Friday, February 5, 2016

लेख-‘‘बस्तर – घोटुल गुड़ी का सौंदर्य और आदिवासी नारी’’

‘‘बस्तर – घोटुल गुड़ी का सौंदर्य और आदिवासी नारी’’
     नैसर्गिक सौंदर्य के मध्य आदिम सभ्यता के सानिध्य में पुष्पित पल्लवित होता हुआ वह बस्तर, जिसके हृदय में सरलता, सौम्यता का विशाल सरगी वन है, उसे इक्कीसवीं सदी तक आते –आते कई वर्ष लग सकते हैं। धन्य है उस माटी  को जो छल-छद्म से कोसों दूर निश्छल जीवन के हिंडोले भरता चाँदनी रात में घोटुल गुड़ी में पलता है, खेलता है, कूदता है, झूमता है, गाता है, मचलता है, इतराता है, और रचता है एक नया इतिहास। उसी घोटुल गुड़ी के आँगन मे बनते हैं जोड़े। कहते हैं की जोड़ा ऊपर से बनकर आता है जिसे ईश्वर ने सबके लिए नियत करके रखा हुआ है । अब जोड़ा ऊपर से बनकर आता है या  नहीं यह तो चर्चा का विषय है किन्तु बस्तर में जोड़ा घोटुल गुड़ी में  बनता है, जब चाँदनी रात में अविवाहित युवकों-युवतियों की टोली बाहों मे बाहों  डाले झूमते हैं, थिरकते हैं, एक दूसरे के साथ हँसी –ठिठोली करते हुये गीतों की शृंखला में आबद्ध हो जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे बागों मे कुसुम दल खिले हुए हैं, ताल- तलैया पोखरों मे कमलिनी, खिलकर मंद मंद मुस्कुरा रहे हों और उसके चारों ओर भँवरे मंडरा रहे हों भून-भून करते हुए। इसी गुनगुनाहट मे काव्य की वह सहज अभिव्यक्ति होती है की, व्यक्ति व्यक्ति न रहकर प्रेमी हो जाता है और स्वयं को स्वर्गलोक की अलौकिक आयानंददायक स्थिति मे पाता है। बरबस ही वह गुनगुनाहट शब्द का रूप ले लेते हैं और सुनाई दे जाते हैं गीतों के मधुर-मधुर से बोल।
     ठीक उसी तरह चाँदनी रात मे जब चईत परब नृत्य में युवक युवतियों का दल झूमता है तब नारी की प्रशंसा में जो गीत गाये जाते हैं उसके बोल कुछ इस तरह कि—
सुका सींयाड़ी भेलवाँ लसा डोबरी खाले चो आय
डंडकी दखून मुचकी मारे खोदरी गाल चो आय
लेजा रे  होय पापा खोदरी गाल चो आय
     ओह! क्या होता है नारी मन! कैसी होती है युवती जिसकी तुलना जंगल में होने वाले सींयाड़ी के फल से की गई है वह सींयाड़ी का फल जो सूख जाने की बाद अब खाने के लायक हो गया है और वह भेलवाँ भी हो गया है जिसका पका हुआ फल खाया जाता है किन्तु फल के नीचे का बीज वाले भाग से चिपकाने वाला लसा निकलता है अर्थात वह जंगली बेल वाला फल जो ऊपर से सख्त और भीतर से कोमल है वह चिपकने वाले गोंद की तरह मुलायम है, जो तालाब के उस पार रहती है , मैं जब उसे देखता हूँ तो वह मुस्कुरा देती है तब उसके गालों पर पड़ने वाले गड्ढों को देखकर मैं भौंचक्क रह जाता हूँ और बरबस मेरे मुँह से निकलता है..... सुनो ऐ गालों पर गड्ढे पड़ने वाली सुंदरी ? क्या तुम मेरे साथ लेजा गीत गाना और नृत्य करना चाहोगी।
     बस्तर के लोक गीतों में जो माधुर्य भाव है, रमणीयता है उसमें  अद्भुत शब्द विन्यास का आभास होता है। बाहर से आए सैलानियों में कुछ गंदी मानसिकता वाले भी होते हैं उन्होंने घोटुल को उन्मुक्त सेक्स का अड्डा बताया है यह सत्य नहीं बल्कि उनकी गंदी नीयत और गंदी मानसिकता की उपज है।
     घोटुल छिछली भावुकता का समावेश नहीं है बल्कि गहरी और  सूक्ष्म दृष्टि से कला को निरखने का अदम्य आंतरिक प्रयास जो परस्पर ओतप्रोत है भावों की गहरी समझ से। यहाँ सहज निश्छल प्यार की लीला है, स्नेह है, शिष्ट आचरण है, एक ही शर से बिंधे प्रेमी युगल हो सकते हैं किन्तु कामुक नहीं। बनता  है तब एक जोड़ा जो घोटुल गुड़ी के गीत गाते हुए कब राधाकृष्णमय हो जाते हैं पता ही नहीं चलता । उनकी इतनी ही अभिलाषा कि चाँदनी रात में वे उस चाँद को माध्यम मानकर अपने प्यार का इजहार कर सकें और जन्म-जन्मांतर तक एक दूसरे के हो सकें।
सचमुच वह जंगली सौंदर्य होता ही ऐसा है कि प्रिय का रूप सलोना देखकर बैकुंठ की भी चाह ना रहे। चंद्रमा सा मुख सलोना, कोयल सी वाणी, हिरनी सी चंचलता बरबस ही आकर्षित कर देने के लिए बाध्य कर देती है ।
     दरअसल हमारे लोक गीत आदिम युग से चले आ रहे वे मनोभाव हैं जो पारंपरिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती चली आ रही है।  परंतु इतर संस्कृति के संपर्क संबंधजन्य विकृतियों ने इसकी जड़ों को भी हिलाना शुरू कर दिया है ।
     आवश्यकता है सतर्क होने की, बचाना है हमें इस प्राचीन संस्कृति को।  उपाय खोजते-खोजते कहीं हम इसे खो न दें।  बहुत जल्द इसके संरक्षण, संवर्धन का उपाय खोजना  होगा अन्यथा घोटुल गुड़ी और आदिवासी संस्कृति केवल किताबों में रह जाएगा संस्मरणों के रूप में| शकुंतला तरार

लेख-बस्तर दशहरा-काछिन देवी अर्थात शक्ति पूजा


3-बस्तर दशहरा-काछिन देवी अर्थात शक्ति पूजा
(सन्दर्भ-पारंपरिक बस्तर दशहरा पर्व)
शकुंतला तरार
बस्तर अंचल छत्तीसगढ़ प्रदेश का एक ऐसा भूभाग है जो न सिर्फ यहाँ निवासरत अनुसूचित जाति-जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग की जीवन शैली, धन-धान्य, खनिज सम्पदा, वन, लौह अयस्क आदि के लिए जाना जाता है अपितु विश्व में सबसे लम्बी अवधि 75 दिनों तक चलने वाले दशहरा उत्सव के लिए भी जाना जाता है | यह पूर्णतः राजनीतिकरण से दूर आंचलिक पर्व है जिसमें छुआछूत,जाति-पांति के लिए कोई स्थान ही नहीं है | गाँव अनुसार, परम्परानुसार सबके अपने-अपने काम बंटे हुए होते हैं, पूरा बस्तर संभाग इसमें अपनी सहभागिता देता है| महाराजा, माय दंतेश्वरी और बस्तर के प्रमुख बाकी सारे देवी-देवताओं के सम्मान का प्रतिनिधित्व करता है यह पर्व |
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” यह पंक्ति यहाँ एकदम सही चरितार्थ होती है | इस पर्व की सबसे बड़ी विशेषता ही यह है कि यहाँ नारी शक्ति को विशेष महत्व प्राप्त है,चाहे वह महिषासुर मर्दिनी स्वरुपा देवी दंतेश्वरी हो या दशहरा उत्सव की प्रथम पूज्या देवी काछिन हो |
लगभग छै सौ वर्ष पुरानी इस परंपरा में दस दिन के दशहरे की शुरुआत काछिन गादी की परंपरा से होता है काछिन मिरगानों की देवी है जिसे दशहरा पर्व में विशेष गद्दी प्रदान की जाती है| स्थानीय बोली में इसे गादी कहते हैं यह गादी काँटों की होती है यानि उसमें कील लगे होते हैं जिस पर देवी को आसीन किया जाता है | मिरगान जाति जो नारायणपुर जिले के निवासी  हैं,(वर्तमान समय में जगदलपुर जिले में ही स्थापित हो चुके हैं) उनकी एक कुवांरी कन्या जिसकी उम्र लगभग 7-8 साल की होती है और जिसका चुनाव इस दैवीय कार्य के लिए उनका समाज स्वयं करता है, आश्विन (क्वांर) मास की अमावस्या के दिन पूरे राजकीय परम्परानुसार ससम्मानपारंपरिक वाद्यों के साथ कन्या का स्वागत सत्कार किया जाता है| जब कन्या पर देवी स्वयं सवार होती हैं तो पुजारी द्वारा देवी को गादी में आसीन किया जाता है जहां देवी की पूजा अर्चना की जाती है तत्पश्चात देवी प्रसन्न होकर  दशहरा का पर्व मनाने की अनुमति देती है |
जिस तरह आश्विन मास की अमावस्या को काछिन देवी की पूजा आराधना से बस्तर का दशहरा  शुरू होता है उसके बाद उसी आश्विन मास के शुक्ल पक्ष 12 यानि दो दिन पश्चात् दशहरा निर्विघ्न संपन्न होने की ख़ुशी स्वरूप ससम्मान विदाई के लिए काछिन जात्रा के द्वारा देवी का गुडी के समीप स्थित पूजामंडप में आवाहन किया जाता है और  उनको सम्मानित किया जाता है |
समय बदला लोग बदले किन्तु हमारे बीच विद्यमान कुछ प्राचीन परम्पराएं, संस्कृतियाँ हैं जो आज भी लोगों को जोड़े हुए है | नारी सम्मान का प्रतिनिधित्व करता है बस्तर का दशहरा  पर्व | परंपराओं, जनभावनाओं, संस्कृतियों की रक्षा करने उन्हें  बचाए रखने के लिए शासन का अपेक्षित सहयोग भी अवश्यम्भावी है |
एकता नगर,सेक्टर-2,प्लाट न.32, गुढ़ियारी रायपुर (छ.ग.)मो-9425525681

लेख-''छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति एवं उसका भाषा माधुर्य''



''छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति एवं उसका भाषा माधुर्य''
§  लेख- शकुंतला तरार 

   आदिकाल से ही प्रकृति की लोक लुभावनी रम्य छटा नीलेनीले अम्बर, चन्द्रमा की शीतल चांदनी,  झिलमिलाते तारे, पेड़ - पौधों की हरियालीरंग बिरंगे फूलनदी-नालेपर्वतझरनेबादल वर्षा, विराट जंगल, पर्वत श्रृंखलाएं, पक्षियों की चहचहाहट,  भ्रमरों का सुर से सुर मिलानाइन्द्रधनुषी सप्त रंग, चारों ओर बिखरा माधुर्य और सौन्दर्य मानवीय भावनाओं को झंकृत करने में सक्षम है | कहीं रहस्यात्मक अनुभूति तो कहीं प्राकृतिक उल्लास की गहरी छाप और इसी अनुभूति उल्लास की आल्हादकारी अभिव्यंजना के मध्य पुष्पित पल्लवित होती है यह छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति |
     लोक संस्कृति चाहे किसी भी प्रदेश की हो उसका संरक्षण, संवर्धन लोक कलाओं के माध्यम से होता है।  लोक साहित्य की परंपरा मौखिक होती हैवह क्षेत्रीय भाषा के सहारेविगत के सहारेपीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए शब्द मञ्जूषा में कैद होकर भविष्य के लिए सुरक्षित, संरक्षित होता है तथा यह देश काल परिस्थितियों के अनुसार निरंतर विकसित होता है| जीवन यापन, जीविकोपार्जन, कार्य कलाप संघर्ष, दुःख पीड़ा, तनाव आदि समस्याओं से मुक्त होकर एक पारिवारिक एवं स्वच्छंद वातावरण में आनंद और उल्लास के साथ शनै-शनै विकसित होकर पुष्पितपल्लवित होता है यही उसका उज्ज्वल पक्ष है।
      जब हम छत्तीसगढ़ की संस्कृति की बात करते हैं तब हम स्वभावतः उन क्षेत्रीय परम्पराओं की ओर आकर्षित होते हैं जिनमें यहाँ के रीति-रिवाज़ परम्पराएँ, उत्सव , व्रत,त्यौहार, कर्मकांड, वेशभूषा एवं बोलियाँ सभी सम्मिलित होते हैं जो छत्तीसगढ़ की संस्कृति को एक मानक स्वरूप प्रदान करते हैं |
     छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य में यहाँ के रीति-रिवाज़ एवं संस्कारों की अहम् भूमिका है जंत्र-मन्त्र, टोना-टोटका, का अधिकाधिक प्रयोग ग्रामीण अंचलों में देखने को मिलता है।  संभव है कि आदिकाल से ही मानव ने अपने मन में छुपे हुए भय के कारण ही यह मार्ग अपनाया होगा जो कि आज हमारे सम्मुख अंधविश्वास के रूप में खड़ा है | वैसे इतिहास के पन्ने यदि हम पलटकर देखें तो हमें ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से ही मानव सहनशील एवं परिश्रमी रहा है | वैदिक काल से ही चली आ रही तपोवन संस्कृति नेऋषि-मुनियों की तपोभूमि कोलोक परंपरा कोपथप्रदर्शक के रूप में अग्रेसित किया है | तभी तो द्वारकाधीश होने पर भी कृष्ण को ब्रज नहीं बिसरता | उनकी लीलाएँ, ललित कलाएँ, लोक कला ही तो हैं।  राम को अपना रामत्व विभिन्न लोक समुदायों के बीच ही प्राप्त होता है| तुलसी की चौपाइयाँ सूर और कबीर के पद लोगों की जुबान पर ऐसे बस गए जैसे वे बहुत शिक्षित हों किन्तु जिन्हें अक्षर का तनिक भी ज्ञान  नहीं। तभी तो तुलसी कहते हैं -----

लोकहूँ वेद विदित सब काहू |
लोकहूँ वेद सुसाहिब रीति ||
      अर्थात --जहाँ लोक की रीति ही सुसाहिब की रीति है यानि लोक के मानदंडों से ही कोई  सुसाहिब हो सकता है, होता है जहाँ रीति का निर्धारण लोक का वेद करता है साहिब नहीं| वेद, पुराण, महाभारत, रामचरित मानस, यहाँ तक की अभिज्ञान शाकुंतलम और मेघदूत सब वन में वास करने वालों के द्वारा रचे गए | श्रीरामचंद्र जी जब तक इस संसार में रहे अधिकतर समय वनवासियों के साथ ही रहे, फिर चाहे वह गुरुकुल हो या वनवास का समय या फिर शासन काल में हनुमान जी का साथ रहा हो |
     विराट महानदी-चित्रोत्पला की कल-कल पावन धारा के तट पर स्थित शिवरीनारायण रामायण के युग की याद दिलाता है वहीँ श्री कृष्ण लीला पर खेली जाने वाली रास  जिसे हम   रहस के नाम से संबोधित करते हैं ग्राम नरियरा की पहचान बन चुका है।  रावत  नाच बिलासपुर, तो ककसाड, लेजा, मारी रोसोना, चईत परब बस्तर की विशेष पहचान है वहीं,  सरहुल सरगुजा तथा  कर्मा, ददरिया, सुवा, समस्त छत्तीसगढ़ की पहचान है, तो पंथी नृत्य -गीत जाति विशेष को रेखांकित करता है |
     अतः लौकिक, पारलौकिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामजिक क्षेत्र का मानव मन जो प्रभाव ग्रहण करता है और उसे आत्मसात करता है वहीँ पर संस्कृति का निर्माण होता है।  छत्तीसगढ़ की संस्कृति में कलात्मकता की भावना पग-पग पर दृष्टिगोचर होती है | भाषा का माधुर्य इतना प्रबल है कि आज पूरे विश्व में छत्तीसगढ़ के लोक साहित्य के प्रति सभी का आकर्षण बना हुआ हैयहाँ की संस्कृति अति प्राचीन है किन्तु लिखित साहित्य की कमी अभी भी खटकती है | हमारा  लोक संगीत अभी भी गतिशील है | यहाँ लोक साहित्य, लोक संगीत, लोक नृत्य-गीत, लोक कलाएँ यानि कि ललित कलाएँ समृद्धि एवं सामर्थ्य से परिपूर्ण हैं  अतिथि देवो भव से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ में विनम्रता, निश्छलता,सहनशीलता जहाँ कूट-कूट कर भरी हुई है वहीँ सरलता और शालीनता की शीतल-शीतल छाँव के तले मेहमान की आत्मा स्वयं धन्य हो उठती है | गाली देने में भी यहाँ शिष्टता का ही आभास होता है | यहाँ  के लोक जीवन की अपनी अलग विशिष्टताएं हैं जिनमें रहन-सहन, खान-पान, पहनावा में सादगी है तो वहीँ कृषि संस्कृति से भरपूर यह धान का कटोरा परम्पराओं और विश्वासों की संस्कृति  है |(ब्लॉग में डाल दिया है)

    
शकुंतला तरार
 प्लॉट न॰ 32, सेक्टर-2, एकता नगर, गुढ़ियारी रायपुर (छत्तीसगढ़)
मो- 09425525681, 07770810556

 

लेख-"छत्तीसगढ़ी लोक गीत-महिलाओं की भूमिका"





छत्तीसगढ़ी लोक गीत-महिलाओं की भूमिका
     लेख. शकुंतला तरार
              लोक गीत चाहे वह किसी भी देश की हो वहां की अमूल्य निधि होती है। इससे एक जाति, स्थान या समाज ही नहीं अपितु पूरा राष्ट्र गौरवान्वित होता है। लोक गीत शब्द के साथ ही हमारे जेहन में ग्राम्यांचल का दृश्य उभरने लगता है। जीवन के विविध इन्द्रधनुषी छटाओं के साथ ही नृत्य-गीत, आल्हादकारी मनोरंजन, सहकारिता की भावना, प्रेम भाइचारे की भावना का दर्शन हमें गावों में ही होता है। लोक गीत न केवल मनोरंजन का साधन है अपितु इसका सामाजिक महत्व भी है। घर-आंगन, खेत-खलिहान, मंदिर-चैपाल, हाट-बाजार, मेला-मड़ई, बाग-बगीचा ऐसी कौन सी जगह नहीं है जहां मानव गाता न हो। वह गाता है और वह भी समूह के साथ। वैसे भी जहां तक मेरी धारणा है कि लोक गीतों की अभिव्यंजना व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामूहिक होती है। इसके साथ ही उनके आचार-विचार, रहन-सहन एक से होते हैं। यह लोक गीत ही है जो मानव कंठ से निकलकर आत्मिक सुख की अनुभूति कराता है। भूले-भटके राही का मार्ग प्रशस्त कर उन्हें कर्तव्य पथ की ओर अग्रसर करता है। वर्तमान के साथ अतीत की मधुर स्मृतियों में गोते लगवाता है। गीतों की स्वर लहरियों के साथ विगत और आगत के मघ्य नये-नये गीतों का संधान करने के साथ ही हमें कुछ नया और नया करने के लिये प्ररित करता है। आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, सुख-दुख, संघर्ष आदि की मार्मिक  अभिव्यंजना का चित्रण हमें लोक गीतों से ही मिलता है।
       
            विद्वान साहित्यकारों, संगीत मनीषियों आदि ने अपने-अपने अनुभवों के माध्यम से लोक गीतों की उत्पत्ति में अनुमान का सहारा लिया है। लोक गीतों का यदि वर्गीकरण किया जाय तो उसमें शब्द, धुन, लय, टेर, स्वर व रंजकता के गुण पाये जाते हैं। इसकी उत्पत्ति चाहे जिस रूप में भी हुई हो इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि लोक गीत सर्वप्रथम महिलाओं द्वारा ही गाये गये होंगे। क्योंकि माता ने जब गर्भ धारण किया होगा उसके अंदर नये-नये अहसासों ने जन्म लिया होगा। पहली बार शिशु जब गोद में आया होगा तो माता ने ही उसे सुलाने के लिये लोरियां गाई होगी, रोने पर चुप कराने स्वरों का सहारा लिया होगा तब उसके मुख से जो बोल निकले होंगे उस बोल ने लोरी को जन्म दिया होगा और यही गीत लोरी गीत बनकर सामने आया होगा।
         धान का कटोरा कहलाने वाली हमारी पुण्य धरा छत्तीसगढ़ में तो महिलाओं ने एक वैभवशाली परम्परा को कायम किया है। क्षेत्र चाहे शहरी हो या आरण्यक, महिलाओं ने सदा ही लोक गीतों को परिमार्जित, परिष्कृत करने में पुरुषों का साथ निभाया है। अन्य प्रान्तों में जैसे पंजाब का गिद्दा, महाराष्ट्र की लावणी, निमाण-मालवा के गणगौर, फूलपाती, असम का बीहू, केरल का ओणम महिलाओं द्वारा सम्पन्न लोक गीत हैं। उसी तरह छत्तीसगढ़ में कुछ गीत केवल महिलाओं द्वारा ही सम्पन्न किये जाते हैं जैसे-सुवा नृत्य-गीत, विवाह गीत, सोहर, भोजली, धनकुल, ककसार, आदि। रावतनाच, डंडा नाच, बांस गीत, जवारा, पंथी, गेड़ी आदि केवल पुरुषों द्वारा ही सम्पन्न किये जाने वाले नृत्य और गीत हैं किन्तु वर्तमान समय में पंथी नृत्य में महिलाओं ने पुरुषों के एकाधिकार को तोड़ा है। अतः लोक गीतों में पुप्पित, पल्लवित, लय, ताल, सुर देने में पुरुषों के साथ महिलाओं के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। करमा, ददरिया, सरहुल ऐसे नृत्य-गीत हैं जो श्रम, भक्ति, कर्म और श्रृंगारपरक हैं। गीतों में माधुर्य, सौंदर्य, सौम्यता का सहजता से प्रयोग महिलाओं द्वारा ही सम्पन्न होता है। उत्सवों में संस्कारित मांगलिक कार्यों में फूल-पत्ते सजाना, कलश सजाना, अल्पना बनाना, साज-श्रृंगार आदि कार्यों को विधि -विधान से सम्पन्न कराने में महिलाओं का योगदान अमूल्य है।
            छत्तीसगढ़ में कुछ गीत जातिगत होते हैं जैसे सुवा गीत। सुवा गोंड़ जनजाति का प्रमुख उत्सव नृत्य-गीत है। सुवा गीत कार्तिक कृष्ण पक्ष से शुरू हो कर दीपावली के दिन तक गाया जाता है जिसमें नारियां बांस की टोकनी में धान रखकर उसके बीच में दो तोता रखती हैं जिसे शिव-पार्वती का प्रतीक मानकर गीत गाती हैं। ये समूह में जिसमें आठ-दस होती हैं, टोकनी को बीच में रखकर उसके इर्द-गिर्द गोल घेरा बनाकर गोल घूमते हुए गीत गाती जाती हैं और साथ में लयबद्ध ताली भी बजाती जाती हैं। इस वक्त उनके पैर जमीन पर ठुमकने की शैली में होते हैं और उनका यह ठुमकना तोते की चाल की तरह होता है। उनका यह मानना है कि तोता उनका यह संदेश जरूर परदेश गये प्रियतम तक पहुंचा देगा। पुराने समय में कबूतर के माध्यम से राजा महाराजाओं के द्वारा खतों का, संदेशों का आदान-प्रदान किया जाता था यह हम जानते हैं शायद उसी कड़ी में ही इस सुवा गीत को भी हम ले सकते हैं। सुवा गीत विशेषतः दूर परदेस गये अपने प्रिय को संदेश के रूप में अपनी करूणा की अभिव्यक्ति का माध्यम होता है।  नारी उसके आने की बाट जोह रही होती है या मायके गई हुई स्त्री को जब उसके ससुर, जेठ, देवर लिवाने जाते हैं तब उसके मन के उद्गार कुछ इस तरह होते हैं कि --

तरी हरी नहा ना मोर नहा नारी नाना रे सुवना कि
लाल भाजी जमे झकझोर
ओही लाल भाजी खावन नहीं पाएवं रे सुवना कि
आई गईस ससुर मोर लेवाय
नारे सुवना कि आई गईस ससुर मोर लेवाय
ससुरे के संग-संग मैं नहीं जावौं रे सुवना
कि घेरी-बेरी पईयां ला पड़ाय
नारे सुवना कि घेरी-बेरी पईयां ला पड़ाय।।

         इसी तरह गीतों की रानी ददरिया भी बिना नारी स्वर के अधूरा है। और जहां नारी स्वर हो वहां प्रेम-अनुराग, सौंदर्य, लालित्य, ठिठोली, के साथ ही होती है पसीनों के बूंदों की महक क्योंकि, ददरिया श्रम प्रधान गीत है। यह खेतों-खलिहानों, बाग-बगीचों, जंगल-झाड़ी, कुआं-तालाबों में कहीं भी जहां श्रम हो गाया जाता है। कभी उलाहना के स्वर में तो कभी प्रेम-अनुराग से कहीं श्रृंगारपरक---
     
    बागे बगीचा दिखे ल हरियर
    मोटर वाला नई दिखे बंधे हों नरियर ।।

आमा ला टोरेवं खाहूंच कहिके
मोला दगा दिये राजा आहूंच कहिके।।

   प्रकृति पूजा का प्रतीक हम भोजली को मानते हैं। गेहूं, जौ, उड़द आदि अनाज को छोटी-छोटी टोकनी में खाद डालकर उगाया जाता है। भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा को उस उगाये हुए अन्न को जिसे हम भोजली के रूप में रूपायित करते हैं, समूह में चलकर तालाबों में उसका विसर्जन किया जाता है। जहां मां गंगा की स्तुति की जाती है ताकि उनकी कृपा से भोजली की तरह यह जीवन भी हरा-भरा बना रहे।उसी भोजली के कुछ गुच्छों को लेकर लड़कियां, स्त्रियां एक दूसरे से आदान-प्रदान कर प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित करती हैं जिसे भोजली बदना कहते हैं। यह होता है मित्रता का प्रतीक, आजीवन सम्बन्ध कायम रखने का प्रतीक। जब भोजली का विसर्जन किया जाता है तब मां गंगा की स्तुति में यह लोक गीत गाया जाता है--

अहो देबी गंगा
देबी गंगा देबी गंगा लहर तुरंगा
हो लहर तुरंगा
हमर भोजली दाई के भीजे आठो अंगा
अहो देबी गंगा
आई गईस पूरा बोहाई गईस कचरा
बोहाई गईस कचरा
हमर भोजली दाई के सोने सोन के अंचरा
अहो देबी गंगा
फुगड़ी बालिकाओं द्वारा गाया जाने वाला खेल गीत है। धनकुल, ककसार छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में गाया जाता है। इसके अलावा देश के अन्य प्रान्तों की तरह यहां भी बच्चे के जन्म संस्कार से लेकर विवाह के समस्त गीत जिनमें मंडपाच्छादन से लेकर चूलमाटी, मंगरोहन, देवतेल,  तेलचघी, नहडोरी, मौर सौंपनी, बारात प्रस्थान, बारात स्वागत, समधी भेंट, भड़ौनी, भांवर, टिकावन, विदाई, डोला परछन आदि  के गीत महिलाओं द्वारा ही गाये जाते हैं।

   हमारे छत्तीसगढ़ के लिये यह गर्व का विषय है कि यहां की महिलाएं घूंघट प्रथा, पर्दा प्रथा जैसी रूढि़यों से हटकर अपनी अस्मिता को बनाये हुए पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करती हैं। खेत-खलिहानों में कार्य करते वक्त जब श्रम की थकन होती है तो उस थकन को मिटाने के लिये गीतों का सहारा लिया जाता है। स्त्री पुरुष दोनों ही एक दूसरे का साथ निभाते हुए गीतों की लडि़यां बांधते हैं। इस वक्त जो गीत गाया जाता है उसे ददरिया कहते हैं। ददरिया में श्रृंगार की बहुलता के साथ ही साथ सुख-दुख, सौहार्द्र, उमंग, हंसी-ठिठोली, मौज-मस्ती से विभोर हार्दिक आत्मीयता का समावेश रहता है। कहते हैं कि नारी बिना ददरिया श्री विहीन है। युग चाहे जितना परिवर्तन करले रहन-सहन, खान-पान, पहनावे में जिस तरह से बदलाव आये किन्तु हमारी आंचलिक धरोहर लोक गीत की पहचान को संजोए रखने में पहले भी महिलाओं की सहभागिता रही है और हमेशा से ही रहेगी। ग्रामीण श्रमिक, खेतिहर महिलाओं के साथ ही हमारी लोक कलाकार जिनमें पंडवानी गायिका पद्मश्री तीजन बाई, ऋतु वर्मा, उषा बारले, मीना साहू, ममता बारले, सुप्रसिद्ध भरथरी गायिका सुरूज बाई खाण्डे, रेखा जलक्षत्री, ममता चंद्राकर आदि के नाम हम गर्व से ले सकते हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ की लोक परम्परा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण पहचान दी है।
   अतः कुछ पुरुष प्रधान गीतों को छोड़कर छत्तीसगढ़ के लोक गीतों में महिलाओं ने आदि काल से ही सहभागी बनकर बराबर पुरुषों का साथ दिया है। बौद्धिक सृजन की उठापटक से दूर निष्छल वातावरण में मन के उद्गारों के माध्यम से लोक गीत रूपी निधि से स्वयं उपकृत होकर पुरुष प्रधान समाज को भी उपकृत किया है और समाज को एक नई दिशा प्रदान की है।

शकुंतला तरार
रायपुर छत्तीसगढ़