“नारी निर्जीव वस्तु नहीं”
सुबह के वक्त जैसे ही अखबार हाथ में लेती हूँ मुखपृष्ठ पर ही देश
के प्रमुख समाचारों के साथ सामना होता है। ऐसी खबरों से जिसे पढ़कर मन विचलित होने
लगता है। युवती से सामूहिक दुष्कर्म, बालिका से अनाचार, यौन उत्पीड़न, गला घोंटकर हत्या। कभी-कभी तो इसी तरह के
समाचारों की भरमार होती है अखबारों में। बड़े-बड़े शीर्षक देखने के बाद फिर समाचार
पढ़ने को दिल ही नहीं करता चाहे वह समाचार आंचलिक हो, चाहे प्रदेश की हो, राष्ट्रीय हो या अंतर्राष्ट्रीय।
क्या नारी कोई निर्जीव वस्तु है कि जिसका जब जी चाहा अपनी मर्जी
से उपयोग किया और बाद में कूड़ा-करकट की तरह फेंक दिया। क्या है यह सब ! एक समय था जब अधिकतर
महिलाएं स्टोव फटने से या स्टोव से साड़ी में आग लगने पर जल जाती थीं यही वह समय
था जब दहेज रुपी आग महिलाओं के, बेटियों के कपड़ों में साड़ियों
में आग लगा करती थी किन्तु, समय बदला स्टोव की जगह रसोई में गैस चूल्हे ने अपना
स्थान बना लिया और भोजन बैठकर पकाने की जगह खड़े होकर ही पकाया जाने लगा किन्तु 80-90 के दशक में जब तब भी
बेटियों के कपड़ों में आग लग ही जाया करती थी । आज लगभग 70 प्रतिशत महिलाएं आग से सुरक्षित हैं न
स्टोव फट रहा है न केरोसिन सुलभ है फिर भी महिलाएं कहीं न कहीं से प्रताडि़त हुई
जा रही हैं और नहीं तो अब निर्भया जैसे काण्ड में बढ़ोत्तरी हुई है। जैसे-जैसे हम
शैक्षिक उन्मुखीकरण की ओर तीव्रता से अग्रसर हो रहे हैं। बेटियों को शिक्षित करने
उनकी प्राथमिक से लेकर महाविद्यालय स्तर तक की शिक्षा के लिये शासन योजनाएं तैयार
कर रही है। हमारी कुंठायें हम पर हावी होती जा रही है कारण स्पष्ट है दरअसल हम
दौड़ का हिस्सा बनना चाहती हैं उस दौड़ का जिसमें अव्वल तो एक को ही आना है फिर भी
उस लक्ष्य को पाने की चाह में हम दौड़े चले जा रहे हैं। कईयों का तो कोई लक्ष्य ही
निर्धारित नहीं है किन्तु वही बात की उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफेद क्यों ! और इसी निरर्थक दौड़ के चलते भी कई
महिलाएं विभिन्न हादसों का शिकार बनती हैं।
महिलाओं के अब जागने की
बारी है वह दिन लद गए घर की चार दीवारी में पति के दफ्तर से आने की बाट जोहती नारी
कभी रूठ जाए उसे कभी मान मनुहार की दरकार हो। क्योंकि महिलाएं पति के साथ ही दफ्तर
से लौटने लगी हैं। आज जमाना तेजी से आगे बढ़ रहा है शहर क्या गांव की लड़कियां भी
अब पढ़ लिख रही हैं। अभिभावक चाहते हैं कि उनकी बेटी पढ़-लिखकर किसी भी अच्छी जगह
नौकरी करे। वैसे आज के परिप्रेक्ष्य में अभिभावक अपनी कन्याओं के लिये शिक्षा के
क्षेत्र को सबसे ज्यादा सुरक्षित मानते हैं।
आज के अभिभावक देश के किसी भी प्रांत में सुदूर इलाकों में भी
अपनी पुत्रियों को बेझिझक नौकरी करने की अनुमति प्रदान कर देते हैं। वहीं बेटियां
भी माता-पिता का मान बढ़ा रही हैं। ऐसे समय में हम यह कहें कि हम पिछड़े हुए हैं।
हम पर अत्याचार किया जा रहा है, हमें दबाया जाता है क्यों
? आखिर क्यों है ऐसा? हम में क्यों नहीं सड़े गले आडम्बरों का
विरोध करने की ताकत ? क्यों हम आज भी चार
दीवारी में कुंठित जीवन जीयें। क्या सिर्फ इसलिये कि हम नारी हैं? नहीं ऐसा नहीं है यदि किसी के साथ ऐसा
होता भी है तो वह कायर या दब्बू है उसमें हिम्मत नहीं आगे बढ़कर कुछ कर पाने की।
वह नारी हूँ मैं क्या कर सकूंगी यह सोच-सोच कर ही घबरा जाती है और फिर आये दिन
अखबारों में या टीवी चैनलों द्वारा महिला प्रताड़ना का खींचा गया, प्रस्तुत किया गया चित्र यह सोचने पर
मजबूर कर देता है कि क्या यही नारी की नियति है यदि यही नारी की नियति है तो हम
अपनी चारदीवारी में ही अच्छी हैं। नहीं चाहिए हमें उड़ने को आसमान हमारे पंख सिमटे
रहें तो बेहतर है।
साथियो आइये सशक्तिकरण के इस युग में हम संकल्प लें कि नारियों
पर अत्याचार होने नहीं देंगे और यदि किसी ने किया भी तो उसे हम बख्शेंगे नहीं । शकुंतला तरार
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