"बस्तर
की बोलियाँ,लोक गीत और साहित्य"
v शकुंतला तरार
v शकुंतला तरार
1938
में लिखी गई "माड़िया गोंड्स ऑफ़ बस्तर ' नामक ग्रियर्सन की किताब की भूमिका
में एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख मिलता है जो बस्तर की 36 बोलियों का जानकार था| इससे
यह ज्ञात होता है कि समग्र बस्तर में जो उस समय कांकेर से लेकर कोंटा तक था और आज
भी है, 36 बोलियाँ व्यवहृत होती थीं| वर्तमान समय में गोंडी,माड़ी, हल्बी, भतरी,
परजी, दोरला, छत्तीसगढ़ी और उड़िया मुख्य बोलियाँ हैं|
बोलियों पर मैं बात करूँ उससे पहले यह जानना अति
आवश्यक है कि बस्तर में छत्तीसगढ़ी का प्रवेश कैसे हुआ| एक तो व्यापारी वर्ग के
द्वारा , दूसरे तत्कालीन सरकारी सेवक तीसरे परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने पर
और सबसे बड़ा कारण था रेडियो|
आकाशवाणी रायपुर की स्थापना के बाद छत्तीसगढ़ी का प्रवेश बस्तर में
बहुत ही तीव्रता से हुआ, इसका अर्थ यह है कि मनोरंजन के माध्यम से- कर्णप्रिय
संगीत, विविध धुनों में लोक संगीत , सिनेमाई संगीत, प्रहसन नाटक आदि प्रसारित होते
थे, जिसे सब सुना करते थे| इसके अलावा उच्च शिक्षा के तहत विद्यार्थियों का बस्तर
से बाहर रायपुर की ओर आने-जाने का क्रम, साथ ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों की
प्रस्तुति के कारण भी छत्तीसगढ़ी भाषा बस्तर में निरंतर प्रविष्ट होती रही | इसके
विपरीत उसी तीव्रता के साथ हल्बी का इस क्षेत्र में विस्तार नहीं हुआ, यह अपने क्षेत्रीय
सीमा तक ही सीमित रहा| शासन द्वारा इसके प्रचार-प्रसार के लिए किसी भी प्रकार का
उपक्रम का उस अवधि में अभाव रहा है जिससे कि बस्तर की बोलियाँ प्रश्रय नहीं पा
सकीं और आज भी स्थिति वही है और ये बोलियाँ उपेक्षित हैं| जबकि स्थानीय
साहित्यकारों एवं बुद्धिजीवियों द्वारा छुटपुट प्रयास होते रहे हैं|दण्डकारन्य समाचार
पत्र ने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास अवश्य किया है वहीँ 1908 में पं. केदारनाथ ठाकुर की "बस्तर भूषण" नामक शोधपरक किताब
प्रकाशित हुई | ठाकुर पूरन सिंह की "हल्बी का व्याकरण" हल्बी, हिंदी और
अंग्रेजी तीनों भाषा बोलियों में प्रकाशित हुई |
रामचरित मानस चतुश्शताब्दी समारोह के अवसर पर प्रो. हीरालाल शुक्ल
के द्वारा बस्तर अंचल में बोली जाने वाली हल्बी, गोंडी तथा माड़ी भाषा में स्थानीय
लेखकों द्वारा रामायण से सम्बंधित रचनाओं का प्रकाशन कर उक्त भाषाओं के उन्नयन की
दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किया गया जो कि भोपाल संवाद से प्रकाशित एक स्तुत्य
कार्य था, अप्रत्यक्ष रूप से अंचल के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ|
मध्यप्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित " बस्तर लोक
कला संस्कृति'' लाला जगदलपुरी द्वारा लिखित पुस्तक है जिसके पृष्ठ 17 पर उन्होंने
जानकारी दी है कि "-बस्तर संभाग में कोंडागांव, नारायणपुर, बीजापुर, जगदलपुर
और कोंटा तहसीलों में तथा दंतेवाड़ा में दंडामी
माड़िया, अबूझमाड़िया, घोटुल मुरिया, परजा-धुरवा और दोरला जनजातियाँ आबाद मिलती हैं
और इन गोंड जनजातियों के बीच द्रविड़ मूल की गोंडी बोलियाँ प्रचलित हैं| गोंडी
बोलियों में परस्पर भाषिक विभिन्नताएं विद्यमान हैं| इसीलिए गोंड जनजाति के लोग
अपनी गोंडी बोली के माध्यम से परस्पर
संपर्क साध नहीं पाते यदि उनके बीच हल्बी बोली न होती | भाषिक विभिन्नताओं के रहते
हुए भी उनके बीच परस्पर आंतरिक सदभावनाएँ मिलती हैं| इसका मूल कारण है हल्बी |
अपनी इसी उदात्त प्रवृति के कारण ही हल्बी भूतपूर्व रियासत काल में बस्तर राज्य की
राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही थी| और इसी कारण आज भी बस्तर संभाग में हल्बी
एक संपर्क बोली के रूप में लोकप्रिय बनी हुई है|
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल ने गोंडी, हल्बी आदि भाषाओं
के गीतों का- भाषा शास्त्रीय, संगीत शास्त्रीय वैज्ञानिक अध्ययन कर अपनी किताब
"आदिवासी लोक संगीत" में प्रकाशित किया है जो इस क्षेत्र में संभवतः
प्रथम प्रयास है| वहीँ बस्तर रेडियो स्टेशन के स्थापित होने के पश्चात बस्तर की
क्षेत्रीय भाषाएं, आकाशवाणी के माध्यम से फैलने के लिए, सीखने-समझने के लिए, रूचि
जाग्रत करने के लिए मनोरंजन का अच्छा साधन सिद्ध हुई हैं |एक समय ऐसा भी था जब बस्तर
क्या अन्य प्रान्तों के श्रोता भी हल्बी गीतों की फरमाईश करते थे| मेघनाथ पटनायक
द्वारा गाया गया यह गीत काफी लोकप्रिय हुआ था -
आया मोचो दंतेसरी बुआ भैरम आय
भाई दंडकार बईन इन्दाराबती सरन सरन
तुमके सरन सरन आय
मयं आयं बस्तर जिला चो आदिबासी पिला
बैलाडीला बैलाडीला, ने अपार लोकप्रियता पाई–
वहीँ विभिन्न तरह से गाया
जाने वाला लोक गीत ''लेजा'' बस्तर में आज भी काफी लोकप्रियता के चरम शिखर पर है- जैसे-
1 - लेजा
लेजा लेजा दादा लेजा केंवरा
घोटिया मंडई जायेंदे दादा पयसा देऊरा
काय लेजा रे होय दादा पयसा देऊरा |
2-सुका सिंयाडी भेलवां लसा डोबरी खाले चो आय
वर्तमान समय में हल्बी के
साहित्य में छत्तीसगढ़ी का सम्मिश्रण अधिक होने लगा है उनके विषय जो मंडई,
हाट-बाजार, शादी-ब्याह, जन्म-मरण तक ही सीमित होते थे अब उसमें छत्तीसगढ़ी, हिंदी
के साथ ही अंग्रेजी के भी शब्द आ गए हैं
उदा. देखिये -
रेलोओओ रेरेलोयो रेलो रेरेला रेलाआआ
सिंगी बांगा जोपा परेसे
ओंदे बाबू सिंगी बांगा जोपा परेसे
जोपा के दखुन टोड़से ना
ओंदे बाबू जोपा के दखुन टोड़से ना
लाईट दखुन साईट मारसे
ओंदे बाबू लाईट दखुन साईट मारसे
रेरेलोयो रेरेला रेलोओओ रेरेलोयो रेरेला
आज तुकबंदी के कारण अंग्रेजी, छत्तीसगढ़ी, हिंदी, उड़िया आदि स्वतः
ही इन गीतों में प्रश्रय पा रहे हैं गाने वाले को यह नहीं पता कि यह किस भाषा के
शब्द हैं | दरअसल हल्बी बोली अभूतपूर्व है महाराष्ट्र का व्यक्ति यदि हल्बी सुनता
है तो उसे इस भाषा में आत्मीयता का आभास
होता है तो ओड़िया भी हल्बी-भतरी से प्रभावित होता है एक छत्तीसगढ़िया व्यक्ति के
लिए भी भाषा का माधुर्य प्रभावित करता है |
वर्तमान समय में बस्तर की बोलियों में पूर्व प्रकाशित हल्बी, गोंडी भाषा की कुछ
सांस्कृतिक किताबों का पुनर्मुद्रण संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन द्वारा करवाया
गया है. जो कि शासन का स्तुत्य प्रयास है
और आने वाले समय में लोक भाषाओँ का भविष्य निश्चय ही उज्जवल होगा ऎसी उम्मीद की जा
सकती है|
हल्बी में प्रकाशित साहित्य यद्यपि विपुल संख्या में नहीं है परन्तु इस दिशा में अब
जागृति उत्पन्न हो रही है. हरिहर वैष्णव द्वारा प्रकाशित बस्तर की लोकगाथा
"धनकुल जगार" हल्बी को स्थापित करने, उसके उन्नयन की दिशा में
महत्वपूर्ण कदम है | इसकी एक झलक -
आया बालें मयं दंतेसरी
आया बालें मयं दंतेसरी
जगार नेवता पड़े परभू
जगार नेवता पड़े
बाटे आसे मोर नौंदेल कुंआ
बाटे आसे मोर नौंदेल कुंआ
पांय पखारी आव दाई
पांय पखारी आव
इसके अलावा बस्तर में काम करने वालों में लाला जगदलपुरी, हरिहर
वैष्णव अग्रणी पंक्ति में आते हैं. वहीं शकुंतला तरार द्वारा संकलित बस्तर की लोक कथाएं हिंदी में प्रकाशित है तो "रांडी
माय लेका पोरटा" के नाम से गेय लोककथा का संकलन कर उसका हल्बी से हिंदी और
छत्तीसगढ़ी में शब्दशः अनुवाद करके पाण्डुलिपि प्रकाशन हेतु तैयार किया गया है | साथ
ही हल्बी भतरी के लोक गायक, भजन गायक, रामायण के टीकाकार रतनलाल देवांगन एवं उनकी
धर्मपत्नी जमना बाई देवांगनकोंडागांव के द्वारा सुनाये गए और गाये गए हल्बी-भतरी के लोक गीतों और लोक कथाओं का
संकलन करके उसका भाषाशास्त्रीय परिचयप्रकाशन हेतु तैयार किया गया है आवश्यकता है
तो सिर्फ एक प्रकाशक की | एक बाल साहित्य जो कविताओं पर केन्द्रित है, तथा एक 100
लेजा गीत प्रकाशन को तैयार है|
हीरालाल शुक्ल द्वारा लिखित और लाला जगदलपुरी द्वारा अनुदित हल्बी
रामायण के एक भाग में "सीता बिहा" नाम से गिरधारी लाल रायकवार ने नाटक
की रचना की है| इसी तरह छुटपुट साहित्य के रूप में बस्तर की बोलियों के लिखित
साहित्य हमारे बीच यदाकदा दिख जाते हैं| हरिहर वैष्णव ने ककसाड नामक एक लघु पत्रिका का
सम्पादन किया था |वहीँ जगदलपुर से हल्बी गीतों कविताओं का संकलन ''चिड़खा'' के नाम
से प्रकाशित हुई है|
बस्तर चूँकि तीन प्रान्तों से घिरा हुआ है अतः दक्षिण बस्तर में
भोपालपट्टनम,कोंटा आदि क्षेत्रों में दोरली बोली जाती है जिसमें आंध्रप्रदेश से
लगे होने के कारण तेलुगु का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है| दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा
दण्डामी बोली का क्षेत्र है| जगदलपुर, दरभा, छिन्द्गढ़ धुरवी बोली का क्षेत्र है|
कोंडागांव क्षेत्र केमुरिया अधिकतर हल्बी बोलते हैं | नारायणपुर घोटुल मुरिया और
माड़िया क्षेत्र है|वर्तमान समय में गदबा बोली विलुप्ति का दंश झेल रहा है |
हल्बी बोली में जहाँ उड़िया,मराठी और छत्तीसगढ़ी के शब्द पाए जाते
हैं तो भतरी उड़िया से प्रभावित है|बस्तर की खासियत यह है की यहाँ की बोलियाँ आपस
में संवाद करती हुई मालूम होती हैं| वे कहती हैं हम सब आपस में सगी बहनें हैं
क्यूंकि हमारा जन्म बस्तर की माटी में हुआ है| जिस तरह नदी अपने साथ छोटी-छोटी
नदियों को लेकर एक बड़ी नदी का रूप धारण करती है उसी तरह हमारी भाषा और बोलियाँ हैं
| यदि बोलियाँ समृद्ध होंगी तभी भाषा मजबूत होगी हमारी बोलियाँ मिलजुल कर राजभाषा,
राष्ट्रभाषा को समृद्ध करेंगी|
बस्तर के बारे में यह कहावत सही मालूम होती है कि कोस-कोस में
पानी बदले चार कोस में बानी| जैसे ही हम चारामा की सीमा में प्रवेश करते हैं
छत्तीसगढ़ी का वो शब्द जैसे- कोन डाहर जावत
हस - वह हो जाता है कोन राहा जा-थस- फिर जैसे ही हम केशकाल की घाटी पार करते हैं बस्तरिया
शुरू हो जाता है और वह कोंडागांव से लेकर जगदलपुर, नारायणपुर, दंतेवाडा सभी
जगह चलता है जैसे - कोन बाटे जाथस, हल्बी
में - कोन बाटे जासीत, भतरी - कोन बाटे जायसी आची वहीँ जातिगत बोली कोष्टा में -
केते जथास हो जाता है |
जब हम साहित्य की बात कर रहे हैं तो उन लोक गीतों को बिसरा नहीं
सकते जो, निश्चल भावनाओं से ओतप्रोत,
सुमधुर कंठों से गुंजित होने वाले शब्दों की ध्वनियों, प्राकृतिक सौंदर्य से निकली
बस्तर की मीठी-मीठी बोलियों से गुंजायमान होती हैं|लेजा, झालियाना, मारीरोसोना,
परब नृत्य गीत, ककसाड़, रीलो, करमा बस्तर के प्रमुख लोक गीत विधा हैं जिनमें
बोलियों की मिठास झलकती है- चांदनी रात में जब परब नृत्य गीत में युवक-युवतियों का
दल झूमने लगता है --
1-नंदी कठा-कठा गागुआय रे बगनी बागो,
गागुआय रे बगनी बागो,
धान मिरी बड रागो दादा
जानी चीनी करी लागो--
2-डाल खाई रे आँखी मारी दिले बायले मिरे
आया बूबा नाँई मिरे डाल खाई रे
डाल खाई रे मैना
आया बूबा नाँई मिरे --
उसी तरह पौष पूर्णिमा के दिन गाया जाने वाला
छेरता गीत –
झिरलीटी- झिरलीटी
पंडकी मारा लिटी रे
नकटा छेर छेर –
लोक, लोक चेतना और उससे उपजी संस्कृति किसी
भी सभ्यता की, किसी भी साहित्य की परिचालक शक्ति होती है. जो साहित्य अपने लोक की
चेतना और संस्कृति से जितना जुड़ता है उतना ही वह सच्चा और प्रतिनिधि होता है उतना
ही लोकव्यापी व कालजयी होता है अपनी लोक संस्कृति का सच्चा प्रतिरूप होने की वजह
से तुलसी की चौपाईयां, सूर और कबीर के पद ऐसे लोगों के होठों में बस गए जिन्हें
अक्षर का भी ज्ञान नहीं है | वह शायद इसलिए कि उन्होंने इसे अपनी भाषा-बोली में
लिखा ठीक उसी तरह बस्तर की लोक बोलियाँ हैं जो किसी अन्य भाषा बोलियों की बैसाखी
लिए बिना आज भी निरंतर गतिमान हैं| इन्हें संजो कर रखना ही होगा अन्यथा बस्तर की
लोक बोलियाँ कब विलुप्त हो जाएँगी हमें पता भी नहीं चलेगा |
Sundar aalekh hai Shankun. Badhai.
ReplyDeleteपसंद आया सराहना के लिए हृदय से आभार
Deleteआलेख छोटी है, इस मे विस्तार से कहना का सम्भावना कम है लेकिन विषय पर आपकी आन्तरिकता पसन्द आया।
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