“महिला दिवस पर विशेष”
“महिलाओं को स्वयं अपनी
पहचान बनानी होगी”
स्त्री समाज का एक संवेदनशील अंग होती है | आज जब समूचा विश्व नारी समानता, नारी मुक्ति, नारी आरक्षण के लिए जी जान से जुटा हुआ है, सरकार भी बालिकाओं को निःशुल्क शिक्षा
देने के अपने प्रयास में लगी हुई है। समाज सेवी संस्थाएं नारी उद्धार के लिए
सरकारी सहयोग से प्रयासरत हैं । हमारे संविधान में भी अनुच्छेद 16 के अनुसार राज्यों में लिंग भेद के आधार
पर नियुक्ति से वंचित नहीं किया जावेगा।
अब सवाल यह उठता है कि हमारे यहां महिलाओं
को कितना अवसर दिया जाता है। पुरुष प्रधान इस समाज में ऐसा भी नहीं कि यहां की
महिलाएं एकदम ही स्वतंत्र हो गयी हैं। वे पुरुषों द्वारा सताई नहीं जाती बल्कि
शिक्षा ने जहाँ परिवार को सुसंस्कृत किया है, समझदारी बढ़ी है वहीं पारिवारिक विघटन भी
बढ़ा है। आज की स्त्री आत्मनिर्भर होकर अपने परिवार को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाना
चाहती है। ऐसे समय में आवश्यकता इस बात की है कि हमारी सामाजिक संस्कृति को विखंडन
से बचाने के लिए महिलाओं को आगे बढ़ने का सुअवसर प्रदान करना होगा। जिससे वे स्वयं
की पहचान स्थापित कर सकें। अपने परिवार में,
अपने
समाज में, अपने ही देश में ।
महिलाओं की सृजनशीलता, कोमलता और उसकी
विकासशीलता संस्कृति का पर्याय होती है और भारतीय समाज में तो प्राचीनकाल से ही
नारी को यथेष्ट सम्मान प्राप्त हुआ है जिनमें घोषा, अपाला, लोपमुद्रा, विश्वधारा, मैत्रेयी, श्रद्धा कामयानी के अलावा विद्वानों की
सभा में याज्ञवल्क्य को आश्चर्यचकित कर देने वाली गार्गी के नाम से हम परिचित ही
हैं। उसके पश्चात् मध्यमयुग के आते-आते सहजो बाई से परंपरा की शुरुवात हुई फिर
मीराबाई, दयाबाई के रूप में सामने
आईं और आज सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, महाश्वेता देवी, जोशी आशापूर्णा देवी, शिवानी, अमृता प्रीतम, मन्नू भंडारी, हिमानी शिवपुरी, उषा प्रियंवदा, मृणाल पाण्डे, मेहरुन्निसास परवेज, शैलजा माहेश्वरी, सरोजनी प्रीतम, अल्का पाठक, सुधा श्रीवास्तव, सूर्यबाला, उषाबाला, शुभदा शाने, माया गोविंद, स्नेह मोहनीश, जया जादवानी आदि के नाम
हम श्रद्धा और आदर के साथ लेते हैं। इसके साथ ही छत्तीसगढ़ की महिला लोक कलाकारों
में सुरूज बाई खांडे, पद्मश्री तीजन बाई, रीतू वर्मा, रेखा जलक्षत्री,उषा बारले आदि जिन्होंने छत्तीसगढ़ की लोककला
को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई । इतिहास उन्हें याद रखेगा।
हिंदी
उपन्यास साहित्य में प्रेमचंद ने नारी को अति विशिष्ट बनाया। वे नारी के प्रति
अधिक संवेदनशील एवं सजग रहे। नारी, चाहे सर्वहारा वर्ग की हो
या मध्यम वर्ग या जमींदार वर्ग की, किंतु नारी के समस्त
दुख-सुख, अमीरी-गरीबी, आशा-निराशा को उनके कोमल मनोभावों को
उन्होंने जीवन्त किया है।
बिना
पुरुष के नारी का विकास संभव है ऐसा मैं नहीं मानती। किंतु कब तक वह पुरुष की
अंगुली थामकर चलती रहेगी। उसके स्वयं का भी कोई अलग व्यक्तित्व होना चाहिए। उसका
अपना परिचय भी नितांत आवश्यक है। किसी भी समाज, संस्कृति के विकास का मानदंड, नारी की
स्थिति उस समाज में किस तरह है इस बात पर निर्भर करता है। यत्र नार्यस्तु
पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता, अर्थात् नारी की पूजा की जाती है वहां
देवताओं का निवास होता है। नारी की पूजा से आशय यह है कि जिस घर में नारी का
मान-सम्मान किया जाता है उस घर में कलह,
क्लेश
का प्रवेश असंभव है। स्वाभाविक है फिर वह घर सुख-समृद्धि से परिपूर्ण होगा ।
इतिहास
साक्षी है जब तक भारतीय समाज में नारी का स्थान ऊंचा और बराबर का रहा, भारतीय संस्कृति अपने चरम को छूती रही।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम आदर और श्रद्धा से न लें यह असंभव है क्योंकि
उन्होंने जिस साहस और शौर्यता से अंग्रेजों से युद्ध किया वह पुरुषों से भी आगे
बढ़कर है। आज की नारी अपनी उपादेयता समझ चुकी है और घर की चारदीवारी से निकलकर
पुरुष के कदम से कदम मिलाकर उसका सहयोग कर रही है।
जहां
तक मेरा मानना है कि स्त्री विकास की दिशा ही राष्ट्र विकास की मूल अवधारणा है। आज
की नारी जी तोड़ संघर्ष कर रही है स्वयं को पुरुषों के समकक्ष बनाये रखने की। वह
कहीं स्वतंत्र है तो कहीं परतंत्र भी।
महाभारत
के रचियता महर्षि वेदव्यास जी ने लिखा है-
पिता
रक्षित कौमार्ये, भरता रक्षित यौवने,
रक्षित
स्थविरे पुत्रः, न स्त्री स्वातंत्र्यति।।
अथार्थ
कौमार्य में पिता, युवावस्था में पति और
वृद्धावस्था में पुत्र स्त्री की रक्षा करते हैं। अर्थात् नारी उस जमाने से ही
परतंत्र है तभी तो गंधारी ने सोचा होगा की मुझ राज्यकन्या के साथ इतना बड़ा
अत्याचार हुआ। एक अंधे की पत्नी बनाई गयी यह देखने से तो अच्छा है की आंखों पर
पट्टी बांधकर स्वयं अंधी बन जाऊं। नारी तक भी परतंत्र थी, नारी आज भी परतंत्र है। आज भी जरूरत है
उसे संरक्षण की क्योंकि अभी भी वह शोषित,
पीडि़त
और जबर्दस्ती की शिकार हो रही है। आज समय है स्वालंबन की, सशक्तिकरण की। हां यह आवश्यक है कि
स्वालंबन की दिशा में हमारे कदम बढ़े हैं और स्वालंबन के लिये जरुरी है शिक्षित
होना।
हमारे
देश में चौंकाने वाली बात यह है कि आज बालिकाओं की संख्या में निरंतर गिरावट दर्ज
की जा रही है। बालिका भ्रूण हत्या एक विकराल समस्या बनकर सामने आ रही है। तकनीकी
के क्षेत्र में प्रगति का परिणाम बालिकाओं की गर्भ मृत्यु? क्या इसी दिन के लिए विज्ञान ने प्रगति की
है। आज भी गांव में बच्चियों को मारने के लिए वही पुरानी पद्धतियां अपनायी जाती हैं
। पैदा होते ही यह घोषणा करना कि बच्ची मरी हुई पैदा हुई है। तो कहीं घड़े में
रखकर उसका मुंह बंद कर दिया जाता है। जिससे बच्ची घुटघुट कर दम तोड़ दे, कहीं गला घोंटकर कहीं बाल्टी में डुबोकर
तो कहीं विष चढ़ाकर बच्ची की हत्या कर दी जाती है। कहीं हत्या कहीं आत्महत्या, कहीं बलात्कार तो कहीं प्रसव के दौरान
मृत्यु। क्या नारी “दुःख” का दूसरा नाम है। अब वह समय आ गया है जब समाज की
विचारधारा में परिवर्तन लाएं। इसके लिए जरूरत है तो हमें क्रांतिकारी कदम रखने की, महिला संगठनों को भी युद्ध स्तर पर नारी
स्वावलंबन, नारी शिक्षा की दिशा में
उत्तरोत्तर प्रगति में सहायक बनने की। उन्हें उनके अधिकारों के प्रति सजग करने की।
फिर देखिए मंजिल पर लक्ष्य रखते ही सफलता आपके कदम चूमेंगी। घर-परिवार में, समाज में आपका मान-सम्मान बढ़ेगा। दरअसल
मुद्दा नारी अस्मिता का है। रचनाधर्मी महिलाओं को अपनी रचनात्मक क्षमता बनाए रखते
हुए शालीनता से, मर्यादित ढंग से हमेशा
सृजनरूपी सरिता प्रवाहित करते रहना चाहिए। अभी तो शुरूआत है अंधेर नहीं हुआ है
हमें अपनी मंजिल स्वयं तय करनी है। अपनी पहचान स्वयं बनानी है कुछ इस तरह की-----
सूरज
के ढलने से पहले
सन्नाटा
जब गहराने लगा
मन
का पंछी व्याकुल हो उठा
असीम
वेदना,
एक
हूक सी उठी मन में
कहां
जाऊं
सन्नाटा
मुझे घेर लेगा
शकुंतला
तरार-----
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