे -जैसे दिन चढ़ता गया कोयल की आवाज़ मद्धम होती गई और वह इस वक्त बिलकुल भी चुप हो गई है . 46 डिग्री तापमान में भला किसकी मधुर स्वर लहरी गूंजेगी . आज सारे पेड़ों को कटवाकर हम वास्तु  के पीछे भाग रहे हैं घर के  गमलों में पीपल, बरगद, नीम, नीबू, संतरा के बोन्साई लगा रहे हैं वहीँ बांस के शो पीस सजा रहे हैं, पुराने ज़माने में घर के चारों और हरियाली ही हरियाली होती थी लोग घर बनाने से पहले पेड़ पौधों के बारे में सोचते थे घर पर ही बाड़ी में नीम, आम, इमली, अमरुद आदि के पेड़ लगाये जाते थे जहाँ फल तो हमें मिलता था साथ ही दिल को सुकून पहुँचाने वाली ठंडी हवाएं, गरमी में ठंडी शीतल छाँव, पूजा की लकड़ी एवं अन्य ज़रूरतों के सामान भी. हर्रा, बहेड़ा, आंवला, महुआ ये भी कहीं न कहीं दिख ही जाते थे ...मेरे पिता स्व. रतनलाल देवांगन जब तक जीवित रहे आम की छाल की शर्तिया दवा बना कर  दस्त पीड़ित को पिलाते थे तो पेचिश का कैसा भी मरीज हो एक खुराक में ही आराम महसूस करने लगता था ---आज हमारे बुज़ुर्ग एक-एक कर जा रहे हैं साथ ही बुजुर्गों की तरह हमारे रक्षक ये पेड़ भी विलुप्ति के कगार पर हैं. आने वाली पीढ़ी के हाथ लगेगा तो सिर्फ बोन्साई, गमले के फूल-पत्ते और रस हीन, गंधहीन केवल खूबसूरत दिखने वाले पेड़ पौधे....शकुंतला तरार -09-06-2014 





No comments:

Post a Comment