Friday, February 5, 2016

लेख-“गौरवशाली नारी”



 गौरवशाली नारी
हमारे भारतीय संस्कृति में नारी को जो गौरवशाली स्थान मिला है वह स्थान विश्व की किसी भी संस्कृति में नहीं है। विद्या, बुद्धि, मान-सम्मान, यश, संपत्तिदयिनी, सर्वशक्ति, सर्वरूपा नारी पौराणिक काल से ही पूजनीय रही है। नारी का स्थान सदैव पुरुष से ऊँचा और श्रेष्ठ माना गया है तभी तो कहा गया है कि यत्रनार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता। भारतीय संस्कृति में नारी त्याग, विश्वास, श्रद्धा का प्रतीक मानी जाती है। विश्व मंच पर भारतीय संस्कृति की महानता इसी बात से मानी जाती है कि यहां नारी का उच्च एवं महान आदर्श स्वरूप रहा है वे राजनीति में, रणनीति में, समाजनीति में अपना कीर्तिमान स्थापित कर चुकी हैं।
      नारी के हम तीन रूपों की कल्पना करते हैं। धन, बुद्धि और शक्ति। धन लक्ष्मी हुई,बुद्धि सरस्वती और शक्ति दुर्गा। इड़ा,पिंगला हमारी नारी शक्ति हैं और पुरुष हमारे रीढ़ की हड्डी हैं। इड़ा मनन शक्ति है, पिंगला क्रिया शक्ति। दोनो के समुचित समन्वय से ही पुरुष सफल होता है। वहीं पुरुष जिसके सफलता के पीछे नारी का हाथ होता है किन्तु नारी को प्रताड़ित करने में वह कभी हाथ आया अवसर जाने नहीं देता।
      हिंदू समाज में हम मां का स्थान सर्वोपरि मानते हैं। पुरातन काल से ही आचार्यों, मनीषियों द्वारा सिखाए गए ज्ञान में सर्वप्रथम मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देव भव की शिक्षा दी जाती है। नारी को देवत्व मानकर शक्ति स्वरूपा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। अर्द्धनारीश्वर की कल्पना भी मानव से देवत्व की ओर उठाया गया सम्मानित पूजित स्वरूप है और हमारी भारतीय संस्कृति की ही देन है। नारी पुरुष की अनुगामिनी है पुरुषों की जन्म दात्री है। धर्यवान है वह। नौ महीने तक अपने अंदर में एक भावी पुरुष को रखती है। वह पुरुष राम हो सकते हैं। कृष्ण भी, नानक, कबीर, सूर, तुलसी या अब्दुल कलाम भी।
      स्त्री वह उर्जा है जो स्वयं जलकर भी समाज को दैदिप्यमान करती है। पुरुषों के लिए उसका त्याग अनुकरणीय उदाहरण है चाहे वह फिर सीता हो कुंती या फिर द्रौपदी या उर्मिला। सीता जिसने चौदह वर्ष का वनवास बिताया, फिर भी उसे अपनी शुद्धता, पवित्रता साबित करने के लिए अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा। त्रासदी का अंत यहीं समाप्त नहीं होता बल्कि गर्भावस्था में जंगल में छोड़ दी गई। कल्पना कीजिए यदि वे हिंसक पशुओं का शिकार हो जाती तो क्या होता। क्या हमें लवकुश जैसे वीर बालक मिल पाते। छत्तीसगढ़ की धरती को पावन किया था माता सीता ने। उनके बिना हमारा रामायण अधूरा ही रह जाता। हिंदू समाज में हम पांच स्त्रियों को प्रातः स्मरणीय मानते हैं जिनमें तारा, कुन्ती, अहिल्या, दौपदी एवं मंदोदरी। क्या ये समान्य स्त्रियां थीं। अहिल्या उस पुरुष रूपी छद्म वेशी इंद्र के द्वारा छली जाने पर भी उसे शिला बनना पड़ा और राम रूपी पुरुष ने ही उसका उद्धार भी किया। निर्दोष होते हुए भी वह दण्ड की भागी बनीं, वहीं कुंती ने अपने बेटों के साथ तेरह वर्ष का वनवास झेला फिर भी वह पतियों के साथ स्वर्ग की अधिकारिणी नहीं बनी। दौपदी ने भी पांच पतियों के साथ निर्वाह किया। मंदोदरी ऋषि पुत्री विदुषी महिला थीं। तारा जैसे गुणी स्त्री देवर सुग्रीव के साथ विवाह  करने पर स्वर्ग की अधिकारिणी नहीं बनीं।
 अब हम बात करते हैं मुगल काल की । इस्लाम प्रवेश के बाद भारत में बहुत सारी कुरीतियों ने जन्म लिया। जो महिलाओं को एक युग पीछे ढकलने में सहायक साबित हुआ। इन कुरीतियों में 1- पर्दा पर्था, 2-बाल विवाह, 3- सती प्रथा, 4- शिक्षा पर प्रतिबंध, घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया गया उन्हें। यह महिलाओं की सबसे बड़ी  अवनति का काल था। उन्हें उत्तराधिकार से भी वंचित कर दिया गया। इन सब कुरीतियों में सती प्रथा सबसे दर्दनाक हृदय विदारक था। पति के मौत के बाद उसकी स्त्री को पति के साथ चिता में जिंदा जला दिया जाता था। सती प्रथा का एक उदाहरण महारानी अहिल्या बाई के यहां की हम बात लें तो उनका पुत्र था नथ्याबा जिसकी 15 नवम्बर 1970 को केवल तेईस वर्ष की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई। तब उसकी दो पत्नियां थी। एक सत्रह वर्ष की तथा दूसरी दस वर्ष की। दोनों ही पति के साथ सती हो गई थीं। तथा जामाता यशवंतराव फणसे की मृत्यु के पश्चात् पुत्री मुक्ति बाई और यश्वन्त राव की और दो पत्नियां भी सती हो गईं  थी।
      समाज में व्याप्त क्रूर रूढ़ियों के कारण सती प्रथा का प्रचलन बढ़ा। युद्ध में मारे गये योद्धाओं के घरों में विधर्मी विजेताओं द्वारा की जाने वाली लूटपाट तथा उनकी स्त्रियों पर किये जाने वाले अत्याचारों से बचने के लिए ही यह प्रथा प्रारंभ की गई होगी। सती प्रथा के साथ ही महिलाओं द्वारा केसरिया बाना पहनकर युद्धभूमि में जाने वाले राजपूत वीरों की स्त्रियां पति के युद्ध में जाने से पूर्व ही जौहर कर अपनी इहलीला समाप्त कर देते थे ताकि पति के मन में सांसारिक विरक्ति का भाव उत्पन्न हो, दूसरा यह कि वे आश्वश्त हो जायें कि उनके बाद उनकी स्त्रियों पर अत्याचार की आशंका समाप्त हो। बाद में इसके विकृत रूप  ने  इस तरह विकराल रूप धारण कर लिया कि सामान्य जन की स्त्रियों को भी बलपूर्वक सती करा दिया जाता था। इसके दो कारण रहे होंगे। पहला यह कि रिश्तेदारों द्वारा उसके धन पर अधिकार, दूसरा विधवा के पालन पोषण की जिम्मेदारी से बचना। मैंने ऊपर बताया है कि नारी के हम तीन रूपों की कल्पना करते हैं। उसमें लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा तीनों के गुण विद्यमान होते हैं। कुंठित पुरुष ही स्त्री पर लांछन लगाता है।
      औरंगजेब के काल के साथ ही मुगल साम्राज्य की अवनति का काल शुरू हो गया। 1602 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के साथ ही सदियों से पिछड़ी दबाई गई भारतीय नारियों में जागृति के चिन्ह नजर आने लगे और धीरे-धीरे वे भी बाहर निकलकर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगी। स्त्रियों की सक्रियता बढ़ने के साथ ही उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में भी आगे आने का अवसर मिलने लगा।
      जो भी हो सत्य यह है कि हर युग में नारी ही प्रताडि़त हुई है चाहे शारीरिक, आर्थिक, मानसिक या भावनात्मक हो या यौन प्रताणना। सदियों से नारी शोषण की शिकार बनी थी, बनी है और बनती रहेगी चाहे कानून बने या ना बने। कितने लोग इसके खिलाफ आवाज उठाते हैं? निरक्षरों, गरीबों की तो बात छोडि़ये, बड़े घरानों की  पढ़ी लिखी महिलायें भी शोषित,प्रताणित होती रही हैं और होती हैं और वे इस शोषण के खिलाफ आवाज उठाने से डरती हैं। उन्हें लगता है कि इस प्रताणना के खिलाफ यदि वे आवाज बुलंद करेंगी तो उन्हें घर से बाहर कर दिया जावेगा। मायके में भी कब तक रह सकती हैं किंतु आजकल अनेक महिला संगठनों ने महिलाओं के हक में अपनी आवाज उठाई है। जिससे महिलाओं को आत्मबल मिला है और वे अपने अधिकारों के प्रति सजग हुई हैं | शकुंतला तरार ---

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