‘‘बस्तर – घोटुल गुड़ी का सौंदर्य और
आदिवासी नारी’’
नैसर्गिक सौंदर्य
के मध्य आदिम सभ्यता के सानिध्य में पुष्पित पल्लवित होता हुआ वह बस्तर, जिसके हृदय में सरलता, सौम्यता का विशाल सरगी
वन है, उसे इक्कीसवीं सदी तक
आते –आते कई वर्ष लग सकते हैं। धन्य है उस माटी
को जो छल-छद्म से कोसों दूर निश्छल जीवन के हिंडोले भरता चाँदनी रात में
घोटुल गुड़ी में पलता है,
खेलता है, कूदता है, झूमता है, गाता है, मचलता है, इतराता है, और रचता है एक नया
इतिहास। उसी घोटुल गुड़ी के आँगन मे बनते हैं जोड़े। कहते हैं की जोड़ा ऊपर से बनकर
आता है जिसे ईश्वर ने सबके लिए नियत करके रखा हुआ है । अब जोड़ा ऊपर से बनकर आता है
या नहीं यह तो चर्चा का विषय है किन्तु बस्तर
में जोड़ा घोटुल गुड़ी में बनता है, जब चाँदनी रात में
अविवाहित युवकों-युवतियों की टोली बाहों मे बाहों
डाले झूमते हैं,
थिरकते हैं, एक दूसरे के साथ हँसी
–ठिठोली करते हुये गीतों की शृंखला में आबद्ध हो जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे बागों
मे कुसुम दल खिले हुए हैं,
ताल- तलैया पोखरों मे कमलिनी,
खिलकर मंद मंद मुस्कुरा रहे हों और उसके चारों ओर भँवरे मंडरा रहे हों भून-भून
करते हुए। इसी गुनगुनाहट मे काव्य की वह सहज अभिव्यक्ति होती है की, व्यक्ति व्यक्ति न रहकर
प्रेमी हो जाता है और स्वयं को स्वर्गलोक की अलौकिक आयानंददायक स्थिति मे पाता है।
बरबस ही वह गुनगुनाहट शब्द का रूप ले लेते हैं और सुनाई दे जाते हैं गीतों के
मधुर-मधुर से बोल।
ठीक उसी
तरह चाँदनी रात मे जब चईत परब नृत्य में युवक युवतियों का दल झूमता है तब नारी की
प्रशंसा में जो गीत गाये जाते हैं उसके बोल कुछ इस तरह कि—
सुका सींयाड़ी भेलवाँ लसा डोबरी खाले
चो आय
डंडकी दखून मुचकी मारे खोदरी गाल चो
आय
लेजा रे होय पापा खोदरी गाल चो आय
ओह! क्या
होता है नारी मन! कैसी होती है युवती जिसकी तुलना जंगल में होने वाले सींयाड़ी के
फल से की गई है वह सींयाड़ी का फल जो सूख जाने की बाद अब खाने के लायक हो गया है और
वह भेलवाँ भी हो गया है जिसका पका हुआ फल खाया जाता है किन्तु फल के नीचे का बीज
वाले भाग से चिपकाने वाला लसा निकलता है अर्थात वह जंगली बेल वाला फल जो ऊपर से
सख्त और भीतर से कोमल है वह चिपकने वाले गोंद की तरह मुलायम है, जो तालाब के उस पार
रहती है , मैं जब उसे देखता हूँ
तो वह मुस्कुरा देती है तब उसके गालों पर पड़ने वाले गड्ढों को देखकर मैं भौंचक्क
रह जाता हूँ और बरबस मेरे मुँह से निकलता है..... सुनो ऐ गालों पर गड्ढे पड़ने वाली
सुंदरी ? क्या तुम मेरे साथ लेजा
गीत गाना और नृत्य करना चाहोगी।
बस्तर के
लोक गीतों में जो माधुर्य भाव है,
रमणीयता है उसमें अद्भुत शब्द विन्यास का
आभास होता है। बाहर से आए सैलानियों में कुछ गंदी मानसिकता वाले भी होते हैं
उन्होंने घोटुल को उन्मुक्त सेक्स का अड्डा बताया है यह सत्य नहीं बल्कि उनकी गंदी
नीयत और गंदी मानसिकता की उपज है।
घोटुल
छिछली भावुकता का समावेश नहीं है बल्कि गहरी और
सूक्ष्म दृष्टि से कला को निरखने का अदम्य आंतरिक प्रयास जो परस्पर ओतप्रोत
है भावों की गहरी समझ से। यहाँ सहज निश्छल प्यार की लीला है, स्नेह है, शिष्ट आचरण है, एक ही शर से बिंधे
प्रेमी युगल हो सकते हैं किन्तु कामुक नहीं। बनता
है तब एक जोड़ा जो घोटुल गुड़ी के गीत गाते हुए कब राधाकृष्णमय हो जाते हैं
पता ही नहीं चलता । उनकी इतनी ही अभिलाषा कि चाँदनी रात में वे उस चाँद को माध्यम
मानकर अपने प्यार का इजहार कर सकें और जन्म-जन्मांतर तक एक दूसरे के हो सकें।
सचमुच
वह जंगली सौंदर्य होता ही ऐसा है कि प्रिय का रूप सलोना देखकर बैकुंठ की भी चाह ना
रहे। चंद्रमा सा मुख सलोना, कोयल सी वाणी, हिरनी सी चंचलता बरबस ही आकर्षित कर देने के लिए बाध्य कर देती
है ।
दरअसल हमारे लोक गीत आदिम युग से चले आ रहे
वे मनोभाव हैं जो पारंपरिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती चली आ रही
है। परंतु इतर संस्कृति के संपर्क
संबंधजन्य विकृतियों ने इसकी जड़ों को भी हिलाना शुरू कर दिया है ।
आवश्यकता है सतर्क होने की, बचाना है हमें इस प्राचीन संस्कृति को।
उपाय खोजते-खोजते कहीं हम इसे खो न दें।
बहुत जल्द इसके संरक्षण, संवर्धन का उपाय
खोजना होगा अन्यथा घोटुल गुड़ी और आदिवासी
संस्कृति केवल किताबों में रह जाएगा संस्मरणों के रूप में| शकुंतला तरार
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