Friday, January 29, 2016

“शहीद वीरनारायण सिंह” -10-दिसंबर

छत्तीसगढ़ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी
शहीद वीरनारायण सिंह  
10-दिसंबर 

      जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं ।
      वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।।
                                         (राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त)
     इतिहास के पन्ने यदि हम पलटें तो देश की आजादी के लिए स्वतंत्रता संग्राम में सभी धर्म, जाति, सम्प्रदाय के लोगों ने बिना किसी भेदभाव के देश भक्ति की भावना से प्रेरित होकर बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था, तन-मन-धन से सर्वत्व न्यौछावर किया था। प्राकृतिक सम्पदा से युक्त गौरवशाली ऐश्वर्य से अभिमण्डित हिमालय से कन्याकुमारी तक के इस भू-भाग पर स्थित माँ भारती अपनी करोड़ों भारतीय संतानों के होते हुए भी निराश्रित हो गई थी, दीन-हीन दुर्बल हो गई थी, गुलामी का अभिशाप ढोते-ढोते थक गई थी। उसकी संतानें भूखी, प्यासी, कुंठित, शोषित और अज्ञानता से ग्रस्त थीं। तब उनमें जज्बा और जोश भरने, जागरूकता पैदा करने, हमारे वीरों ने देशवासियों को उनकी इस दीन-हीन दशा का बोध कराया था, देश के लिए जीने और देश के लिए मरने का भाव उत्पन्न कराया था और अपना प्राणोत्सर्ग किया था।
     भारत की दुर्दशा से व्यथित अन्यायी शासन के विरूद्ध 1857 में झांसी में महारानी लक्ष्मीबाई ने नारी होकर भी अपनी प्रजा के लिये, अपनी झांसी के लिये, संघर्ष का बिगुल फूंका और समरभूमि में कूद पड़ी थी। क्या एक झांसी ही अंगे्रजों के दमन चक्र में था, किन्तु देश के लिए अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिए, आतंक के विरूद्ध उठ खड़े होने का विरोध का साहस हर किसी में हो यह जरूरी तो नहीं ।
तम को पराजित करने का बिहान वन्दे मातरम्।
चहुं दिसि शोभित झरनों का जय गान वन्दे मातरम्।
(शकुंतला तरार)
     भारत एक कृषि प्रधान देश है और धान का कटोरा कहे जाने वाले छतीसगढ़ में भी तब राजा-महाराजाओं का शासन था, जमींदारी थी, मालगुजारी थी। कुछ अत्याचार सहने के आदी होते है, समर्थ के आगे झुक जाते हैं वहीं कुछ लोगों से अत्याचार सहन नहीं होता और वे मातृभूमि की रक्षा के लिये विद्रोही तेवर अपना लेते हैं। तब शुरू होता है उनके दमन का सिलसिला। मगर देशभक्त किसी के आगे झुकते नहीं अत्याचारों को सहते नहीं।
     छत्तीसगढ़ की माटी ने भी सोनाखान नामक जमींदारी में 1795 में एक बिंझवार आदिवासी के घर में एक प्रेरणास्पद देश भक्त को जन्मा था । नाम था जिसका ‘‘नारायण सिंह। जिसे आज लोग मातृभूमि पर मर मिटने वाले आदिवासी जननायक ‘‘शहीद वीर नारायण सिंह के नाम से  जानते हैं और संबोधित करते हैं। 1818-19 के दौरान आपके पिता जमींदार रामसाय ने भी अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह किया था किंतु कैप्टन मैक्सन द्वारा विद्रोह को दबा दिया गया और क्षेत्र में उनके प्रभाव, आदिवासी संगठन शक्ति को देखते हुए उनसे संधि कर ली। पिता की मृत्यु के पश्चात 1830 में वीर नारायण जमींदार बने। जब सोनाखान का विलय कर अंग्रेजों ने 1854 में उनपर टाकोली (कर) लगा दिया तब नारायण सिंह ने उसका विरोध किया और तभी शुरू हुआ दमन का सिलसिला। रायपुर के डिप्टी कमिश्नर इलियट जमींदार के विरोधी हो गए।  1857 में जब देश जल रहा था उसके ठीक पहले  1856 में छत्तीसगढ़ में भीषण सूखा पड़ा । लोग दाने-दाने को तरसने लगे |    वीरनारायण सिंह ने देखा कि अंगे्रजों ने ‘‘धान का कटोरा में छेद कर दिया है, भूखी प्यासी जनता के सम्मुख रोजी-रोटी की विकराल समस्या आ गई है, मगर वहीं कसडोल के साहूकार (व्यापारी) का गोदाम, अनाज से भरा हुआ है मांगने पर देने को तैयार नहीं है।   ऐसे समय में वे अपनी जनता के लिए गोदाम से अनाज न निकालते तो क्या करते, जमींदार थे वे, उनके आदेश का पालन किया जाना था, डर जाने वालों में से नहीं थे वे । वीर नारायण ने जनता के दिलों में राष्ट्रीय चेतना जगाने के लिए उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई। अदम्य साहस, जोश, वीरता, शौर्यता और राष्ट्र भक्ति से ओतप्रोत स्वाभिमान की रक्षा करते हुए उन्होंने साहूकार  के गोदाम के ताले तुड़वा दिये।  गोदाम से अनाज लूटा, भूखी जनता को तृप्त किया । व्यापारी की शिकायत पर अंगे्रज उनके पीछे लग गए उनके नाम वारंट जारी कर दिया, वे उन्हें छकाते रहे किन्तु अन्याईयों ने जनता को प्रताडि़त करना शुरू कर दिया। 24 अक्टूबर 1956 को संबलपुर से गिरफ्तार किये गये। 28 अगस्त 1857 को अपने तीन साथियों सहित जेल से भागने में कामयाब होकर सोनाखान में 500 साथियों की एक सेना बनाई किंतु भीषण संघर्ष के बाद भी वे पकड़े गये जेल गये।
     यह छत्तीसगढ़ की माटी का कर्ज था एक ईमानदार प्रजावत्सल, कर्तव्यनिष्ठ जमींदार पर जहां कि उन्होंने जन्म लिया था। देश के लिए जीये वे और देश के लिए ही उन्होंने प्राणोत्सर्ग किया उनके लिए यह पंक्ति कि -
वन्दना के इस स्वरों में, एक स्वर मेरा मिला लो
जब हृदय के तार बोले, श्रृंखला के बंद खोले
एक सिर मेरा मिला लो
(                                   (कवि सोहनलाल द्विवेदी)
सोनाखान में आज भी राजा सागर, रानी सागर, नंद सागर इस बात के साक्षी हैं कि वे सुंदर, हरा-भरा वातावरण के मध्य अपनी जनता को भयमुक्त, खुशहाल और सम्पन्न देखना चाहते थे। सोनाखान ही नहीं अपितु छत्तीसगढ़ की समस्त जनता को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराना चाहते थे वे। भोली-भाली आदिवासी जनता के दिलों में राष्ट्रभक्ति की चेतना जगाने में वे अग्रणी रहे । तभी तो अपने ही भाईयों के रक्त से विजय तिलक लगाने के बजाय स्वयं को सौंप दिया।   साक्षी है छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के मध्य स्थित रायपुर का हृदय स्थल जयस्तम्भ जहां अंगे्रजी हुकूमत ने 10 दिसंबर 1857 को सरेआम उन्हें फांसी पर लटकाकर अट्टहास किया था। पर क्या वीर सचमुच कभी मरते हैं , मरती तो देह है वे तो अमर रह जाते हैं एक गौरवपूर्ण इतिहास के रूप में।
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं
वह खून कहो किस मतलब का,  आ सके देश के काम नहीं||
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें जीवन न रवानी है
जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं पानी है -
  कवि गोपाल व्यास दास)

     एक छोटी सी जमींदारी सोनाखान, किन्तु हर वर्ष राज्य शासन द्वारा 10 दिसम्बर को उनकी शहादत दिवस को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए बिंझवार आदिवासी वीर शहीद की स्मृति में, उस पुण्य भूमि में हर बरस मेले का आयोजन किया जाता है, साथ ही लोक कला एवं लोक संस्कृति को संरक्षित करने के लिए आदिवासी लोक कला महोत्सव करवाकर प्रतियोगिता कराई जाती है और उन्हें प्रोत्साहन स्वरूप पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं।
     अभिमान है छत्तीसगढ़ की इस धरा को जिसने वीर नारायण सिंह जैसे सच्चे देशभक्त को जन्म दिया। इस महान चरित्र पर छत्तीसगढ़ को पूरा अधिकार है अभिमान करने का। इतिहास के पन्नों पर सुनहरे अक्षरों में शहीद वीरनारायण सिंह का नाम हमेशा अंकित हो गया उनके लिए श्रद्धा सुमन इस तरह कि -
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पे मरने वालों का यही बाक़ी निशान होगा ||
-जगदम्बा प्रसाद मिश्र “हितैषी”

   

     शकुंतला तरार
     प्लांट नं. 32, सेक्टर-2, एकता नगर

     गुढि़यारी रायपुर  (छ.ग)

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