Friday, February 5, 2016

लेख-1-“बस्तर का पारम्परिक त्यौहार” "माटी तिहार"

1-“बस्तर का पारम्परिक त्यौहार”
         माटी तिहार
§शकुंतला तरार
क्षेत्रीयता के अनुसार विभिन्न रहन-सहन, भाषा-बोली के आधार पर हमारे यहाँ त्यौहारों की विशेष परम्परा रही है | इसी परिप्रेक्ष्य में छत्तीसगढ़ प्रान्त का बस्तर संभाग अपनी अनूठी और विशिष्ट परम्पराओं को संजो कर रखने का प्रयास करता है | चूँकि यहाँ ग्राम्य संस्कृति के साथ ही साथ वन्य संस्कृति, कृषि  संस्कृति  भी  विद्यमान है अतः यहाँ का जनमानस अपनी पहचान यहाँ की माटी के रूप में देता  है | “जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि” यह उक्ति यहीं चरितार्थ होती जान पड़ती है | यहाँ हर पर्व उत्सव सामूहिक रूप से मनाये जाने का रिवाज है |यहाँ की माटी में सांस्कृतिक निश्छलता विद्यमान है तो स्थानीय सारे पर्व –उत्सव ग्राम्य देवी-देवताओं से सम्बंधित होते हैं |मनाने के दिन ग्राम्यानुसार भले ही अलग-अलग हों किन्तु इन त्यौहारों को मनाये बिना यहाँ का कोई भी नया कार्य संपन्न नहीं किया जा सकता |स्थानीय जनमानस को वे सारे नियम जो ग्राम्य संस्कृति, कृषि संस्कृति के अंतर्गत आते हैं, जिन्हें ऋतुओं के अनुसार मनाया जाता है,मान्य होता है | इसी कृषि संस्कृति को धरती माता का उपहार मानकर उसके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करते हुए मनाया जाता है ‘माटी तिहार’|
चैत्र माह से शुरू होकर वैशाख, ज्येष्ठ तक सुविधानुसार, परम्परानुसार मनाया जाने वाला यह उत्सव माटी तिहार बस्तर में सिर्फ आदिवासियों का ही त्यौहार नहीं है अपितु वे सारे भूमि पुत्र कृषक जिसमें कोष्टा, कलार, पनारा, धाकड़, राउत, पनका, गांडा, माहरा, हल्बा, मुरिया, माड़िया आदि आते हैं सभी के लिए यह अनिवार्य रूप से मनाये जाने का त्यौहार है | बिना किसी तामझाम के, बिना किसी दिखावा के आस्था और श्रद्धा का, भाईचारे का भाव भरता हुआ मनोहारी यह त्यौहार|
बस्तर के प्रत्येक गाँव में एक देवगुड़ी होता है जहाँ का पुजारी माटी पुजारी कहलाता है | माटी तिहार मनाये जाने से पूर्व गाँव या नगर के प्रतिष्ठत और गणमान्य व्यक्ति, पटेल, कोटवार, गांयता, पुजारी आदि माटी पुजारी के यहाँ देवगुड़ी( देवकोट) में एकत्र होकर यह तय करते हैं कि माटी तिहार किस दिन मनाया जावे | चूँकि मैं बस्तर के कोंडागांव से हूँ, मेरे पिता स्व. रतनलाल देवांगन एक कृषक थे और गाँव के गणमान्य व्यक्तियों में उनका अपना मुकाम था सो मेरे यहाँ हर आंचलिक त्यौहार, दैवीय अनुष्ठान ग्राम्य संस्कृति अनुसार ही मनाये जाते थे और अब भी मनाये जाते हैं| 
निश्चित तिथि के दिन मेरी जानकारी अनुसार मेरे गाँव में चैत्र माह में मंगलवार के दिन माटी पुजारी प्रातः काल उठकर देवगुड़ी की साफ-सफाई कर देवता की पूजा-अर्चना करता है पश्चात्  ग्रामवासी एक-एक करके वहां पहुँचते जाते हैं| प्रत्येक कृषक के हाथ में फरसा पान (पलाश के पत्ते) की चिपटी होता है जिसमें पांच मुट्ठी धान होता है, साथ में यथानुसार चावल-दाल, शराब, कुछ पैसे, मुर्गा बकरा, कबूतर आदि लाने का रिवाज भी है |
पूजा के लिए लाई गई सारी सामग्री एक जगह एकत्रित कर ली जाती  है पश्चात् पुजारी द्वारा पारंपरिक पूजा विधि से पान के पत्ते की चिपड़ी बनाकर उसमें शराब की कुछ बूंदें रखकर भूमि में गिराया जाता है जिसे तर्पण करना भी कहते हैं यानि मिटटी को समर्पित कर दिया जाता है उसके बाद सुख समृद्धि, खुशहाली,और प्राकृतिक आपदा से बचाए रखने के लिए प्रार्थना किया जाता है कि‘‘जिस तरह आज तक तुमने हम सब की रक्षा की है हमारा पालन-पोषण किया है उसी तरहआगे भी हम पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखना, हम सब आपकी शरण में आए हुए हैं|’’ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ के (बस्तर) सारे दैवीय अनुष्ठानों में शराब की बूंदों को भूमि में गिराकर यानि मिटटी को तर्पण करके माटी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करके ही पूजा या त्यौहार शुरू करने की परंपरा है|
इसके पश्चात् सभी आए हुए कृषक भी उसका अनुसरण करते हैं आपस में एक दूसरे के माथे पर टीका लगाते हैं फिर एकत्रित सारी सामग्री अलग-अलग कुटुंब अनुसार बाँट दिया जाता है वहीँ भोजन पकाया जाता है| हँसी-ठिठोली के बीच, प्रेम भाईचारे का सन्देश देते हुए सभी भोजन का आनंद लेते हैं |

2-चीखल लोंढी§  शकुंतला तरार
माटी तिहार तब तक पूरा नहीं माना जाता जब तक कि मिटटी में चीखल लोंढी न खेला जाए अर्थात मिटटी की होली न खेली जाए| “चीखल लोंढी” अर्थात “कीचड़ में लुढ़काना”| देवगुड़ी (देवकोट) में ही एक तरफ एक गड्ढे का निर्माण किया जाता है जिसे खेत का प्रतीक माना जाता है जिस पर पानी डालकर कीचड़ तैयार किया जाता है | घर वापसी से पहले माटी पुजारी गड्ढे के किनारे बैठ जाता है सब लोग बारी-बारी से पलाश के पत्ते में बंधा हुआ धान लेकर उस तक जाते हैं,तब वह उसमें से कुछ धान निकाल कर भूमि में गिराता है जैसे धान बोने की प्रक्रिया हो फिर उसके साथियों के द्वारा कृषक को उसी गड्ढे में गिराया जाता है जिससे वह कीचड़ में सन जाता है| सभी के साथ यही प्रक्रिया की जाती है अंत में पुजारी को भी उसी गड्ढे में डाला जाता है इस तरह सब मिलकर कीचड़ की होली खेलते हैं | यह सामाजिक सदभाव का जीता जागता  दृश्य प्रस्तुत करता है | माटी  के प्रति यही बस्तरिया किसान की श्रद्धा और आस्था का प्रमाण है इसके बाद चिपटी के धान को लेकर सभी अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं | जब खेतों में धान की बोआई होती है तो उसी धान को बोआई वाले धान जिसे “बीज धान”कहा जाता है, उसमें मिला दिया जाता है | मेरे पिता देवगुड़ी जाते तो धान की चिपटी बनाकर माँ जमना बाई उन्हें देती और जब वे वहां से लौटकर आते तो उस धान की चिपटी को मेरे ही हाथों में देते और मैं उस धान की चिपटी को सुरक्षित ढूसी में रख देती | (ढूसी= धान के पैरा  को रस्सी की तरह बंट लिया जाता है जिसे बेठ कहते हैं, फिर उसी रस्सी को भूमि में उपज अनुसार छोटा या बड़ा गोल-गोल लपेटा जाता है और भीतर में धान भरा जाता है उसे ढूसी कहते हैं | जैसे-जैसे धान निकालते जायेंगे ऊपर से वह कम होता जाता है)
                                                                                                श्रीमती शकुंतला तरार
प्लाट न.-32, सेक्टर-2, एकता नगर,
गुढ़ियारी रायपुर (छ.ग.)
मो- 9425525681,email-shakuntalatarar7@gmail.com

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